मंगलवार, 31 जुलाई 2012

काल्पनिक जंजीरों में बंधा जीवन

-संध्या पेडणेकर 
एक बार एक रेगिस्तानी सराय में एक बड़ा काफिला आया। यात्री थके हुए थे और उनके ऊंट भी थके हुए थे। ऊंटों के मालिकों ने ऊंटों के गले में रस्सियां बांध दीं। खूंटियां गाडते हुए उन्हें पता चला कि उनमें से एक की खूंटी और रस्सी खो गई थी। ऊंट को खुला नहीं छोड़ा जा सकता था क्योंकि रात ऊंट के भटक जाने का डर था।
उन्होंने जाकर सराय के मालिक से खूंटी और रस्सी मांगी। सराय के मालिक ने कहा कि खूंटें और रस्सिया तो हमारे पास नहीं हैं। लेकिन मैं आपको एक उपाय बताता हूं। आप यूं करो कि, नकली खूंटा गाड दो और ऊंट के गले में नकली रस्सी बांध दो और ऊंट से कहो कि वह सो जाए।
काफिले के मालिक को विश्वास तो नहीं हुआ लेकिन उसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। उन्होंने ठीक वैसा ही किया जैसे कि सराय के मालिक ने कहा था। झूठमूट का खूंटा गाडा, रस्सी जो थी ही नहीं - ऊंट के गले में बांधी और ऊंट से कहा कि वह सो जाए।
आश्चर्य की बात कि तब तक खडा वह ऊंट इस सारे तामझाम के बाद बैठा और सो गया। काफिले के मालिक को तसल्ली हुई, लगा कि उपाय लागू हो सकता है। थके मांदे थे सो वे भी जाकर सो गए।
सुबह काफिला रवाना होने का समय आया। अन्य सभी ऊंटों की रस्सियां खोली गईं, खूंटें उखाडे। सभी ऊंट रवाना होने के लिए तैयार हुए। लेकिन झूठी रस्सी में बंधा और झूठे खूंटे से गडा ऊंट उठने के लिए तैयार नहीं था।
परेशान काफिले का मालिक सराय के मालिक के पास शिकायत लेकर गया, कहा, 'पता नहीं आपने कौनसा मंत्र पढ़ा, अब मेरा ऊंट उठ ही नहीं रहा है। मैं आगे कैसे जाऊंगा?'
सराय के मालिक ने कहा, 'जाकर पहले खूंटा उखाडो, रस्सी उसके गले से हटाओ।'
काफिले के मालिक ने कहा, 'वहां कोई रस्सी नहीं है और न ही कोई खूंटा गडा है।'
सराय के मालिक ने कहा, 'तुम्हारे लिए नहीं है, ऊंट के लिए है। जाओ, खूंटा उखाडो, रस्सी खोलो। फिर भी ऊंट अगर न चल पड़े तो आकर बताना।'
काफिले के मालिक ने जाकर खूंटा उखाडने का, रस्सी खोलने का अभिनय किया।
ऊंट उठ कर खड़ा हुआ। बाकी ऊंटों के साथ चलने को तैयार हुआ।
काफिले के लोग बहुत हैरान हुए। उन्होंने सराय के मालिक से पूछा इसका रहस्य क्या है?
सराय का मालिक हंसा और बोला, 'न केवल ऊंट बल्कि आदमी भी ऐसी ही खूंटियों से बंधे होते हैं जिनका कि कोई अस्ति्व ही नहीं होता। असल में, ऊंटों का मुझे कोई तजुर्बा नहीं, मनुष्यों के अनुभवों के आधार से ही मैंने आपको यह सलाह दी थी।'
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काल्पनिक बंधनों में जकडा जीव दुनिया की चकरघिन्नी में पिसता रहता है।
वह नहीं जानता कि दुनिया एक सराय है।
धर्म के, देश के, रंग के, विचारधारा के काफिले का वह एक सदस्य भर है।
इन खूंटों से वह बंधा रहता है।
जिस दिन आदमी अपने अंदर के इन्सान को पहचानेगा, जिस दिन अंदर के इंसान के साथ उसका तालमेल बैठेगा, उसके बाद इस दुनिया में हर जीव मुक्त जी पाएगा। 

