शनिवार, 29 सितंबर 2012

जैसा आदमी वैसी सजा

-संध्या पेडणेकर
एक राज्य के तीन अधिकारियों ने अपने अधिकारों के बल पर बडे घपले किए।
राजा को पता चला तब उसने तीनों को बुलाया।
उनमें से एक से राजा ने कहा, 'मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी।'
दूसरे आदमी को राजा ने एक साल की सजा सुनाई।
तीसरे आदमी को नगर में गधे पर उल्टा बिठा कर घुमाने, सौ कोडे लगाने और बीस साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई।
राजा न्यायी था लेकिन उसका यह न्याय अन्य दरबारियों को  अटपटा लगा। वे आपस में चर्चा करने लगे कि एक ही अपराध के लिए तीन लोगों को अलग अलग सजा सुनाना क्या न्यायसंगत है? आखिर उन्होंने राजा से ही अपने मन की आशंका का समाधान करने की विनति की। उन्होंने पूछा कि, महाराज, एक ही अपराध के लिए समान रूप से दोषियों को इसतरह अलग अलग सजा क्यों दी गई यह हम जानना चाहते हैं।
राजा ने उनसे कहा, 'जैसा आदमी वैसी सजा - इसी तत्व का पालन करते हुए मैंने इन तीनों को अलग अलग  सजा सुनाई। जो व्यक्ति सज्जन था, जिसने बुरी संगत में फंस कर बुरा कर्म किया था, उसे मैंने कोई सजा नहीं दी, केवल नाउम्मीदी जताई। उस व्यक्ति को इतना बुरा लगा कि उसने घर जाकर आत्महत्या की। दूसरे आदमी की चमडी थोडी मोटी थी इसलिए उसे मैंने एक साल की सजा सुनाई।'
एक दरबारी से रहा नहीं गया। वह बोला, 'लेकिन महाराज, तीसरे व्यक्ति को जो सजा सुनाई गई वह बेहद कठोर है।'
उसकी बात सुन कर राजा मुस्कुराया। कहा, 'आप लोग कारागृह में जाकर एक बार उस आदमी से मुलाकात कीजिए। हो सकता है, उसे मैंने इतनी कठोर सजा क्यों दी यह बात आपकी समझ में आ जाए।'
कुछ दरबारीगण कारागार में अपने सजायाफ्ता सहयोगी से मिलने पहुंचे।
वे यह देख कर हैरान रह गए कि उस आदमी के चेहरे पर शर्मिंदगी का नामोनिशान भी नहीं था। गधे पर उल्टा बिठा कर पूरे नगर में घुमाने का,  कोडे की मार खाने का और बीस साल के कारावास की सजा मिलने का उसे जरा भी रंज नहीं था। वह बड़े मजे में था। मिलने आए अपने पुराने सहयोगियों से वह बोला, 'केवल बीस सालों की ही तो सजा सुनाई है, यूं देखते देखते समय बीत जाएगा। और मैंने इतना कमा कर रखा है कि अगली सात पुश्तों तक हमारे खानदान में किसीको कोई काम करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। ऐश से जी सकते हैं हम! और वैसे यह कहने भर को ही कारागार है, यहां किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं है...'
एक दरबारी ने पूछा, 'चौक में, सबके सामने खडे कर तुम्हें कोडे लगाए गए, सब दूर आपकी बदनामी हुई....'
उसे बीच में ही टोकते हुए वह आदमी बोला, 'बदनामी में भी नाम तो होता ही है! मैं तो मशहूर हो गया हूं! आज पूरे नगर में लोग मेरे ही बारे में बोल रहे होंगे....'
दरबारियों को मानना ही पड़ा कि राजा ने सही न्याय किया था।
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दवा की खुराक हर व्यक्ति के लिए अलग होती है। 
सजा के साथ भी यही है। 
कुछ लोग बदनामी से डरते हैं, कुछ लोगों को लगता है, जो हो, नाम तो हुआ अपना। 
बड़ी आम धारणा है, लक्ष्मीजी जिस किसी तरह से आएं, उनका स्वागत ही किया जाना चाहिए।
कुछेक लोग आज भी मानते हैं कि कमाई के जरिए में खोट हो तो धन फलता नहीं, इसलिए कमाई का जरिया हमेशा सही होना चाहिए। 
ढाक के तीन पात होते होंगे, आदमजाद का हर नमूना नायाब होता है। 

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

कबीर के गुरु

-संध्या पेडणेकर
कहते हैं, गंगा घाट पर स्वामी रामानंद की राह में लेट कर कबीर ने दीक्षा प्राप्त कर ली थी। रामानंद अनजाने ही कबीर के गुरु बन गए।
दीक्षा उपरांत कबीर को ज्ञानप्राप्ति हुई और उनकी वाणी में मिठास आई। लोग उनके कीर्तन सुनने के लिए इकठ्ठे होते और कबीर के आसपास जुटती भीड को देख कर काशी के पंडित नाराज होते। उन पंडितों में से कई वेदपाठी थे, चार-चार वेदों का उन्होंने अध्ययन किया था उन्हें कोई सुनने नहीं आता था लेकिन कबीर की कथा सुनने के लिए लोग खिंचे चले आते। देख देख कर पंडितों को जलन होती। 
पंडितों ने कबीर से कहा, 'तुम गृहस्थ आदमी हो। तुम्हारी संतानें हैं। तुम्हारा कोई गुरू भी नहीं। इसलिए, तुम कथा सुनाना बंद करो।'
कबीर ने कहा, 'मेरा कोई गुरू नहीं यह आप गलत कह रहे हैं। मैंने अपने गुरू से ही यह विद्या प्राप्त की है। गुरु की कृपा के बिना भला ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है?'
कबीर की बात सुन कर पंडितों को अचरज हुआ। उन्होंने उनके गुरू के बारे में पूछा। कबीर ने बताया कि स्वामी रामानंद मेरे गुरू हैं। 

