-संध्या पेडणेकर
झेन फकीर रिंझाई के बारे में एक घटना बताई जाती है।
वह पहाड पर रहते थे।
एक बार एक प्रकांड पंडित पहाडी चढ़ कर उनसे मिलने आ पहुंचा। इतनी उंचाई तक चढ़ने का उसे अभ्यास नहीं था इसलिए जब पहुंचा तब उसकी सांस फूली हुई थी। लेकिन जो कुछ पूछना था, जानना था उसके बारे में वह इतना उत्कंठित था कि पहुंचते ही उसने सवालों की झडी लगा दी - मैं जानना चाहता हूं कि ईश्वर है या नहीं? आत्मा है या नहीं? ध्यान क्या है? समाधि क्या है? संबोधि क्या है? बुद्धत्व क्या है?
सवाल सुन कर रिंझाई मुस्कुराए। फिर बोले कि, अभी अभी आए हो। थोड़ा विश्राम कर लो। मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर लाता हूं। चाय पी लें। बातें फिर होती रहेंगी।
रिंझाई चाय बना कर लाए।
पंडित के हाथ में चाय की प्याली दी। उसमें चाय उंड़ेलने लगे।
प्याली भर गई लेकिन रिंझाई रुके नहीं। चाय प्याली से बाहर बहने लगी। पंडित हकबकाकर बोला, 'रुको, रुको। प्याली तो पूरी भर गई है। अब और चाय कहां डालोगे?'
रिंझाई बोले, 'मुझे तो लगा था कि तुम निपट पंडित हो, पर नहीं, अभी थोड़ी अकल तुममें बाकी है। प्याली अगर भरी हो तो उसमें एक बूंद भर चाय भी और नहीं डाली जा सकती यह तो तुम जानते हो, अब सोचो, क्या तुम्हारी हृदय की प्याली खाली है? ईश्वर अगर मिल भी जाए तो क्या तुम उसे अपने अंदर समा सकते हो?बुद्धत्व के सूरज को उगाने के लिए क्या तुम्हारे अंदर का आकाश खुला है? तुम्हारे भीतर इतना थोथा ज्ञान भरा है कि समाधि की एक बूंद भी वहां समा नहीं सकेगी। जागो, समझो, बासी ज्ञान कचरा है। कचरा जहां भरा हो वहां समाधि कैसे लगे? बुद्धत्व कैसे आए? तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर तो मैं दूं, पर क्या तुम उन्हें ले सकोगे?'
यह लक्षण ईमानदारी का नहीं है।
सचमुच प्रश्न का जवाब पाने की इच्छा जगाने के लिए पहले कही हुई बात को ग्रहण करने की सबूरी इन्सान में होना आवश्यक है। उसके बारे में सोचना फिर हो सकता है, लेकिन अगर आप अपने पूर्वाग्रहों के साथ ले बैठें तो बात को समझानेवाले की तह तक नहीं पहुंच सकते।
ईश्वर को अपने अंदर प्रतिबिंबित देखने के लिए पहले अपने को पारदर्शी बनना होगा।
अंदर छिपे मैल से मुक्ति पाए बगैर यह कैसे संभव है?
झेन फकीर रिंझाई के बारे में एक घटना बताई जाती है।
वह पहाड पर रहते थे।
एक बार एक प्रकांड पंडित पहाडी चढ़ कर उनसे मिलने आ पहुंचा। इतनी उंचाई तक चढ़ने का उसे अभ्यास नहीं था इसलिए जब पहुंचा तब उसकी सांस फूली हुई थी। लेकिन जो कुछ पूछना था, जानना था उसके बारे में वह इतना उत्कंठित था कि पहुंचते ही उसने सवालों की झडी लगा दी - मैं जानना चाहता हूं कि ईश्वर है या नहीं? आत्मा है या नहीं? ध्यान क्या है? समाधि क्या है? संबोधि क्या है? बुद्धत्व क्या है?
सवाल सुन कर रिंझाई मुस्कुराए। फिर बोले कि, अभी अभी आए हो। थोड़ा विश्राम कर लो। मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर लाता हूं। चाय पी लें। बातें फिर होती रहेंगी।
रिंझाई चाय बना कर लाए।
पंडित के हाथ में चाय की प्याली दी। उसमें चाय उंड़ेलने लगे।
प्याली भर गई लेकिन रिंझाई रुके नहीं। चाय प्याली से बाहर बहने लगी। पंडित हकबकाकर बोला, 'रुको, रुको। प्याली तो पूरी भर गई है। अब और चाय कहां डालोगे?'
रिंझाई बोले, 'मुझे तो लगा था कि तुम निपट पंडित हो, पर नहीं, अभी थोड़ी अकल तुममें बाकी है। प्याली अगर भरी हो तो उसमें एक बूंद भर चाय भी और नहीं डाली जा सकती यह तो तुम जानते हो, अब सोचो, क्या तुम्हारी हृदय की प्याली खाली है? ईश्वर अगर मिल भी जाए तो क्या तुम उसे अपने अंदर समा सकते हो?बुद्धत्व के सूरज को उगाने के लिए क्या तुम्हारे अंदर का आकाश खुला है? तुम्हारे भीतर इतना थोथा ज्ञान भरा है कि समाधि की एक बूंद भी वहां समा नहीं सकेगी। जागो, समझो, बासी ज्ञान कचरा है। कचरा जहां भरा हो वहां समाधि कैसे लगे? बुद्धत्व कैसे आए? तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर तो मैं दूं, पर क्या तुम उन्हें ले सकोगे?'
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कई बार हम सवालों के जवाब नहीं चाहते, अपनी मान्यता की पुष्टि भर चाहते हैं।यह लक्षण ईमानदारी का नहीं है।
सचमुच प्रश्न का जवाब पाने की इच्छा जगाने के लिए पहले कही हुई बात को ग्रहण करने की सबूरी इन्सान में होना आवश्यक है। उसके बारे में सोचना फिर हो सकता है, लेकिन अगर आप अपने पूर्वाग्रहों के साथ ले बैठें तो बात को समझानेवाले की तह तक नहीं पहुंच सकते।
ईश्वर को अपने अंदर प्रतिबिंबित देखने के लिए पहले अपने को पारदर्शी बनना होगा।
अंदर छिपे मैल से मुक्ति पाए बगैर यह कैसे संभव है?