सोमवार, 27 अगस्त 2012

ज़रूरत है सहानुभूति की...

-संध्या पेडणेकर
समीर का एक छोटा गाराज था। उसीसे उसकी रोजी-रोटी चलती थी।
एक दिन उसके बचपन का दोस्त लकी उससे मिलने आया।
समीर की शानदार गाडी की उसने तारीफ की। घूम घूम कर वह गाडी का मुआयना कर रहा था। एक जगह वह चौंका, पल भर रुका, कुछ पूछने को हुआ लेकिन फिर उसने अपना इरादा बदल दिया।
लेकिन उसी गाडी पर सवार होकर जब वे लंबी ड्राइव पर निकले तब लकी से रहा नहीं गया। उसने पूछा, 'यार समीर, एक बात पूछता हूं बुरा मत मानना। भई तुम्हारा अपना गराज है, फिर भी तुम्हारी इस शानदार कार पर एक जगह उखडे हुए रंग को, थोडे पिचके दरवाजे को तुमने ठीक क्यों नहीं कराया?'
समीर ने कहा, 'वह एक कहानी है लकी। चाहूं तो मैं भी अपने गराज में अपनी गाडी को ठीक करा सकता हूं। लेकिन मैंने जान-बूझ कर उस निशान को मिटाया नहीं है।'
लकी ने जोर दिया तब समीर ने उस निशान से जुड़ा वाकया बताया। उसने कहा, 'मैंने उन दिनों नई-नई गाडी खरीदी थी। एक दिन गाडी में बैठ कर मैं लंबी ड्राइव पर निकला। गाडी हवा से बातें कर रही थीं, मुझे बड़ा मजा आ रहा था। मेरा दिमाग सातवें आसमान पर था। गति का नशा-सा मुझ पर छाया हुआ था।'
तभी दूर एक जगह रास्ते के किनारे खड़ी गाडियों के  बीच मुझे कुछ हलचल सी दिखाई दी। उस तरफ ध्यान देने के मूड में मैं नहीं था। मेरी कार फर्राटे से आगे बढ़ी कि एक ईंट आकर दरवाजे से टकराई। खच्च् से ब्रेक लगा कर मैं बाहर निकला। आगबबूला हुआ जा रहा था मैं।'
'देखा कि, सड़क के किनारे एक छोटा बच्चा सहमा हुआ खड़ा है। वह रो रहा था। लेकिन उसके रोने का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। मेरी प्यारी गाडी को उसने ईंट मार कर पिचका दिया था। मैं उस पर बरस पड़ा - जानते हो, तुमने मेरा कितना नुकसान किया है? क्यों फेंकी तुमने वह ईंट? देखो, मेरी कार का शीशा तो टूट ही गया है, दरवाजा भी पिचक गया है और उस पर खरोंचे भी आई हैं।....'
'मेरा भाई... मेरा भाई व्हील चेयर से गिर गया है। वह मुझसे बड़ा है.... उसे वापिस व्हील चेयर में मैं बैठा नहीं पा रहा हूं, वह मुझसे संभल नहीं रहा। मैंने कई गाड़ियों को इशारा किया लेकिन किसीने अपनी गाडी रोकी नहीं।...मेरे भाई को उठा कर व्हील चेयर में बिठाने में मेरी मदद कीजिए, प्लीज....।'
'बच्चे का चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। मैंने सुना और तभी मेरा ध्यान लुढ़की हुई व्हील चेयर और उससे लटके बच्चे की तरफ गया। गति के मेरे नशे पर मानो घडों पानी गिरा। अपनी और अपने जैसे अन्यों की स्पीड के प्रति पागलपन पर मुझे ग्लानि हुई।'
'आज हम ऐसी गति से भागे चले जा रहे हैं कि हमारे पास कहीं देखने की फुर्सत नहीं। किसीको अपनी ज़रूरत भी हो सकती है इसका हमें खयाल ही नहीं। हमें अहसास नहीं कि कभी उनकी जगह हम खुद भी हो सकते हैं।
भगवान भी शायद फुसफुसा कर हमें चेताने की कोशिश करता है, लेकिन हमारे पास जब उसकी सुनने के लिए भी फुर्सत नहीं होती तब वह ईंट की मार से चेताता है। यह बात हमेशा याद रहे इसलिए मैंने यह निशान ठीक नहीं करवाया। कार के इस निशान पर जब मेरी नज़र जाती है तब अपने बड़े भाई को ठेल कर ले जाता हुआ वह बच्चा मुझे दिखाई देता है।'
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गाडी हर किसीके पास नहीं होती, लेकिन गतिशील आज हर कोई है।
हर कोई अंधाधुंध भागा चला जा रहा है, सरपट, बेतहाशा।
बहुत कुछ हासिल करना है हमें अपनी ज़िंदगी से।
मन को संवेदनशील बनाए रखने के लिए क्या ईंट की मार खाना ज़रूरी है?
इंसान हैं, सो हमें इंसान बने रहना चाहिए, क्यों?

