मंगलवार, 21 अगस्त 2012

श्रद्धा और तर्क

-संध्या पेडणेकर
एक बार एक सिद्ध पुरुष अपने शिष्य से प्रसन्न हुए।
उसे पारसमणि देने का उन्होंने वादा किया।
शिष्य बड़ा खुश हुआ। पारसमणि मिलता तो उसका प्रयोग कर वह लोहे को सोना बना सकता था।
 गुरु-शिष्य पारसमणि लेने निकले।
गांव से बाहर निकलने के बाद एक निर्जन जगह वे पहुंचे। वहां गुरु ने शिष्य को वह जगह दिखाई जहां पारसमणि जमीन में गडा हुआ था।
शिष्य ने वहां खोदा और उसे एक जंग लगी डिबिया उसे मिली।
गुरु ने खुश होकर कहा, 'इसीमें है पारस पत्थर।'
शिष्य के मन में गुरु के प्रति बहुत आदर था । साथ ही, उसे अपने ज्ञान पर भी अभिमान  था।
उसने सोचा, अगर डिब्बी में पारसमणि होता तो लोहे की यह डिबिया सोने की न बन जाती? लेकिन डिब्बी तो लोहे की ही है।
गुरु की बात रखने के लिए उसने वह डिब्बी उठा ली, लेकिनअब उसके मन में  गुरु के प्रति अविश्वास भी पैदा हुआ था।  उसने डिबिया खोल कर नहीं देखा।
गुरु से अलग होते ही उसने बेकार समझ कर डिब्बी दूर उछाल दी।
वह आगे बढ़ने ही वाला था कि रुक गया। उसने देखा, पारसमणिवाली वह जंग लगी लोहे की डिबिया सोने की हो गई थी।
झुक कर उसने डिब्बी उठा ली। देखा, डिबिया में अंदर मखमल का अस्तर लगा हुआ है। अस्तर के कारण ही मणि शायद डिब्बी से छुई नहीं थी। जमीन से टकराते ही डिबिया खुल गई और पारस से छू गई थी शायद। तभी वह सोने की हो गई थी।
उसने अस्तर हटा कर देखा लेकिन  पारसमणि कहीं लुढ़क गया था। उसने बहुत ढ़ूंढ़ा लेकिन उसे वह कहीं नहीं मिला।
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श्रद्धा के बिना कोरा तर्क नुकसानदेह साबित होता है।
श्रद्धा व्यक्ति को आस्थावान बना देती है।
दुनिया में भगवान के दर्शन करने की क्षमता मन के भगवान के प्रति सश्रद्ध होने से ही आती है।