शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

दान में क्या दोगे?

-संध्या पेडणेकर
गौतम बुद्ध ज्ञानप्राप्ति के बाद घर लौटे। ग्यारह साल बाद वह घर लौटे थे। जिस दिन उन्होंने घर का त्याग किया था तब उनका बेटा राहुल एक साल का था। वह लौटे तब वह बारह साल का हो चुका था।
बुद्ध की पत्नी यशोधरा बुद्ध से बहुत नाराज थी। छूटते ही उसने भगवान बुद्ध से एक सवाल पूछा, 'तुम्हें क्या मेरा इतना भी भरोसा नहीं था? मुझसे कह देते 'मैं जा रहा हूं' तो क्या तुम्हें लगा कि मैं तुम्हें रोक लूंगी? तुम भूल गए थे शायद कि मैं भी क्षत्राणी हूं। हम अगर युद्ध के मैदान में तुम्हें टीका लगा कर भेज सकते हैं तो क्या सत्य की खोज के लिए नहीं भेज सकते? तुमने मेरा अपमान किया।'
कई लोगों ने बुद्ध से कई तरह के सवाल पूछे थे। लेकिन यशोधरा के सवाल ने बुद्ध को निरुत्तर कर दिया। इसके बाद यशोधरा ने पूछा, 'बताओ, जंगल जाकर तुमने जो पाया क्या तुम यहां नहीं पा सकते थे?' इस सवाल का जवाब भी बुद्ध हां में नहीं दे सके क्योंकि सत्य तो हर जगह होता है।
यशोधरा ने तीसरा काम जो किया वह बड़ी चोट वाला था। उसने अपने बेटे राहुल को आगे किया और उससे कहा, 'ये देखो, ये जो भिक्षापात्र लिए खड़े हैं वही तुम्हारे पिता हैं। तुम जब एक दिन के थे तब ये तुझे छोड़ कर भाग गए थे। अब लौटे हैं। फिर पता नहीं कब मिलना हो! तुम्हें देने के लिए इनके पास जो हो वह मांग लो।'
बुद्ध के पास देने को था ही क्या? यशोधरा तो प्रतिशोध ले रही थी। बारह साल से इकठ्ठा हुआ गुस्सा उतार रही थी। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि बात का रुख यूं मुड़ जाएगा।
बुद्ध ने तत्क्षण अपना भिक्षापात्र राहुल को दे दिया। कहा, 'बेटा, जो मैंने पाया वही मैं तुझे दे रहा हूं। इसके अलावा तुझे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। तू संन्यस्त हो जा!'
सुन कर यशोधरा की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे।
बुद्ध ने यशोधरा से कहा, 'समाधि मेरी संपदा है। उसे बांटने का ढ़ंग संन्यास है। आया तो इसलिए था कि तुझे भी ले चलूं। जिस संपदा का मैं मालिक हुआ उसकी तू भी मालिक हो जा।'
यशोधरा ने भी सिद्ध करके दिखा दिया कि वह क्षत्राणी है। बुद्ध से दीक्षा लेकर वह भिक्षुओं में इसतरह खो गई कि इस घटना के बाद बौद्ध शास्त्रों में उसका कहीं जिक्र नहीं आता।
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यशोधरा का सवाल यह नहीं था कि तुम इस राजपाट को, इस वैभव को त्याग कर, मुझे अनाथ कर क्यों गए?वह आहत थी तो सिर्फ इसलिए कि बुद्ध ने उस पर भरोसा नहीं किया। 
प्रेम, आस्था, समर्पण, निष्ठा, प्रण पर कायम रहना, आस्तिकता शाश्वत मूल्य हैं। उन्हें संपत्ति के तराजू में तौला नहीं जा सकता लेकिन इनके बगैर जीवन की अलौकिकता मिट्टी बन जाती है।
मिट्टी से पैदा हुए जीव का मिट्टी में मिलना अपरिहार्य है लेकिन इस तथ्य को ये शाश्वत मूल्य ही हैं जो चुनौती  देते हैं। पार्थिव शरीर में प्राणों के साथ अगर इन तत्वों की स्थापना न हो तो वह केवल पर्थिव ही रह जाता है। जीवन की अलौकिकता शाश्वत मूल्यों के बगैर कदापि संभव नहीं। पार्थिव को अपार्थिव बनाने की क्षमता इन मूल्यों में है।
सत्य की खोज में जीव जब संन्यस्त होता है तब उसे परमतत्व की खोज और उसमें विलीन होने की चाह होती  है।
परमतत्व सृष्टि के चराचर में व्याप्त है। सत्य के बारे में भी हम यही कह सकते हैं। परमतत्व की तरह ही सत्य की प्राप्ति भी मन के बोधिवृक्ष तले संभव है।
चाहे संन्यासी बन कर जिएं या राजमहलों में वास करें, जब तक मन के बोधिवृक्ष की छांव में आप हैं तब तक सत्य से, परमात्मा से दूर नहीं।