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

श्रद्धा और तर्क

-संध्या पेडणेकर
एक बार एक सिद्ध पुरुष अपने शिष्य से प्रसन्न हुए।
उसे पारसमणि देने का उन्होंने वादा किया।
शिष्य बड़ा खुश हुआ। पारसमणि मिलता तो उसका प्रयोग कर वह लोहे को सोना बना सकता था।
 गुरु-शिष्य पारसमणि लेने निकले।
गांव से बाहर निकलने के बाद एक निर्जन जगह वे पहुंचे। वहां गुरु ने शिष्य को वह जगह दिखाई जहां पारसमणि जमीन में गडा हुआ था।
शिष्य ने वहां खोदा और उसे एक जंग लगी डिबिया उसे मिली।
गुरु ने खुश होकर कहा, 'इसीमें है पारस पत्थर।'
शिष्य के मन में गुरु के प्रति बहुत आदर था । साथ ही, उसे अपने ज्ञान पर भी अभिमान  था।
उसने सोचा, अगर डिब्बी में पारसमणि होता तो लोहे की यह डिबिया सोने की न बन जाती? लेकिन डिब्बी तो लोहे की ही है।
गुरु की बात रखने के लिए उसने वह डिब्बी उठा ली, लेकिनअब उसके मन में  गुरु के प्रति अविश्वास भी पैदा हुआ था।  उसने डिबिया खोल कर नहीं देखा।
गुरु से अलग होते ही उसने बेकार समझ कर डिब्बी दूर उछाल दी।
वह आगे बढ़ने ही वाला था कि रुक गया। उसने देखा, पारसमणिवाली वह जंग लगी लोहे की डिबिया सोने की हो गई थी।
झुक कर उसने डिब्बी उठा ली। देखा, डिबिया में अंदर मखमल का अस्तर लगा हुआ है। अस्तर के कारण ही मणि शायद डिब्बी से छुई नहीं थी। जमीन से टकराते ही डिबिया खुल गई और पारस से छू गई थी शायद। तभी वह सोने की हो गई थी।
उसने अस्तर हटा कर देखा लेकिन  पारसमणि कहीं लुढ़क गया था। उसने बहुत ढ़ूंढ़ा लेकिन उसे वह कहीं नहीं मिला।
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श्रद्धा के बिना कोरा तर्क नुकसानदेह साबित होता है।
श्रद्धा व्यक्ति को आस्थावान बना देती है।
दुनिया में भगवान के दर्शन करने की क्षमता मन के भगवान के प्रति सश्रद्ध होने से ही आती है।  

