सोमवार, 6 अप्रैल 2015

सिकंदर और डायोजनीज

© संध्या पेडणेकर
http://classicalwisdom.com/diogenes-of-sinope/
विश्वविजय के बाद सिकंदर डायोजनीज से मिलने गया। सुबह की धूप का आनंद लेेते हुए वह नंगा लेटा हुआ था रेत पर। सिकंदर के आने पर वह उठ कर बैठा तक नहीं जबकि बड़े बड़े सम्राट भी खड़े होकर स्वागत करते थे सिकंदर का। कुछ अपमानित सा महसूस कर सिकंदर को थोड़ी बेचैनी महसूस हुई। फिर भी बात छेड़ते हुए उसने कहा, "आपकी तारीफ सुन कर मैं बड़ी दूर से आया हूं। आप पहले आदमी हैं जो मुझसे डरे नहीं। जो मेरे सम्मान में उठ कर खड़े नहीं हुए। मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूं। बताइए,  मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?"
डायोजनीज ने कहा, तुम? मेरे लिए क्या कर सकोगे?”
डायोजनीज की बात सिकंदर पर नागवार गुजर रही थी। फिर भी डायोजनीज के अक्खड़पन से वह प्रभावित हुआ। कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। फिर बोला, मैं विश्वविजेता हूं। मैं आप पर अहसान करने नहीं आया, आपके प्रति सम्मान व्यक्त करने आया हूं। आपके लिए कुछ कर सकूं तो बड़ी खुशी होगी।
सिकंदर की इस अतिरिक्त विनम्रता का डायोजनीज पर कोई असर नहीं हुआ। उसने कहा, कुछ करना ही चाहते हो तो थोड़ा हट कर खड़े हो जाओ। मैं धूप तापना चाहता हूं। तुम बीच में खड़े हो। तुम्हारे कारण सूरज की किरणें मुझ तक पहुंच नहीं पा रही हैं। बस् थोड़ा हट जाओ। इससे ज्दा तुम मेरे लिए कुछ कर सकते हो और न मुझे ज़रुरत है।
***
राजा अपने अहंकार की तुष्टि चाहता है।
डायोजनीज को न राजा से न राजा के अहंकार से, न दुनिया ही से कुछ की उम्मीद है।
गृहस्थ न राजा होता है न फकीर।
अपने अहं को अपने अक्खड़पने के साथ खूंटी से टांग कर वह दुनिया में निकलता है। 
वैसे, अपने आप में वह एक साथ राजा भी होता और फकीर भी। 
इसीलिए, वह राजा और फकीर दोनों से श्रेष्ठ है। 
अपनी मर्जी से गार्हस्थ्य यज्ञ में वह अपनी आहुति चढ़ाता है। 
जनतंत्र में राजा होता नहीं और न हम फकीर हैं...
हम सब गृहस्थ हैं, बेशक।