शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

सत्यवादी सुकरात

©संध्या पेडणेकर.
सुकरात को इसलिए जहर देकर मारा गया क्योंकि वह सच बोलता था। वह राज्य के खिलाफ कोई बगावत या क्रांति नहीं कर रहा था। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह लोगों को याद दिला रहा था कि तुम असत्य में जी रहे हो।
असत्य ही जहां जीवन का तरीका हो वहां उसकी यह बात कौन सह सकता था
अदालत में उस पर मुकदमा चला। 
मगर अदालत के मुख्य न्यायाधीश को इससे थोडी ग्लानि हो रही थी क्योंकि उसे सुकरात जैसे व्यक्ति को सजा देनी पड़ रही थी; लेकिन ज्यूरी के ज्यादातर लोग उसे मौत की सजा दिए जाने के पक्ष में थे। 
न्यायाधीश ने रास्ता खोज निकाला। उसने कहा, सुकरात, मैं तुमसे निवेदन करता हूं कि अगर तुम एथेन्स छोड़ कर चले जाओगे तो हम तुम्हें कोई दंड नहीं देंगे। एथेन्स के लोग राजी हो जाएंगे कि एथेन्स छोड़ने के बाद तुम जो चाहो सो करो।
सुकरात ने कहा, मैं जहां जाऊंगा वहीं मुकदमा चलेगा। सच तो जहां जाएगा वहीं चोट करेगा। जब एथेन्स जैसे सुसंस्कृत शहर में सत्य चोट कर रहा है तो और कहां जाऊं जहां वह चोट नहीं करेगा?
मुख्य न्यायाधीश ने एक और मौका देते हुए कहा, तो फिर ऐसा करो, तुम रहो एथेन्स में ही। हम तुम्हें बुढ़ापे में शहर से बाहर निकालना नहीं चाहते। मगर सत्य बोलना बंद कर दो।
सुकरात ने कहा, यह तो और भी असंभव है। सत्य के बिना तो मैं रह नहीं सकता। सत्य मेरी सांस है। सांस लिए बगैर जैसे कोई जी नहीं सकता उसी प्रकार सत्य बोले बगैर मैं जी नहीं सकता। जीवन रहे या जाए, इसका कोई मोल नहीं है। अच्छा हो, आप मुझे मौत की सजा दे दें। कम से कम लोग इतना तो कहेंगे कि मरा तो सच के लिए मरा, सॉक्रेटीस ने कोई समझौता नहीं किया।
पेंटिंग -"Death Of Socrates"
http://en.wikipedia.org/wiki/Trial_of_Socrates
http://en.wikipedia.org/wiki/Socrates
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व्यक्ति से समाज बनता है। समाज कई व्यक्तियों से बना समूह है। 
समाज का सदस्य होने के बाद अपनी सुरक्षितता के लिए व्यक्ति को समूह का सच स्वीकारना पड़ता है। 
ज़रूरी नहीं कि समूह का सच तर्काधारित हो। 
समूह की अतार्किकता के आगे व्यक्ति का तर्क नहीं टिक सकता। 
सत्य तर्काधारित होता है लेकिन उसमें समूह के सच का बल नहीं होता।
समूह के सच का कोई तर्क नहीं होता। ....

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

जिस दिन प्रेम जगा

-संध्या पेडणेकर
विश्व की महिला संतों में सूफी संत राबिया एक महत्वपूर्ण नाम है। एक बार राबिया के घर एक और फकीर आकर ठहरा था। जिस धर्म ग्रंथ को पढ़ रही थी उसमें से एक पंक्ति राबिया ने काट दी यह उसने देखा। उसे बहुत अचरज हुआ। लगा, यह राबिया तो बड़ी दुस्साहसी है। धर्मग्रंथ को सुधार रही है?
उसने राबिया से पूछा, तुम इस धर्मग्रंथ से पंक्ति को क्यों काट रही हो?
राबिया ने वह पंक्ति काट दी थी जिसमें लिखा हुआ था – शैतान से घृणा करो। राबिया ने जवाब दिया, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। जिस दिन से मेरे अंदर परमात्मा के लिए प्रेम जागा है उस दिन से मेरे अंदर की नफरत गायब हो गई है। चाहूं तब भी मैं किसीसे – शैतान से भी नफरत नहीं कर सकती। मैं सिर्फ प्रेम ही कर सकती हूं।  मेरे मन में जब से प्रेम जगा है तभी से नफरत को मैंने नदारद पाया। नफरत ही नहीं तो मैं किससे और कैसे नफरत कर सकती हूं? इसीलिए, धर्मग्रंथ की यह पंक्ति मुझे जंची नहीं और मैंने उसे मिटा दिया।
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मन से नफरत की विदाई...
आज के समय की क्या यह सबसे बड़ी ज़रूरत नहीं है?
नफरत नहीं तो नफरत के साथ जुड़ी कोई दुर्भावना नहीं।
दुर्भावना नहीं तो उसके कारण होनेवाले दुष्कृत्य नहीं।
धर्म का असली काम यही है। आराध्य के सहारे हर मन के गलियारे में प्रेम का दीप जलाना।
विचारों की आवाजाही से पटे पडे मन के चौक को प्रेम से रोशन करना।
प्रेम की रोशनी जगे तो नफरत को विदा होने में देर ही कितनी लगेगी?