-संध्या पेडणेकर
कहते हैं, गंगा घाट पर स्वामी रामानंद की राह में लेट कर कबीर ने दीक्षा प्राप्त कर ली थी। रामानंद अनजाने ही कबीर के गुरु बन गए।
दीक्षा उपरांत कबीर को ज्ञानप्राप्ति हुई और उनकी वाणी में मिठास आई। लोग उनके कीर्तन सुनने के लिए इकठ्ठे होते और कबीर के आसपास जुटती भीड को देख कर काशी के पंडित नाराज होते। उन पंडितों में से कई वेदपाठी थे, चार-चार वेदों का उन्होंने अध्ययन किया था उन्हें कोई सुनने नहीं आता था लेकिन कबीर की कथा सुनने के लिए लोग खिंचे चले आते। देख देख कर पंडितों को जलन होती।
पंडितों ने कबीर से कहा, 'तुम गृहस्थ आदमी हो। तुम्हारी संतानें हैं। तुम्हारा कोई गुरू भी नहीं। इसलिए, तुम कथा सुनाना बंद करो।'
कबीर ने कहा, 'मेरा कोई गुरू नहीं यह आप गलत कह रहे हैं। मैंने अपने गुरू से ही यह विद्या प्राप्त की है। गुरु की कृपा के बिना भला ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है?'
कबीर की बात सुन कर पंडितों को अचरज हुआ। उन्होंने उनके गुरू के बारे में पूछा। कबीर ने बताया कि स्वामी रामानंद मेरे गुरू हैं।
पंडितसमूह स्वामी रामानंद के पास पहुंचा। वे स्वामी रामानंद से पूछने लगे कि, आप तो वैष्णव संप्रदाय के कट्टर समर्थक हैं। कबीर के बारे में यह तक किसीको पता नहीं कि उसका धर्म क्या है - जुलाहा या मुसलमान, उसे आपने कैसे दीक्षा दी? यह तो धर्म के विरुद्ध आचरण हुआ।
रामानंद जी को इन बातों के बारे में कुछ भी पता नहीं था। वह बोले, 'कौन कबीर? कैसी दीक्षा? हमने तो नहीं दी!'
पूरी काशी इसी विषय पर चर्चा करने लगी कि गुरू सच्चा कि चेला सच्चा।
आखिर रामानंद जी ने कबीर को बुला कर पूछा, 'तुम्हारे गुरु कौन हैं?'
कबीर ने कहा, 'आप ही हैं!'
स्वामी रामानंद बोले, 'मैंने तुम्हें कब दीक्षा दी?' बोलते बोलते स्वामी रामानंद ने पैर की खडाऊं उतारी और कबीर के सिर पर दे मारी। कहा, 'मुझे तू झूठा साबित करेगा रे? राम राम राम!!...'
कबीर ने स्वामी रामानंद के पैरों पर लोट लगाई। कहा, 'गुरुदेव, गंगाकिनारे जो दीक्षा दी थी वह अगर झूठ है तो फिर आज दी हुई दीक्षा तो सच है ना! आपके हाथ से सिर पर आशिर्वाद झर रहे हैं और राम नाम का मंत्र भी मिल रहा है।'
कबीर के वचन सुन कर स्वामी रामानंद संतुष्ट हुए। उन्होंने कबीर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकारा।
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'गुरु गोविंद दोऊ खड़े काको लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।।'-कबीर
कहते हैं, गंगा घाट पर स्वामी रामानंद की राह में लेट कर कबीर ने दीक्षा प्राप्त कर ली थी। रामानंद अनजाने ही कबीर के गुरु बन गए।
दीक्षा उपरांत कबीर को ज्ञानप्राप्ति हुई और उनकी वाणी में मिठास आई। लोग उनके कीर्तन सुनने के लिए इकठ्ठे होते और कबीर के आसपास जुटती भीड को देख कर काशी के पंडित नाराज होते। उन पंडितों में से कई वेदपाठी थे, चार-चार वेदों का उन्होंने अध्ययन किया था उन्हें कोई सुनने नहीं आता था लेकिन कबीर की कथा सुनने के लिए लोग खिंचे चले आते। देख देख कर पंडितों को जलन होती।
पंडितों ने कबीर से कहा, 'तुम गृहस्थ आदमी हो। तुम्हारी संतानें हैं। तुम्हारा कोई गुरू भी नहीं। इसलिए, तुम कथा सुनाना बंद करो।'
कबीर ने कहा, 'मेरा कोई गुरू नहीं यह आप गलत कह रहे हैं। मैंने अपने गुरू से ही यह विद्या प्राप्त की है। गुरु की कृपा के बिना भला ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है?'
कबीर की बात सुन कर पंडितों को अचरज हुआ। उन्होंने उनके गुरू के बारे में पूछा। कबीर ने बताया कि स्वामी रामानंद मेरे गुरू हैं।
पंडितसमूह स्वामी रामानंद के पास पहुंचा। वे स्वामी रामानंद से पूछने लगे कि, आप तो वैष्णव संप्रदाय के कट्टर समर्थक हैं। कबीर के बारे में यह तक किसीको पता नहीं कि उसका धर्म क्या है - जुलाहा या मुसलमान, उसे आपने कैसे दीक्षा दी? यह तो धर्म के विरुद्ध आचरण हुआ।
रामानंद जी को इन बातों के बारे में कुछ भी पता नहीं था। वह बोले, 'कौन कबीर? कैसी दीक्षा? हमने तो नहीं दी!'
पूरी काशी इसी विषय पर चर्चा करने लगी कि गुरू सच्चा कि चेला सच्चा।
आखिर रामानंद जी ने कबीर को बुला कर पूछा, 'तुम्हारे गुरु कौन हैं?'
कबीर ने कहा, 'आप ही हैं!'
स्वामी रामानंद बोले, 'मैंने तुम्हें कब दीक्षा दी?' बोलते बोलते स्वामी रामानंद ने पैर की खडाऊं उतारी और कबीर के सिर पर दे मारी। कहा, 'मुझे तू झूठा साबित करेगा रे? राम राम राम!!...'
कबीर ने स्वामी रामानंद के पैरों पर लोट लगाई। कहा, 'गुरुदेव, गंगाकिनारे जो दीक्षा दी थी वह अगर झूठ है तो फिर आज दी हुई दीक्षा तो सच है ना! आपके हाथ से सिर पर आशिर्वाद झर रहे हैं और राम नाम का मंत्र भी मिल रहा है।'
कबीर के वचन सुन कर स्वामी रामानंद संतुष्ट हुए। उन्होंने कबीर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकारा।
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'गुरु गोविंद दोऊ खड़े काको लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।।'-कबीर