गुरुवार, 12 जुलाई 2012

शरीर की कीमत

-संध्या पेडणेकर
सुप्रसिद्ध संत जलालुद्दीन रूमी को एक बार डाकुओं ने पकड़ लिया। वे उसे बेचने के लिए ले चले। उस जमाने में गुलामों की खरीद-फरोख्त हुआ करती थी। रूमी थे भी हट्टे-कट्टे नौजवान। इसलिए, डाकुओं को लगा कि इस कैदी की अच्छी कीमत मिल सकती है।
रास्ते में उन्हें एक आदमी मिला। उसने कहा, 'मैं इसके दो हजार दीनार दे सकता हूं।'
डाकू बड़े खुश हुए। उन्होंने सोचा नहीं था कि एक गुलाम के इतने दाम मिल सकते हैं। वे रूमी को बेचने के लिए तैयार हो गए। मगर रूमी ने कहा, 'थोड़ा ठहरो। तुम्हें और ज़्यादा दाम मिल सकते हैं। बस किसी पारखी के आने का इंतज़ार करो।'
डाकुओं ने उसकी बात मानी। वे आगे चले।
कुछ देर चलने के बाद उन्हें एक व्यापारी मिला। उसने रूमी को देखा और कहा कि, मैं इसके तीन हजार दीनार दे सकता हूं।
डाकुओं को लगा, ये फकीर ठीक ही कह रहा था। इसकी और अधिक कीमत मिल सकती है। वह अपने बारे में अच्छे से जानता है। उसी से पूछ लेना चाहिए।
उन्होंने रूमी से पूछा, 'क्या करें?'
रूमी ने कहा, 'अभी नहीं।'
फिर उन्हें एक सम्राट मिला। वह रूमी के पांच हजार दीनार देने को तैयार था। डाकुओं ने इतनी तगडी रकम की कल्पना भी नहीं की थी। वे तुरंत रूमी को बेचने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने सोचा, इतना दाम तो बहुत ज़्यादा है। बाद में कोई इतना दाम देनेवाला मिले या न मिले, क्या भरोसा!
मगर रूमी ने उन्हें फिर रोक दिया। कहा, 'अभी नहीं। मेरे शरीर की असली कीमत देनेवाला नहीं आया है।'
एकबारगी डाकुओं को लगा कि सम्राट से ज्यादा कीमत कौन दे सकता है, लेकिन उनके मन में अब लालच जाग गया था। अब तक रूमी की बातें सही साबित हुई थीं, सो डाकुओं ने आखिर उसकी बात मान ली।
वे आगे चले। उन्हें एक घसियारा मिला। घास की गठरी सिर पर लिए वह जा रहा था। उसने देखा कि डाकू एक फकीर को पकड़ कर ले जा रहे हैं। उसने डाकुओं से पूछा, 'बेचोगे क्या?'
डाकुओं ने दुत्कारते हुए उससे कहा, 'हां, लेकिन तू क्या देगा इसकी कीमत? चल जा यहां से।'
घसियारे ने कहा, 'सिर पर जो घास की गठरी है वही दे दूंगा।'
सुन कर रूमी तुरंत बोले, 'दे दो, यह आदमी मेरे शरीर की असली कीमत जानता है। शरीर की असली कीमत यही है।'
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बचपन में लगभग सबने सोने का अंडा पाने की खातिर मुर्गी का पेट काटनेवाले लालची आदमी की और उसे हुए नुकसान की कहानी पढ़ी-सुनी होती है, फिर भी लोभ-लालच के प्रसंगों से आदमी का उबर पाना लगभग असंभव होता है। रास्ते में गिरी पड़ी चवन्नी हो या लाटरी से मिलनेवाली बड़ी रकम हो, आसान तरीके से मिलनेवाले धन के लोभ से बिरला ही बच सकते है।
उस पर रूमी को पकड़नेवाले थे डाकू - रुपयों को ही जिन्होंने अपना जीवन समर्पित कर रखा था।
रूमी के मन की बात ताड़ पाना उनके लिए कैसे संभव होता।
कहानी की ऐतिहासिकता के मुद्दे को अगर नज़रंदाज करें तो इसे गूंधनेवाले की कल्पनाशक्ति की दाद दिए बिना नहीं रहा जा सकता। डाकुओं की सोच और रूमी की सोच रेल की दो पटरियों की तरह समानांतर चलती हैं और यही कहानी के अंत को दिलचस्प बनाती है। सोच के सुप्त अंतःप्रवाह को खोल कर रख देती है।
वैसे, जब तक प्राण हैं तभी तक शरीर की हस्ती है। प्राण निकलें तो, कबीर कह गए हैं - 'हाड लकडी की तरह और बाल घास की तरह जलते हैं।' कबीर मन को चेताते हैं - 'मत कर मेरी मेरी, काया नहीं तेरी....'**
पंचतत्वों से बनी काया आखिर पंचतत्वों में ही विलीन होगी।
'दो दिन की ज़िदगानी' में क्या खरीदना, क्या बेचना और क्या किसीको आंकना!
**youtubeपर पं. भीमसेन जोशी द्वारा गाए कबीरदासजी के पद की लिंक।