शनिवार, 18 अगस्त 2012

खाली हाथ

-संध्या पेडणेकर
दुनिया को जीतने की महत्वाकांक्षा पालनेवाला जगज्जेता सिकंदर महान मरा.
उसकी जब अर्थी निकली तो लोग यह देख कर हैरान हो गए कि उसके दोनों हाथ अर्थी से बाहर दोनों तरफ लटके हुए थे।
सिकंदर महान की अर्थी थी। देखने के लिए लाखों लोग जुटे थे। सबके मन में यही भाव था कि इतने महान सम्राट की अर्थी इतनी लापरवाही से कैसे सजायी गई? उसके दोनों हाथ तो बाहर ही रह गए हैं!
होते होते लोगों को पता चल गया कि ऐसा लापरवाही के कारण नहीं हुआ था, जान-बूझ कर किया गया था। यह तो सिकंदर महान की ही इच्छा थी कि उसकी अर्थी के दोनों तरफ उसके दो हाथ लटकने दिए जाएं ताकि लोग साफ साफ देख सकें। पता चले लोगों को कि औरों की तरह ही सिकंदर भी खाली हाथ ही जा रहा है। उसके हाथ भी खाली ही हैं। ज़िंदगी भर की उसकी दौड़ बेकार ही साबित हुई।
मरने से करीब दसेक वर्ष पहले सिकंदर प्रसिद्ध यूनानी फकीर डायोजनीज से मिलने गया था। सिकंदर की दुनिया जीतने की महत्वाकांक्षा के बारे में डायोजनीज जानता था। उसने सिकंदर से पूछा था, 'सोचो सिकंदर, अगर पूरी दुनिया जीत लोगे तो फिर क्या करोगे?'
सुन कर सिकंदर उदास हो गया। उसने डायोजनीज से कहा, 'मैं खुद सोच कर परेशान हो जाता हूं। दूसरी दुनिया तो है नहीं। इस दुनिया को जीत लूंगा तो क्या करूंगा फिर मैं?'
उसने अभी पूरी दुनिया जीती नहीं थी लेकिन लोभ और अहं इतना कि पूरी दुनिया जीतने के बाद भी वासना उदास होगी!
पहुंचा हुआ जुआरी था सिकंदर। अपना सब कुछ दांव पर लगा कर उसने बहुत कुछ जीता। धन-संपत्ति के ढ़ेर लगाए। लेकिन मरते वक्त उसका कहना कि, देख लें लोग, मेरे हाथ खाली हैं.....मरते वक्त ही सही बहुत कुछ जीत कर गया था सिकंदर।
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कहते हैं, शरीर में एक सांस भी जब तक बाकी होती है तब तक पुण्यवान को अपने पुण्यों पर इतराना नहीं चाहिए और पापियों को अपने पापों के कारण निराश नहीं होना चाहिए। 
मुक्ति एक पल में आप पर कृपावान हो सकती है।
पल भर में बेडा या तो पार हो सकता है या गरक।
या फिर, 
कुछ ऐसा, कि-
पल पल को लेकर जीव को जागरुक रहना चाहिए।
पार होते होते न जाने किस पल उसका बेडा गर्क हो जाए...
बेडा गर्क होते होते न जाने कब तिनके के सहारे उबर जाने की मोहलत उसे नसीब हो...

बुधवार, 8 अगस्त 2012

तत्वमसि श्वेतकेतु

-संध्या पेडणेकर
कई बरसों तक विद्यार्जन करने के बाद श्वेतकेतु अपने घर लौटा। पिता उद्दालक ने उससे पूछा, 'तुमने सारी विद्याएं प्राप्त कर लीं मगर क्या तुमने ब्रह्म को जाना? उसे जाने बिना सारी विद्याएं व्यर्थ हैं।'
श्वेतकेतु ने कहा, 'यदि मेरे गुरुदेव उसके बारे में जानते होते तो वे मुझे ब्रह्मविद्या भी अवश्य सिखाते। उन्हें जो भी विद्याएं अवगत थीं वे उन्होंने मुझे सिखा दीं। उन्होंने स्वयं मुझसे कहा, 'श्वेतकेतु, अब मेरे पास तुम्हें पढ़ाने के लिए कुछ नहीं बचा। अब तुम घर जा सकते हो।'
इस पर पिता उद्दालक ने कहा, 'तब तो मुझे ही तुम्हें सिखान होगा। जाओ, बाहर के पेड़ पर से एक फल तोड़ कर ले आओ।'
श्वेतकेतु फल तोड़ कर ले आया।
पिता ने कहा, 'इसे काटो।'
श्वेतकेतु ने फल काटा। उसमें बीज ही बीज भरे हुए थे।
पिता ने कहा, 'इसमें से एक बीज चुन लो।'
श्वेतकेतु ने बीज चुना तो पिता ने पूछा, 'क्या इस छोटे-से बीज से बड़ा पेड़ बन सकता है?'
श्वेतकेतु ने कहा, 'बन सकता है नहीं, बनता ही है।'
पिता ने कहा, 'तो इसका अर्थ है इसीमें पेड़ छिपा होना चाहिए। तुम बीज को काटो। हम उसके अंदर उस पेड़ को खोजते हैं जो उसके अंदर छिपा हुआ है।'
श्वेतकेतु ने बीज काटा पर वहां कुछ भी नहीं था। वहां सून्य हाथ लगा तो श्वेतकेतु ने पिता से कहा, 'इसके अंदर तो कुछ भी नहीं है। कुछ दिखाई नहीं दे रहा।'
उद्दालक ने कहा, 'जो दिखाई नहीं दे रहा, जो अदृश्य है उसी से यह विशाल पेड़, यह दृश्य  पैदा हुआ है। हम भी ऐसे ही शून्य से आए हैं। वह जो दिखाई नहीं पड़ता उसीसे हमारा भी आविर्भाव हुआ है।'
श्वेतकेतु ने पूछा, 'क्या मैं भी उसी महाशून्य से आया हूं?'
उसके इस प्रश्न के उत्तर में उद्दालक ने जो महावचन कहा वह है - 'तत्वमसि श्वेतकेतु' - हां श्वेतकेतु, तू भी उसी महाशून्य से आया है, तू भी वही है।'
कहा है, कि इस अमृत वचन को सुन कर श्वेतकेतु ज्ञान को उपलब्ध हुआ।
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अस्तित्व सीमित है अवकाश असीम।
जहां शून्य होता है, संभावनाएं वहीं से जन्म लेती हैं।
शून्य अंत नहीं, शून्य शुरुआत भी नहीं।
शून्य क्षय नहीं।
जो निर्माण होता है उसकी सीमाएं हैं, उसके साथ क्षय जुड़ा है।
शून्य अक्षय है, शून्य अनंत है। 
ब्रह्म को जानने के लिए शून्य को जानना अवश्यंभावी है।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

