सोमवार, 20 अप्रैल 2015

अंतिम पाठ

© संध्या पेडणेकर
नॉन इन बहुत वर्षों तक अपने गुरु के साथ रहा। एक दिन गुरु ने उससे कहा, मेरे साथ रह कर तुम जितना ज्ञान प्राप्त कर सकते थे वह तुमने कर लिया है। अब अंतिम पाठ पढ़ने के लिए तुम्हें दूसरे गुरू के पास जाना होगा। 
नॉन इन को लगा कि उसे एक ऐसे व्यक्ति के पास भेजा जा रहा है जो उसके गुरु से महान है। 
लेकिन गुरू ने जिस व्यक्ति के पास भेजा था उसे देख कर वह उदास हुआ। 
उसका नया गुरू एक सराय का द्वारपाल था। 
नॉन इन को बड़ी निराशा हुई। उसे लगा, क्या यह आदमी मुझे समापन संस्पर्श दे पाएगा? वह बड़ी लंबी यात्रा करके आया था सो उसने सोचा, कुछ दिन ठहर कर विश्राम ही कर लेते हैं। उसने सराय के दरबान को गुरू की दी हुई चिट्ठी दी। 
दरबान बोला, मैं पढ़ नहीं सकता। इसे तुम ही रख लो। तुम चाहो तो यहां ठहर सकते हो। 
नॉन इन ने कहा, मेरे गुरू ने मुझे आपके पास कुछ सीखने के लिए भेजा है। 
दरबान ने कहा, मैं तुम्हें कुछ पढ़ा नहीं सकता। मैं इस सराय का दरबान हूं। मैं कोई गुरू नहीं हूं। लेकिन जब नॉन इन जिद पर अड़ गया तो दरबान ने कहा, तुम चाहो तो यहां ठहर सकते हो। मैं जो काम करता हूं वह ध्यान से देखते रहना, हो सकता है कुछ सीख जाओ। 
लेकिन ध्यान से देखने के लिए वहां कुछ भी नहीं था। सराय में आनेवाले लोगों का वह दरबान स्वागत करता। उनकी ज़रूरत की चीजें भंडार से निकाल कर देता। वे जब चले जाते तब सभी चीजों को साफ करके रखता। फिर दूसरे दिन वही क्रम। सराय में कभी कोई ठहर जाता तो उनकी ज़रूरत के अनुसार वह सफाई आदि कर देता। 
तीसरे दिन नॉन इन वापिस लौट आया। 
नाराज होते हुए वह अपने गुरू से बोला, क्यों मुझे आपने इतनी दूर की यात्रा पर भेजा? जिससे ज्ञान का अंतिम पाठ पढ़ने भेजा था वह तो एक सराय का दरबान था। उसने मुझसे कहा कि मैं ध्यान से देखूं लेकिन ध्यान से देखने के लिए वहां कुछ नहीं था। क्या सीखता मैं वहां? इसलिए लौट आया। 
गुरू ने कहा, तीन दिन तुम वहां थे, तुमने कुछ तो देखा होगा? 
नॉन इन ने बताया, मैंने देखा कि रात को वह हांडियां-बर्तन साफ करता है, उन्हें ठीक से जमा कर रखता है फिर सुबह उठ कर यात्रियों की ज़रूरत के मुताबिक उन्हें चीजें देता है और रात फिर चीजों को साफ करके रखता है।  
गुरू ने कहा, यही तो, मैं तुम्हें यही शिक्षा देना चाहता था। तुम्हारी शिक्षा का अंतिम पाठ यही है। जो काम अपने हिस्से आता है उसे पूरी ईमानदारी से, सफाई के साथ करते रहना चाहिए। तुम अपनी शुद्धता को लेकर अभिमानी हो गए थे। निरंतर सफाई और नित्यकर्म की ज़रूरत तुम भूल गए थे। 

