खलील जिब्रान की एक छोटी-सी कहानी है।
कहानी का शीर्षक है - आंखें।
कहानी कुछ इसप्रकार है -
एक बार आंखों ने कहा, 'सामने वाली खाई के उस पार वाला पहाड़ कितना सुंदर है! देखो तो! फिलहाल चारों तरफ उसे कोहरे ने घेर रखा है, लेकिन नज़ारा बहुत सुंदर है। '
आंखों ने जो कहा था उसे सुन कर कानों ने कहा, 'पहाड़? कहां है पहाड़? मुझे कोई पहाड़ सुनाई नहीं दे रहा!'कान ने जो कहा वह सुन कर हाथों ने कहा, 'हां रे! आंखों ने जो कहा उसे सुन कर मैंने भी पहाड़ को छूने की कोशिश की थी, लेकिन कहीं कुछ था नहीं। मुझे नहीं लगता कोई पहाड़ होगा यहां!'
नाक ने कहा, 'हाथ ठीक ही कह रहे हैं, है कहां पहाड़? होता तो क्या मुझे उसकी गंध नहीं आती?'
इन सबकी बातें सुन कर आँखें उदास हुईं। उन्होंने अपनी नज़र को पहाड़ से हटा लिया।
आँखों ने जैसे ही अपनी नज़र हटाई बाकी सभी की आपस में खुसुर-पुसुर शुरू हुई - आंखों को शायद भ्रम हुआ है। आंखों में कोई गड़बड़ी पैदा हुई है शायद!'
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कहानी यहीं खत्म होती है।
सबको अपने-अपने अहसासों पर ही भरोसा था।
सबको अपने-अपने अहसासों पर ही भरोसा था।
औरों का कहना भी सही हो सकता है यह मानने के लिए
अहंकार के कारण कोई तैयार ही नहीं था।
सत्य को अपनी कुव्वत के आधार पर ढूंढ़े सबूतों के पैमाने पर कस कर
वे खरी-खोटी आजमाना चाहते थे। उन्हें पता नहीं था कि किसी एक पैमाने में समाने जितना सत्य न तो संकीर्ण है और न ही छोटा। और आंखें?
अपने अहसासों पर उन्हें विश्वास था पर आत्मविश्वास उनमें बिल्कुल नहीं था।