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

बासी ज्ञान कचरा है

-संध्या पेडणेकर
झेन फकीर रिंझाई के बारे में एक घटना बताई जाती है।
वह पहाड पर रहते थे।
एक बार एक प्रकांड पंडित पहाडी चढ़ कर उनसे मिलने आ पहुंचा। इतनी उंचाई तक चढ़ने का उसे अभ्यास नहीं था इसलिए जब पहुंचा तब उसकी सांस फूली हुई थी। लेकिन जो कुछ पूछना था, जानना था उसके बारे में वह इतना उत्कंठित था कि पहुंचते ही उसने सवालों की झडी लगा दी - मैं जानना चाहता हूं कि ईश्वर है या नहीं? आत्मा है या नहीं? ध्यान क्या है? समाधि क्या है? संबोधि क्या है? बुद्धत्व क्या है?
सवाल सुन कर रिंझाई मुस्कुराए। फिर बोले कि, अभी अभी आए हो। थोड़ा विश्राम कर लो। मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर लाता हूं। चाय पी लें। बातें फिर होती रहेंगी।
रिंझाई चाय बना कर लाए।
पंडित के हाथ में चाय की प्याली दी। उसमें चाय उंड़ेलने लगे।
प्याली भर गई लेकिन रिंझाई रुके नहीं। चाय प्याली से बाहर बहने लगी। पंडित हकबकाकर बोला, 'रुको, रुको। प्याली तो पूरी भर गई है। अब और चाय कहां डालोगे?'
रिंझाई बोले, 'मुझे तो लगा था कि तुम निपट पंडित हो, पर नहीं, अभी थोड़ी अकल तुममें बाकी है। प्याली अगर भरी हो तो उसमें एक बूंद भर चाय भी और नहीं डाली जा सकती यह तो तुम जानते हो, अब सोचो, क्या तुम्हारी हृदय की प्याली खाली है? ईश्वर अगर मिल भी जाए तो क्या तुम उसे अपने अंदर समा सकते हो?बुद्धत्व के सूरज को उगाने के लिए क्या तुम्हारे अंदर का आकाश खुला है? तुम्हारे भीतर इतना थोथा ज्ञान भरा है कि समाधि की एक बूंद भी वहां समा नहीं सकेगी। जागो, समझो, बासी ज्ञान कचरा है। कचरा जहां भरा हो वहां समाधि कैसे लगे? बुद्धत्व कैसे आए? तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर तो मैं दूं, पर क्या तुम उन्हें ले सकोगे?'
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कई बार हम सवालों के जवाब नहीं चाहते, अपनी मान्यता की पुष्टि भर चाहते हैं।
यह लक्षण ईमानदारी का नहीं है।
सचमुच प्रश्न का जवाब पाने की इच्छा जगाने के लिए पहले कही हुई बात को ग्रहण करने की सबूरी इन्सान में होना आवश्यक है। उसके बारे में सोचना फिर हो सकता है, लेकिन अगर आप अपने पूर्वाग्रहों के साथ ले बैठें तो बात को समझानेवाले की तह तक नहीं पहुंच सकते।
ईश्वर को अपने अंदर प्रतिबिंबित देखने के लिए पहले अपने को पारदर्शी बनना होगा।
अंदर छिपे मैल से मुक्ति पाए बगैर यह कैसे संभव है?