पंडितसमूह स्वामी रामानंद के पास पहुंचा। वे स्वामी रामानंद से पूछने लगे कि, आप तो वैष्णव संप्रदाय के कट्टर समर्थक हैं। कबीर के बारे में यह तक किसीको पता नहीं कि उसका धर्म क्या है - जुलाहा या मुसलमान, उसे आपने कैसे दीक्षा दी? यह तो धर्म के विरुद्ध आचरण हुआ। 
रामानंद जी को इन बातों के बारे में कुछ भी पता नहीं था। वह बोले, 'कौन कबीर? कैसी दीक्षा? हमने तो नहीं दी!' 
पूरी काशी इसी विषय पर चर्चा करने लगी कि गुरू सच्चा कि चेला सच्चा। 
आखिर रामानंद जी ने कबीर को बुला कर पूछा, 'तुम्हारे गुरु कौन हैं?'
कबीर ने कहा, 'आप ही हैं!'
स्वामी रामानंद बोले, 'मैंने तुम्हें कब दीक्षा दी?' बोलते बोलते स्वामी रामानंद ने पैर की खडाऊं उतारी और कबीर के सिर पर दे मारी। कहा, 'मुझे तू झूठा साबित करेगा रे? राम राम राम!!...'
कबीर ने स्वामी रामानंद के पैरों पर लोट लगाई। कहा, 'गुरुदेव, गंगाकिनारे जो दीक्षा दी थी वह अगर झूठ है तो फिर आज दी हुई दीक्षा तो सच है ना! आपके हाथ से सिर पर आशिर्वाद झर रहे हैं और राम नाम का मंत्र भी मिल रहा है।'
कबीर के वचन सुन कर स्वामी रामानंद संतुष्ट हुए। उन्होंने कबीर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकारा। 
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'गुरु गोविंद दोऊ खड़े काको लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।।'-कबीर




सोमवार, 10 सितंबर 2012

भाग्य की दस्तक पहचानो

 -संध्या पेडणेकर
सूफी संत हुजबिरी कहा करते थे कि आदमी अपने हाथ से मौके गंवाता रहता है।
एक आदमी उनसे मिलने आया हुआ था। उसने कहा, मैं नहीं मान सकता। मेरी ही देखिए, ज़िंदगी बीत गई अवसर की तलाश में। अवसर आया ही नहीं। गंवाने का सवाल ही नहीं है। ताक में बैठा हुआ हूं मैं, अवसर आता तो दबोच लेता।
हुजबिरी ने कहा, देखेंगे शाम को, अभी तो मैं नदी पार जा रहा हूं। शाम को उस पार नदी किनारे पेड़ के नीचे बैठा मिलूंगा। तुम मिलने आ जाना, तभी देखेंगे।
उस आदमी के चले जाने के बाद हुजबिरी ने अपने शिष्यों से कहा, एक घड़े में सोने के सिक्के भर कर उसके आने के रास्ते में पुल पर रख दो।
शाम को वह आदमी हुजबिरी से मिलने उसी पुल पर से आया। ठीक बीच में आकर उसने आंखें बंद कर लीं। घडा जहां रखा था पुल का वह हिस्सा उसने आंखें बंद रखे ही पार किया। वहां खड़े बाकी लोग भी भौंचक थे। सबको लगा, हद्द हो गई। ठीक घड़े के पास आते ही इसने आंखें कैसे मूंद लीं?
वह आदमी हुजबिरी के पास पहुंचा। पीछे पीछे घड़ा लेकर बाकी लोग भी पहुंचे।
हुजबिरी ने उस आदमी से पूछा, तुमने आंखें क्यों बंद कर ली थीं चलते चलते?’
वह आदमी बोला, मुझे लगा कि जरा देखूं तो कि आंखें बंद करके पुल पार करना का लगता है! ऐसे ही मौज आ गई तो मैंने आंखें बंद कर लीं।
हुजबिरी ने कहा, यह घड़ा देख रहे हो? सोने के सिक्कों से भरा यह घड़ा तेरे लिए ही रास्ते में रखा हुआ था। इसे पाकर तेरी सारी  माली मुश्किलें खत्म हो जातीं। लेकिन मन में मेरे खटका भी लगा हुआ था। लगा कि, ज़िंदगी भर यह मौके गंवाता ही आया है, इस मौके को गंवाने की भी कोई न कोई तरकीब निकाल ही लेगा। इस अवसर को भी गंवा देगा।
और तूने तरकीब निकाल ही ली, जरा आंखें बंद करके देख तो लूं!’
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चाहे आंखें बंद रखें या खुलीं, कई बार अवसर खो ही जाते हैं।
इसे फिर भाग्य कहें, लापरवाही कहें या फिर निरी मूर्खता।
और एक बात,
क्या सोना पानेवाले ही भाग्यवान होते हैं?
फिर मिडास का क्या?
तुकाराम कह गए हैं – ठेविले अनंते तैसेचि रहावे…‘
परस्परविरोधी बातें हैं संतोष और मौके की तलाश।
चतुर हम उन्हें कह सकते हैं जो मौके पाकर संतुष्ट रहते हैं!