बुधवार, 8 अगस्त 2012

तत्वमसि श्वेतकेतु

-संध्या पेडणेकर
कई बरसों तक विद्यार्जन करने के बाद श्वेतकेतु अपने घर लौटा। पिता उद्दालक ने उससे पूछा, 'तुमने सारी विद्याएं प्राप्त कर लीं मगर क्या तुमने ब्रह्म को जाना? उसे जाने बिना सारी विद्याएं व्यर्थ हैं।'
श्वेतकेतु ने कहा, 'यदि मेरे गुरुदेव उसके बारे में जानते होते तो वे मुझे ब्रह्मविद्या भी अवश्य सिखाते। उन्हें जो भी विद्याएं अवगत थीं वे उन्होंने मुझे सिखा दीं। उन्होंने स्वयं मुझसे कहा, 'श्वेतकेतु, अब मेरे पास तुम्हें पढ़ाने के लिए कुछ नहीं बचा। अब तुम घर जा सकते हो।'
इस पर पिता उद्दालक ने कहा, 'तब तो मुझे ही तुम्हें सिखान होगा। जाओ, बाहर के पेड़ पर से एक फल तोड़ कर ले आओ।'
श्वेतकेतु फल तोड़ कर ले आया।
पिता ने कहा, 'इसे काटो।'
श्वेतकेतु ने फल काटा। उसमें बीज ही बीज भरे हुए थे।
पिता ने कहा, 'इसमें से एक बीज चुन लो।'
श्वेतकेतु ने बीज चुना तो पिता ने पूछा, 'क्या इस छोटे-से बीज से बड़ा पेड़ बन सकता है?'
श्वेतकेतु ने कहा, 'बन सकता है नहीं, बनता ही है।'
पिता ने कहा, 'तो इसका अर्थ है इसीमें पेड़ छिपा होना चाहिए। तुम बीज को काटो। हम उसके अंदर उस पेड़ को खोजते हैं जो उसके अंदर छिपा हुआ है।'
श्वेतकेतु ने बीज काटा पर वहां कुछ भी नहीं था। वहां सून्य हाथ लगा तो श्वेतकेतु ने पिता से कहा, 'इसके अंदर तो कुछ भी नहीं है। कुछ दिखाई नहीं दे रहा।'
उद्दालक ने कहा, 'जो दिखाई नहीं दे रहा, जो अदृश्य है उसी से यह विशाल पेड़, यह दृश्य  पैदा हुआ है। हम भी ऐसे ही शून्य से आए हैं। वह जो दिखाई नहीं पड़ता उसीसे हमारा भी आविर्भाव हुआ है।'
श्वेतकेतु ने पूछा, 'क्या मैं भी उसी महाशून्य से आया हूं?'
उसके इस प्रश्न के उत्तर में उद्दालक ने जो महावचन कहा वह है - 'तत्वमसि श्वेतकेतु' - हां श्वेतकेतु, तू भी उसी महाशून्य से आया है, तू भी वही है।'
कहा है, कि इस अमृत वचन को सुन कर श्वेतकेतु ज्ञान को उपलब्ध हुआ।
--- 
अस्तित्व सीमित है अवकाश असीम।
जहां शून्य होता है, संभावनाएं वहीं से जन्म लेती हैं।
शून्य अंत नहीं, शून्य शुरुआत भी नहीं।
शून्य क्षय नहीं।
जो निर्माण होता है उसकी सीमाएं हैं, उसके साथ क्षय जुड़ा है।
शून्य अक्षय है, शून्य अनंत है। 
ब्रह्म को जानने के लिए शून्य को जानना अवश्यंभावी है।