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

शरीर की कीमत

-संध्या पेडणेकर
सुप्रसिद्ध संत जलालुद्दीन रूमी को एक बार डाकुओं ने पकड़ लिया। वे उसे बेचने के लिए ले चले। उस जमाने में गुलामों की खरीद-फरोख्त हुआ करती थी। रूमी थे भी हट्टे-कट्टे नौजवान। इसलिए, डाकुओं को लगा कि इस कैदी की अच्छी कीमत मिल सकती है।
रास्ते में उन्हें एक आदमी मिला। उसने कहा, 'मैं इसके दो हजार दीनार दे सकता हूं।'
डाकू बड़े खुश हुए। उन्होंने सोचा नहीं था कि एक गुलाम के इतने दाम मिल सकते हैं। वे रूमी को बेचने के लिए तैयार हो गए। मगर रूमी ने कहा, 'थोड़ा ठहरो। तुम्हें और ज़्यादा दाम मिल सकते हैं। बस किसी पारखी के आने का इंतज़ार करो।'
डाकुओं ने उसकी बात मानी। वे आगे चले।
कुछ देर चलने के बाद उन्हें एक व्यापारी मिला। उसने रूमी को देखा और कहा कि, मैं इसके तीन हजार दीनार दे सकता हूं।
डाकुओं को लगा, ये फकीर ठीक ही कह रहा था। इसकी और अधिक कीमत मिल सकती है। वह अपने बारे में अच्छे से जानता है। उसी से पूछ लेना चाहिए।
उन्होंने रूमी से पूछा, 'क्या करें?'
रूमी ने कहा, 'अभी नहीं।'
फिर उन्हें एक सम्राट मिला। वह रूमी के पांच हजार दीनार देने को तैयार था। डाकुओं ने इतनी तगडी रकम की कल्पना भी नहीं की थी। वे तुरंत रूमी को बेचने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने सोचा, इतना दाम तो बहुत ज़्यादा है। बाद में कोई इतना दाम देनेवाला मिले या न मिले, क्या भरोसा!
मगर रूमी ने उन्हें फिर रोक दिया। कहा, 'अभी नहीं। मेरे शरीर की असली कीमत देनेवाला नहीं आया है।'
एकबारगी डाकुओं को लगा कि सम्राट से ज्यादा कीमत कौन दे सकता है, लेकिन उनके मन में अब लालच जाग गया था। अब तक रूमी की बातें सही साबित हुई थीं, सो डाकुओं ने आखिर उसकी बात मान ली।
वे आगे चले। उन्हें एक घसियारा मिला। घास की गठरी सिर पर लिए वह जा रहा था। उसने देखा कि डाकू एक फकीर को पकड़ कर ले जा रहे हैं। उसने डाकुओं से पूछा, 'बेचोगे क्या?'
डाकुओं ने दुत्कारते हुए उससे कहा, 'हां, लेकिन तू क्या देगा इसकी कीमत? चल जा यहां से।'
घसियारे ने कहा, 'सिर पर जो घास की गठरी है वही दे दूंगा।'
सुन कर रूमी तुरंत बोले, 'दे दो, यह आदमी मेरे शरीर की असली कीमत जानता है। शरीर की असली कीमत यही है।'
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बचपन में लगभग सबने सोने का अंडा पाने की खातिर मुर्गी का पेट काटनेवाले लालची आदमी की और उसे हुए नुकसान की कहानी पढ़ी-सुनी होती है, फिर भी लोभ-लालच के प्रसंगों से आदमी का उबर पाना लगभग असंभव होता है। रास्ते में गिरी पड़ी चवन्नी हो या लाटरी से मिलनेवाली बड़ी रकम हो, आसान तरीके से मिलनेवाले धन के लोभ से बिरला ही बच सकते है।
उस पर रूमी को पकड़नेवाले थे डाकू - रुपयों को ही जिन्होंने अपना जीवन समर्पित कर रखा था।
रूमी के मन की बात ताड़ पाना उनके लिए कैसे संभव होता।
कहानी की ऐतिहासिकता के मुद्दे को अगर नज़रंदाज करें तो इसे गूंधनेवाले की कल्पनाशक्ति की दाद दिए बिना नहीं रहा जा सकता। डाकुओं की सोच और रूमी की सोच रेल की दो पटरियों की तरह समानांतर चलती हैं और यही कहानी के अंत को दिलचस्प बनाती है। सोच के सुप्त अंतःप्रवाह को खोल कर रख देती है।
वैसे, जब तक प्राण हैं तभी तक शरीर की हस्ती है। प्राण निकलें तो, कबीर कह गए हैं - 'हाड लकडी की तरह और बाल घास की तरह जलते हैं।' कबीर मन को चेताते हैं - 'मत कर मेरी मेरी, काया नहीं तेरी....'**
पंचतत्वों से बनी काया आखिर पंचतत्वों में ही विलीन होगी।
'दो दिन की ज़िदगानी' में क्या खरीदना, क्या बेचना और क्या किसीको आंकना!
**youtubeपर पं. भीमसेन जोशी द्वारा गाए कबीरदासजी के पद की लिंक। 