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

सिकंदर और डायोजनीज

© संध्या पेडणेकर
http://classicalwisdom.com/diogenes-of-sinope/
विश्वविजय के बाद सिकंदर डायोजनीज से मिलने गया। सुबह की धूप का आनंद लेेते हुए वह नंगा लेटा हुआ था रेत पर। सिकंदर के आने पर वह उठ कर बैठा तक नहीं जबकि बड़े बड़े सम्राट भी खड़े होकर स्वागत करते थे सिकंदर का। कुछ अपमानित सा महसूस कर सिकंदर को थोड़ी बेचैनी महसूस हुई। फिर भी बात छेड़ते हुए उसने कहा, "आपकी तारीफ सुन कर मैं बड़ी दूर से आया हूं। आप पहले आदमी हैं जो मुझसे डरे नहीं। जो मेरे सम्मान में उठ कर खड़े नहीं हुए। मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूं। बताइए,  मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?"
डायोजनीज ने कहा, तुम? मेरे लिए क्या कर सकोगे?”
डायोजनीज की बात सिकंदर पर नागवार गुजर रही थी। फिर भी डायोजनीज के अक्खड़पन से वह प्रभावित हुआ। कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। फिर बोला, मैं विश्वविजेता हूं। मैं आप पर अहसान करने नहीं आया, आपके प्रति सम्मान व्यक्त करने आया हूं। आपके लिए कुछ कर सकूं तो बड़ी खुशी होगी।
सिकंदर की इस अतिरिक्त विनम्रता का डायोजनीज पर कोई असर नहीं हुआ। उसने कहा, कुछ करना ही चाहते हो तो थोड़ा हट कर खड़े हो जाओ। मैं धूप तापना चाहता हूं। तुम बीच में खड़े हो। तुम्हारे कारण सूरज की किरणें मुझ तक पहुंच नहीं पा रही हैं। बस् थोड़ा हट जाओ। इससे ज्दा तुम मेरे लिए कुछ कर सकते हो और न मुझे ज़रुरत है।
***
राजा अपने अहंकार की तुष्टि चाहता है।
डायोजनीज को न राजा से न राजा के अहंकार से, न दुनिया ही से कुछ की उम्मीद है।
गृहस्थ न राजा होता है न फकीर।
अपने अहं को अपने अक्खड़पने के साथ खूंटी से टांग कर वह दुनिया में निकलता है। 
वैसे, अपने आप में वह एक साथ राजा भी होता और फकीर भी। 
इसीलिए, वह राजा और फकीर दोनों से श्रेष्ठ है। 
अपनी मर्जी से गार्हस्थ्य यज्ञ में वह अपनी आहुति चढ़ाता है। 
जनतंत्र में राजा होता नहीं और न हम फकीर हैं...
हम सब गृहस्थ हैं, बेशक।

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

सभी पाठकों का धन्यवाद

'दास्तानगो' की छोटी कहानियां पढ़ने में आपने जो रुचि दिखाई, उसके लिए आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद.
अन्य लेखनकार्य की व्यस्तता के कारण कुछ समय तक  ब्लॉग अपडेट नहीं किया जा सका। लेकिन अब नियमीत रूप से ब्लॉग अपडेट किया जाएगा। ज़रूर पढ़ें।

आप से अब तक प्राप्त सहयोग आगे भी जारी रहेगा इसका मुझे पूरा विश्वास है।

मराठी के 'आरंभ' ब्लॉग में प्रकाशित इन्हीं छोटी कहानियों को ईसाहित्य प्रकाशन द्वारा 'सूज्ञकथा' शीर्षक के साथ पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया है। ईसाहित्य की वेबसाइट पर यह पुस्तक मुफ्त वितरण के लिए इस लिंक पर उपलब्ध है

http://www.esahity.com/uploads/5/0/1/2/501218/sudnyakathaa.pdf

एक और महत्वपूर्ण सूचना पाठकों को देना चाहूंगी। मराठी के लेखक साने गुरुजी की मशहूर कृति 'श्यामची आई' को हिंदी में लाने का सौभाग्य मुझे मिला। श्रेष्ठ मातृभक्ति से परिचित कराते हुए संवेदनशीलता को जगा कर मानवधर्म निभाने की प्रेरणा देनेवाला मराठी का यह युगांतरकारी कथात्मक उपन्यास अब  'श्याम की मां' शीर्षक से हिंदी में भी उपलब्ध है। परिवार के हर सदस्य को एक-सा आनंद देनेवाली, समृद्ध जीवनानुभवों से व्यक्तित्व को निखारनेवाली यह पुस्तक हरएक को पढ़नी चाहिए। आप पढ़ें, परिचितों को उपहार में दें। प्रभात प्रकाशन की वेबसाईट से यह पुस्तक मंगाई जा सकती है।

संपर्क के लिए ईमेल है - sandhyaship@gmail.com
इस ब्लॉग के बारे में आपकी राय ज़रूर जानना चाहूंगी।
-संध्या पेडणेकर