बुधवार, 9 अप्रैल 2014

जागृत पथिक

© संध्या पेडणेकर
गौतम बुद्ध यात्रा कर रहे थे। एक दिन दूर तक यात्रा के बाद थक कर नदी तट के एक वृक्ष के नीचे बैठे विश्राम करने लगे।
संयोग से, काशी से ज्योतिष विद्या का बारह वर्षों तक अध्ययन करने के बाद एक महापंडित उसी रास्ते अपने गांव लौट रहे थे। 
नदी तट की गीली रेत में बने बुद्ध के चरणचिह्नों पर उनकी नज़र पड़ी तो वह हैरान रह गए। जो देखा अगर वह सच था तो जिस ज्ञान की पूंजी लेकर वह लौटे थे वह गलत थी और अगर शास्त्र सही थे तो भरी दुपहरी में इस दीन-दरिद्र गांव में, इस सूखी नदी के तट पर ये चक्रवर्ती सम्राट के चरणचिह्न कैसे? कोई चक्रवर्ती सम्राट भरी दुपहरी में नंगे पैर इस गंदे, दरिद्र नदी के किनारे क्या करने आँएंगे? महल से बाहर की धूल ऐसे व्यक्ति के पैर छू नहीं सकती। 
और चरणचिह्न एक ही व्यक्ति के थे। साथ में वजीर नहीं, सोनापति नहीं, असंभव! 
महापंडित को यह अपने ज्ञान के लिए चुनौती सी लगी। चरणचीह्नों के सहारे वह उस व्यक्ति की खोज में निकले। 
खोजते खोजते वह गौतम बुद्ध के पास पहुंचे। 
उन पर नज़र पड़ते ही वह चकरा गए। सौंदर्य, आभा, सुगंध से भरपूर ऐसे व्यक्तित्व को चक्रवर्ती सम्राट ही होना चाहिए, परंतु.... 
पास में रखा भिक्षापात्र, फटे, जीर्ण वस्त्र, पीठ से चिपका पेट, हड्डी मात्र देह....और शायद भूखी भी। श्रांत, मलिन, पेड से पीठ टिकाए व्यक्ति ने उन्हें उलझन में डाल दिया। 
आखिर महापंडित गौतम बुद्ध के पास गए और उनसे कहा, "बारह वर्षों तक बड़ी मेहनत करके ज्योतिष की शिक्षा लेकर लौट रहा हूं। आप पहले आदमी हैं जो मुझे मिल रहे हैं और आपने मुझे उलझन में डाल दिया है। आपके चरणचीह्न बताते हैं कि आप सम्राट हैं। आपका भिक्षा पात्र, आपका इस प्रकार भरी दोपहरी में वृक्ष के नीचे बैठे होना ... जाहिर है, आप भिक्षु हैं। ... फिर आपकी आंखों और और आपके चेहरे पर नज़र पड़ते ही लगता है कि आप चक्रवर्ती सम्राट हैं। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं।" 
गौतम बुद्ध हंसे। उन्होंने कहा, जब तक मैं बंधा था तब तक तुम्हारा भविष्य सच्चा था। सोए हुए लोगों के बारे में आपका भविष्य सच हो सकता है, मेरे बारे में नहीं, क्योंकि अब मैं जागा हुआ हूं। 
ज्योतिषि कुछ समझा नहीं। उसने पूछा, 'आप कौन हैं?'
भगवान बुद्ध ने कहा, 'मैं केवल बुद्ध हूं। जागा हुआ हूं।' ' 
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सोए हुओं पर ज्योतिष सही हो सकता है। जो मूर्छित हैं उनका तय भाग्य है।
लेकिन जो जाग गए हैं उनका कोई तय भाग्य नहीं। 
जो जागते हैं उनके भविष्य की बागडोर तो स्वयं उनके हाथ में आ जाती है। 

