सोमवार, 10 सितंबर 2012

भाग्य की दस्तक पहचानो

 -संध्या पेडणेकर
सूफी संत हुजबिरी कहा करते थे कि आदमी अपने हाथ से मौके गंवाता रहता है।
एक आदमी उनसे मिलने आया हुआ था। उसने कहा, मैं नहीं मान सकता। मेरी ही देखिए, ज़िंदगी बीत गई अवसर की तलाश में। अवसर आया ही नहीं। गंवाने का सवाल ही नहीं है। ताक में बैठा हुआ हूं मैं, अवसर आता तो दबोच लेता।
हुजबिरी ने कहा, देखेंगे शाम को, अभी तो मैं नदी पार जा रहा हूं। शाम को उस पार नदी किनारे पेड़ के नीचे बैठा मिलूंगा। तुम मिलने आ जाना, तभी देखेंगे।
उस आदमी के चले जाने के बाद हुजबिरी ने अपने शिष्यों से कहा, एक घड़े में सोने के सिक्के भर कर उसके आने के रास्ते में पुल पर रख दो।
शाम को वह आदमी हुजबिरी से मिलने उसी पुल पर से आया। ठीक बीच में आकर उसने आंखें बंद कर लीं। घडा जहां रखा था पुल का वह हिस्सा उसने आंखें बंद रखे ही पार किया। वहां खड़े बाकी लोग भी भौंचक थे। सबको लगा, हद्द हो गई। ठीक घड़े के पास आते ही इसने आंखें कैसे मूंद लीं?
वह आदमी हुजबिरी के पास पहुंचा। पीछे पीछे घड़ा लेकर बाकी लोग भी पहुंचे।
हुजबिरी ने उस आदमी से पूछा, तुमने आंखें क्यों बंद कर ली थीं चलते चलते?’
वह आदमी बोला, मुझे लगा कि जरा देखूं तो कि आंखें बंद करके पुल पार करना का लगता है! ऐसे ही मौज आ गई तो मैंने आंखें बंद कर लीं।
हुजबिरी ने कहा, यह घड़ा देख रहे हो? सोने के सिक्कों से भरा यह घड़ा तेरे लिए ही रास्ते में रखा हुआ था। इसे पाकर तेरी सारी  माली मुश्किलें खत्म हो जातीं। लेकिन मन में मेरे खटका भी लगा हुआ था। लगा कि, ज़िंदगी भर यह मौके गंवाता ही आया है, इस मौके को गंवाने की भी कोई न कोई तरकीब निकाल ही लेगा। इस अवसर को भी गंवा देगा।
और तूने तरकीब निकाल ही ली, जरा आंखें बंद करके देख तो लूं!’
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चाहे आंखें बंद रखें या खुलीं, कई बार अवसर खो ही जाते हैं।
इसे फिर भाग्य कहें, लापरवाही कहें या फिर निरी मूर्खता।
और एक बात,
क्या सोना पानेवाले ही भाग्यवान होते हैं?
फिर मिडास का क्या?
तुकाराम कह गए हैं – ठेविले अनंते तैसेचि रहावे…‘
परस्परविरोधी बातें हैं संतोष और मौके की तलाश।
चतुर हम उन्हें कह सकते हैं जो मौके पाकर संतुष्ट रहते हैं!