शनिवार, 7 जुलाई 2012

हारा हुआ नेपोलियन


-संध्या पेडणेकर
हारे हुए नेपोलियन को सेंट हेलेना नाम के एक द्वीप पर बंदी बना कर रखा गया था। उसके साथ उसका डॉक्टर भी था। नेपोलियन की विजय यात्रा में भी डॉक्टर उसके साथ रहा था। साधारण कैदी के रूप में रहनेवाले नेपोलियन को देख कर उसे बड़ा दुख होता।
एक दिन नेपोलियन और डॉक्टर द्वीप पर घूमने निकले। वे दोनों एक छोटी-सी पगडंडी से निकल रहे थे। तभी खेतों के बीच से होती हुई एक घसियारिन उनके सामने आ गई। उसके सिर पर घास का गठ्ठर लदा था जिसके नीचे उसका आधा चेहरा छिपा था। वह ठीक से देख नहीं पा रही थी.
डॉक्टर ने  चिल्ला कर उससे कहा, 'हट जा, हट जा रास्ते से। जानती भी है कौन आ रहा है? नेपोलियन आ रहा है!'
घसियारिन कुछ समझ पाए इससे पहले नेपोलियन ने डॉक्टर का हाथ पकडा और उसे खींच कर पगडंडी के किनारे ले गया।
घसियारिन उनके पास से होकर आगे निकली। इतने पास से कि उसके सिर पर रखे घास के गठ्ठर से निकले कुछ तिनकों ने डॉक्टर और नेपोलियन को छुआ।
डॉक्टर व्यथित हुआ। लेकिन नेपोलियन पर इसका कुछ असर नहीं हुआ।
उसने डॉक्टर को समझाया, 'प्यारे, अब सपना बीत गया है। होश में आ जाओ। वे दिन लद गए जब हम पहाड से भी कहते कि हट जाओ, नेपोलियन आ रहा है तो पहाड को हटना पडता। अब तो, घसियारिन के लिए भी हमें हट जाना चाहिए।'
नेपोलिन हार-जीत के सही मायने जानता था। हार कर भी वह वही था जो जीत कर हुआ करता था।
हां, डॉक्टर को बहुत बुरा लगा। यह देख कर कि एक मामूली घसियारन के लिए नेपोलियन को रास्ते से हटना पडा।
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इंसान की सोच के दायरे होते हैं। कुछ संकरे, कुछ थोडे फैले, तो कुछ विस्तृत।
सोच का दायरा जितना विशाल व्यक्ति की महत्ता उसी अनुपात में अधिकाधिक होती है।
मसलन, आम आदमी की नज़र में कोई अफसर होता है, कोई रिक्शेवाला, कोई सब्जीवाला, कोई प्रधानमंत्री, कोई औरत, कोई दलित, कोई ब्राह्मण लेकिन जो यह जानता है कि इन सभी भेदों से परे हर शरीर में एक आत्मा बसती है जो उसी परमात्मा का एक अंश है तब वह आदमी आम नहीं रह जाता।
इंसान को हमेशा अपनी सोच के दायरे से परे निकलने की कोशिश करते रहना चाहिए।
और कि, इस कहानी में नेपोलियन जानता था, सपनों के बीत जाने से ज़िंदगी की शाम नहीं ढलती। तो क्यों सपने बीत जाने पर ज़िंदगी से तौबा कर लें?
हरिवंशरायजी कह गए हैं -
"पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है....
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है...
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है.... "
जीवन रूपी मधु के जो चहेते हैं उनके लिए टूटे सपने नहीं जीवन अहमियत रखता है। यह जानते हुए भी कि मिट्टी के बने घट फूटा ही करते हैं, सपने टूटा भी करते हैं जीवन से जिसे सच्चा प्रेम है वह जीवन का साथ निभाता है। 
क्योंकि, जीवन सपनों से ऊंचा है।** 
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**कविता है - -हरिवंशराय बच्चन 


जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया

अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई.
(धन्यवादसहित - http://hindizen.com/2010/05/04/jo-beet-gai-so-baat-gai/)

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

दान में क्या दोगे?