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

असली हीरा

©-संध्या पेडणेकर
एक राजा के दरबार में हीरों का एक व्यापारी आया। उसके पास एक जोडी चमकीले हीरे थे। हीरे इतने सुंदर और तेजस्वी थे कि नजर चुंधिया जाए। उन दो हीरों में से एक था असली और दूसरा था नकली। असली हीरे की हुबहू नकल था नकली हीरा।
व्यापारी ने राजा से कहा कि जो असली हीरा पहचानेगा उसे मैं पुरस्कार में असली हीरा दूंगा।
कठिन चुनौती थी। दोनों हीरे असली ही लग रहे थे। एक-से। पहचानना मुश्किल था कि असली कौन-सा है और नकली कौन-सा। चुनौति किसी व्यक्ति के लिए नहीं दरबार के लिए दी गई है ऐसा राजा को लगा। इस वजह से भी हर कोई चुनौती को स्वीकारने से कतरा रहा था।
अचानक एक अंधा सामने आया। उसने चुनौती स्वीकारने की बात कही। राजा से उसने कहा कि  इजाजत हो तो इस चुनौती को स्वीकारने के लिए मैं तैयार हूं।
राजासमेत सभी दरबारी गण आश्चर्य में थे कि जहां आंखोंवाले इस चुनौती को स्वीकारने से कतरा रहे थे वहां एक अंधा इसे स्वीकारने की बात कर रहा था।
खैर, राजा ने उसे इजाजत दे दी।
अंधे ने आगे आकर बारी बारी हीरों को छुआ। फिर एक हीरा उठा कर उसे असली बताया।
हीरों के व्यापारी ने उसी को असली हीरा बताया।
असली हीरे को एक अंधे ने पहचाना इससे सभी आश्चर्यचकित थे।
राजा ने अंधे से पूछा कि उसने अली हीरा कैसे पहचाना?
अंधे ने कहा, बहुत आसान था। श्रेष्ठ व्यक्ति की तरह हीरे पर भी वातावरण के ताप का कोई असर नहीं होता। किसी भी हाल में उसका तापमान बढ़ता नहीं। जिसका तापमान बढ़ा था वह नकली हीरा था। इसलिए असली हीरा पहचानना मुश्किल नहीं था।
असली हीरा उसे ही मिला।  
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हीरा पाने का अधिकार हीरे की पहचान रखनेवाले को ही होता है।
जिसे पहचान न हो उसके लिए खदान से निकलनेवाले कोयले और हीरे में कोई फर्क नहीं होता।
हीरा भी असल में एक पत्थर ही है।
पारखी ही पत्थरों के बीच भी हीरे को तलाश लेते हैं।

सोमवार, 6 जनवरी 2014

एक है तो शांति है

-संध्या पेडणेकर.                  
मिथिला के राजा थे नेमी। उन्होंने न कभी शास्त्र पढ़ा था, न आध्यात्म में उनकी कोई रुचि थी। जब बूढ़े हुए तो घोर दाह ज्वर ने उन्हें पकड़ा। रानियां शीतलता के लिए उनके शरीर पर चंदन और केसर का लेप करने लगीं। रानियों के हाथ में थीं सोने की चूडियां। लेप करते समय ये चूडियां खनकतीं। नेमी को चूडियों की खनक खटकती। उन्होंने रानियों से चूडियां हटाने को कहा। रानियां सोच में पड़ गईं। चूडियां तो सुहाग की निशानी होती हैं। उन्हें कैसे हटाया जाए? लेकिन सम्राट की बात को टालें भी तो कैसें? मध्यम मार्ग निकालते हुए उन्होंने सुहाग की निशानी के तौर पर एक एक चूडी रखते हुए बाकी सभी चूडियां उतार दीं।
चूडियों की आवाज बंद हो गई, लेप लगता रहा ।
आवाज बंद हो गई तो सम्राट नेमी के मन में एक खयाल आया - हाथ में जब दस चूडियां थीं तो बजती थीं, एक रही तो बजती नहीं। उन्हें साक्षात्कार हुआ कि अनेक हैं तो शोरगुल है, एक है तो शांति है। नेमी उठ कर बैठ गए। बोले कि, मुझे जाने दो।
रानियां भोगी नेमी को जानती थीं - योगी नेमी को नहीं। उन्हें लगा राजा ज्वर की तीव्रता से विक्षिप्त हो गए हैं। वे घबरा गईं। राजा को रोकने लगीं। नेमी ने कहा, घबराओ नहीं। यह कोई सन्निपात नहीं है। सन्निपात तो था, अब गया। तुम्हारी चूडियों की बड़ी कृपा। कैसी जगह से परमात्मा ने सूरज निकाल दिया! तुमने बहुत चूडियां पहन रखी थीं तो बजती थीं। एक बची तो शोरगुल बंद हुआ। उससे बोध हुआ कि जब तक मन में आकांक्षाएं हैं तब तक शोरगुल है। वासनाएं अनंत हैं, आकांक्षा एक होनी चाहिए। परमात्मा से मिलन की। जागरुकता चाहिए, इशारा कहीं से भी मिल सकता है।
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गुरु ने सभी शिष्यों से पूछा लेकिन केवल पंछी की आंख  एक को ही दिखाई दी। वही श्रेष्ठ धनुर्धर भी बना। 
शोरगुल - अंदर का हो या बाहर का, कभी बंद कर देना होता है तो कभी बहरा बनना होता है।
ज्ञान के सूरज का उदय कहीं से भी हो सकता है लेकिन इशारा पहचानने के लिए मन शांत चाहिए।
मन का स्थिर होना लक्ष्य प्राप्ति की पहली  शर्त है और चित्त को स्थिर रखने के लिए हिमालय में या किसी तीर्थस्थान पर  जाने से अधिक अपने अंदर झांकने की ज़रूरत होती है।