बुधवार, 1 अगस्त 2012

जीवन का गणित

-संध्या पेडणेकर
एक था कनखजूरा।
सौ पैरोंवाला कीडा।
रेंगता हुआ कहीं जा रहा था।
एक खरगोश की उस पर नज़र पड़ी।
खरगोश पहले तो बड़ा हैरान हुआ। उसे लगा, कैसे चलता होगा यह! पहले कौन-सा पैर उठाता होगा। पीछे कौन-सा पैर उठाता होगा।... फिर इतने पैर सही से उठाना और टिकाना... बहुत कठिन है। यह तो जीता-जागता गणित हुआ।
खरगोश ने कनखजूरे को आवाज दी। कहा, 'ठहरो भाई, मेरे एक सवाल का जवाब देते जाना। तुम्हारे तो सौ पैर हैं। इनमें से तुम कौन-सा पैर पहले उठाते हो? कभी तुम्हारी चाल गडबडाती नहीं? कभी गलती से तुमने एक साथ दस पैर नहीं उठाए आज तक? कमाल है। सच बताओ, लड़खड़ा कर गिरे नहीं कभी तुम? आश्चर्य! मैं जानना चाहता हूं तुम्हारा यह गणित।'
असल में, कनखजूरे ने अपने पैरों के बारे में कभी सोचा ही नहीं था इस तरह से।
वह बस चलता रहा था। जन्म से। जब से उसने होश सम्भाला था तभी से उसे याद है कि उसके सौ पैर हैं।
कभी उसके मन में यह सवाल ही नहीं उठा कि अपने इतने पैर कैसे हैं?
पहली बार उसने नीचे झुक कर देखा और घबरा गया - सौ पैर! उसे तो इतनी बड़ी संख्या की गिनती भी नहीं आती।
उसने खरगोश से कहा, 'भई, इसके बारे में तो मैंने आज तक कभी सोचा ही नहीं। अब तुमने सवाल उठाया है तो मैं सोचूंगा। निरीक्षण, परीक्षण करूंगा। जो पता चलेगा वह तुम्हें बता दूंगा।'
लेकिन फिर कनखजूरा चल नहीं पाया।
थोडी दूर ही चला और लडखडाकर गिर पड़ा।
अब चलना नहीं था, अब तो सौ पैरों को संभालने का मामला था।
इत्ती-सी जान और सौ पैर! इत्ती-सी अकल और सौ-पैरों का गणित!
इतना बड़ा हिसाब वह लगाए तो कैसे!
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आदमी अन्य सभी प्राणियों से इसीलिए अलग और श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि वह सोच सकता है।
लेकिन, ज़्यादा सोचना कभी कभी आदमी को पंगु बना देता है।