-संध्या पेडणेकर
गौतम बुद्ध ज्ञानप्राप्ति के बाद घर लौटे। ग्यारह साल बाद वह घर लौटे थे। जिस दिन उन्होंने घर का त्याग किया था तब उनका बेटा राहुल एक साल का था। वह लौटे तब वह बारह साल का हो चुका था।
बुद्ध की पत्नी यशोधरा बुद्ध से बहुत नाराज थी। छूटते ही उसने भगवान बुद्ध से एक सवाल पूछा, 'तुम्हें क्या मेरा इतना भी भरोसा नहीं था? मुझसे कह देते 'मैं जा रहा हूं' तो क्या तुम्हें लगा कि मैं तुम्हें रोक लूंगी? तुम भूल गए थे शायद कि मैं भी क्षत्राणी हूं। हम अगर युद्ध के मैदान में तुम्हें टीका लगा कर भेज सकते हैं तो क्या सत्य की खोज के लिए नहीं भेज सकते? तुमने मेरा अपमान किया।'
कई लोगों ने बुद्ध से कई तरह के सवाल पूछे थे। लेकिन यशोधरा के सवाल ने बुद्ध को निरुत्तर कर दिया। इसके बाद यशोधरा ने पूछा, 'बताओ, जंगल जाकर तुमने जो पाया क्या तुम यहां नहीं पा सकते थे?' इस सवाल का जवाब भी बुद्ध हां में नहीं दे सके क्योंकि सत्य तो हर जगह होता है।
यशोधरा ने तीसरा काम जो किया वह बड़ी चोट वाला था। उसने अपने बेटे राहुल को आगे किया और उससे कहा, 'ये देखो, ये जो भिक्षापात्र लिए खड़े हैं वही तुम्हारे पिता हैं। तुम जब एक दिन के थे तब ये तुझे छोड़ कर भाग गए थे। अब लौटे हैं। फिर पता नहीं कब मिलना हो! तुम्हें देने के लिए इनके पास जो हो वह मांग लो।'
बुद्ध के पास देने को था ही क्या? यशोधरा तो प्रतिशोध ले रही थी। बारह साल से इकठ्ठा हुआ गुस्सा उतार रही थी। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि बात का रुख यूं मुड़ जाएगा।
बुद्ध ने तत्क्षण अपना भिक्षापात्र राहुल को दे दिया। कहा, 'बेटा, जो मैंने पाया वही मैं तुझे दे रहा हूं। इसके अलावा तुझे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। तू संन्यस्त हो जा!'
सुन कर यशोधरा की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे।
बुद्ध ने यशोधरा से कहा, 'समाधि मेरी संपदा है। उसे बांटने का ढ़ंग संन्यास है। आया तो इसलिए था कि तुझे भी ले चलूं। जिस संपदा का मैं मालिक हुआ उसकी तू भी मालिक हो जा।'
यशोधरा ने भी सिद्ध करके दिखा दिया कि वह क्षत्राणी है। बुद्ध से दीक्षा लेकर वह भिक्षुओं में इसतरह खो गई कि इस घटना के बाद बौद्ध शास्त्रों में उसका कहीं जिक्र नहीं आता।
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यशोधरा का सवाल यह नहीं था कि तुम इस राजपाट को, इस वैभव को त्याग कर, मुझे अनाथ कर क्यों गए?वह आहत थी तो सिर्फ इसलिए कि बुद्ध ने उस पर भरोसा नहीं किया। 
प्रेम, आस्था, समर्पण, निष्ठा, प्रण पर कायम रहना, आस्तिकता शाश्वत मूल्य हैं। उन्हें संपत्ति के तराजू में तौला नहीं जा सकता लेकिन इनके बगैर जीवन की अलौकिकता मिट्टी बन जाती है।
मिट्टी से पैदा हुए जीव का मिट्टी में मिलना अपरिहार्य है लेकिन इस तथ्य को ये शाश्वत मूल्य ही हैं जो चुनौती  देते हैं। पार्थिव शरीर में प्राणों के साथ अगर इन तत्वों की स्थापना न हो तो वह केवल पर्थिव ही रह जाता है। जीवन की अलौकिकता शाश्वत मूल्यों के बगैर कदापि संभव नहीं। पार्थिव को अपार्थिव बनाने की क्षमता इन मूल्यों में है।
सत्य की खोज में जीव जब संन्यस्त होता है तब उसे परमतत्व की खोज और उसमें विलीन होने की चाह होती  है।
परमतत्व सृष्टि के चराचर में व्याप्त है। सत्य के बारे में भी हम यही कह सकते हैं। परमतत्व की तरह ही सत्य की प्राप्ति भी मन के बोधिवृक्ष तले संभव है।
चाहे संन्यासी बन कर जिएं या राजमहलों में वास करें, जब तक मन के बोधिवृक्ष की छांव में आप हैं तब तक सत्य से, परमात्मा से दूर नहीं।