जीवन का गणित

-संध्या पेडणेकर
एक था कनखजूरा।
सौ पैरोंवाला कीडा।
रेंगता हुआ कहीं जा रहा था।
एक खरगोश की उस पर नज़र पड़ी।
खरगोश पहले तो बड़ा हैरान हुआ। उसे लगा, कैसे चलता होगा यह! पहले कौन-सा पैर उठाता होगा। पीछे कौन-सा पैर उठाता होगा।... फिर इतने पैर सही से उठाना और टिकाना... बहुत कठिन है। यह तो जीता-जागता गणित हुआ।
खरगोश ने कनखजूरे को आवाज दी। कहा, 'ठहरो भाई, मेरे एक सवाल का जवाब देते जाना। तुम्हारे तो सौ पैर हैं। इनमें से तुम कौन-सा पैर पहले उठाते हो? कभी तुम्हारी चाल गडबडाती नहीं? कभी गलती से तुमने एक साथ दस पैर नहीं उठाए आज तक? कमाल है। सच बताओ, लड़खड़ा कर गिरे नहीं कभी तुम? आश्चर्य! मैं जानना चाहता हूं तुम्हारा यह गणित।'
असल में, कनखजूरे ने अपने पैरों के बारे में कभी सोचा ही नहीं था इस तरह से।
वह बस चलता रहा था। जन्म से। जब से उसने होश सम्भाला था तभी से उसे याद है कि उसके सौ पैर हैं।
कभी उसके मन में यह सवाल ही नहीं उठा कि अपने इतने पैर कैसे हैं?
पहली बार उसने नीचे झुक कर देखा और घबरा गया - सौ पैर! उसे तो इतनी बड़ी संख्या की गिनती भी नहीं आती।
उसने खरगोश से कहा, 'भई, इसके बारे में तो मैंने आज तक कभी सोचा ही नहीं। अब तुमने सवाल उठाया है तो मैं सोचूंगा। निरीक्षण, परीक्षण करूंगा। जो पता चलेगा वह तुम्हें बता दूंगा।'
लेकिन फिर कनखजूरा चल नहीं पाया।
थोडी दूर ही चला और लडखडाकर गिर पड़ा।
अब चलना नहीं था, अब तो सौ पैरों को संभालने का मामला था।
इत्ती-सी जान और सौ पैर! इत्ती-सी अकल और सौ-पैरों का गणित!
इतना बड़ा हिसाब वह लगाए तो कैसे!
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आदमी अन्य सभी प्राणियों से इसीलिए अलग और श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि वह सोच सकता है।
लेकिन, ज़्यादा सोचना कभी कभी आदमी को पंगु बना देता है।