बुधवार, 11 दिसंबर 2013

खुदा को पाना

-संध्या पेडणेकर
पंजाब के संत बुल्लेशाह के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने एक माली को अपना गुरु माना था।
एक दिन वह अपने गुरु से मिलने गए तब उनके गुरु बगीचे में काम कर रहे थे।
बुल्ले शाह ने उनसे पूछा, मुझे कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे परमात्मा की प्राप्ति हो जाए। 
उनके गुरु ने उनकी तरफ देखे बिना कहा, परमात्मा का पाना क्या, यहां से उखाड़ना, वहां लगाना। 

"बुल्लिहआ रब दा की पौणा| एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा|"


कुछ समय तक सोचने के बाद बुल्लेशाह ने उनसे कहा, मैं समझा नहीं।
गुरु ने उनसे पूछा, जानते हो परमात्मा कहां है?
बुल्लेशाह बोले, आसमान में।
गुरु बोले, तो उखाड़ उसे आसमान से और जमा दे अपनी छाती में! अपनी छाती में भरे खुदी के खयाल को उखाड और सबकी छाती में बसा। इसतरह सब लोग तुम्हें 'मैं' ही नज़र आने लगेंगे। अपने दिल में ऐसा प्यार पैदा कर कि सबमें तुझे 'मैं' नज़र आए। 

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बुल्ले शाह का मूल नाम अब्दुल्लाशाह था| FROM- http://www.spiritualworld.co.in आगे चलकर इनका नाम बुल्ला शाह या बुल्ले शाह हो गया| इनके पिता शाह मुहम्मद थे जिन्हें अरबी, फारसी और कुरान शरीफ का अच्छा ज्ञान था| वे मस्जिद के मौलवी थे| सैयद जाति के थे| उनकी नेकी के कारण उन्हें आदर से दरवेश कहा जाता था| पिता के व्यक्तित्व का प्रभाव बुल्ले शाह पर भी पड़ा| बुल्ले शाह की उच्च शिक्षा कसूर में हुई| इनके उस्ताद हजरत गुलाम मुर्तजा जैसे ख्यातनाम गुरु थे| अरबी, फारसी के विद्वान होने के साथ साथ उन्होंने इस्लामी और सूफी धर्म ग्रंथो का भी गहरा अध्ययन कियापरमात्मा के दर्शन की तड़प न्हें फकीर हजरत शाह कादरी के द्वार पर खींच लाई| हजरत इनायत शाह का डेरा लाहौर में था| वे जाति से अराई थे| अराई लोग खेती-बाड़ी, बागबानी और साग-सब्जी की खेती करते थे| बुल्ले शाह के परिवार वाले इस बात से दुखी थे कि बुल्ले शाह ने निम्न जाति के इनायत शाह को अपना गुरु बनाया है| उन्होंने समझाने का बहुत यत्न किया परन्तु बुल्ले शाह जी अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुए| परिवार जनों के साथ हुई तकरार का जिक्र उन्होंने इन शब्दों में किया -


बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ
आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?'
'जेहड़ा सानू स​ईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ
जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ
सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ'
अर्थ -
बुल्ले को समझाने बहनें और भाभियाँ आईं
(उन्होंने कहा) 'हमारा कहना मान बुल्ले, आराइनों का साथ छोड़ दे
नबी के परिवार और अली के वंशजों को क्यों कलंकित करता है?'
(बुल्ले ने जवाब दिया) 'जो मुझे सैय्यद बुलाएगा उसे दोज़ख़ (नरक) में सज़ा मिलेगी
जो मुझे आराइन कहेगा उसे बहिश्त (स्वर्ग) के सुहावने झूले मिलेंगे
आराइन और सैय्यद इधर-उधर पैदा होते रहते हैं, परमात्मा को ज़ात की परवाह नहीं
वह ख़ूबसूरतों को परे धकेलता है और बदसूरतों को गले लगता है
अगर तू बाग़-बहार (स्वर्ग) चाहता है, आराइनों का नौकर बन जा
बुल्ले की ज़ात क्या पूछता है? भगवान की बनाई दुनिया के लिए शुक्र मना'

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

तोल मोल के बोल

-संध्या पेडणेकर
वैज्ञानिक भी खोज नहीं पाए हैं कि कुत्ते क्यों भौंकते हैं? बिना भौंके उन्हें चैन क्यों नहीं आता?
खलील जिब्रान की एक कहानी है।
कुत्तों की दुनिया में एक कुत्ता गुरु हो गया।
उसने बाकी कुत्तों को समझाना शुरु किया कि भौंकने की वजह से हमारी जाति अधोगति को प्राप्त हुई है। हम अब तक दुनिया पर राज कर रहे होते अगर सारी ताकद भौंकने  में नहीं गंवाते। इस स्थिति से उबरना है तो संयम बरतो। भौंकना बंद करो। खुद पर नियंत्रण रखो।
बाकी कुत्तों को लगता कि, बात तो यह पते की कर रहा है।
लेकिन गले में जब भौंकने की सुरसुरी चढ़ती तो वे मजबूर हो जाते। वे गुरु कुत्ते को बड़ा महान समझते क्योंकि गुरु को कभी उन्होंने भौंकते हुए नहीं देखा था। उनके आचरण और सिद्धांत की समानता बाकी कुत्तों को वंदनीय लगती।
गुरु की हालत यह थी कि उसका दिन सारा समझाने में निकल जाता। भौंकने के लिए उसके पास ताकद ही नहीं बचती। वह दिन भर घूमता, जहां जहां कुत्ते भौंकते मिलते उन्हें उपदेश देता। शाम तक उसका गला थक जाता।
कुत्ते जल्द ही गुरु से परेशान हो गए। बिना बात के उपदेश देनेवाला किसीको नहीं सुहाता।
कुत्तों को लगता, इसकी बात तो सही है, लेकिन हम शायद कभी इसकी बात मान नहीं पाएंगे। भौंकना हमारी प्रकृति है। गले में जब सुरसुरी उठती है तब भौंके बिना रहा ही नहीं जा सकता। लेकिन अब यह बूढ़ा हो गया है, मरने के करीब है। उसका दिल रखने के लिए हमें इसकी बात एकाध दिन के लिए तो मान लेनी चाहिए। उस दिन चाहे जो हो जाए, कोई मुसीबत आए, हम भौंकेंगे नहीं।
दिन मुकर्रर हुआ।
सभी कुत्तों ने उस दिन अपना मुंह बंद रखा। भीतर से होनेवाली बेचैनी को वश में रखा। हर कुत्ते ने सोचा कि जब तक कोई दूसरा कुत्ता नहीं भौंकता, मैं नहीं भौंकूंगा।
उस दिन कोई कुत्ता नहीं भौंका।
आधी रात को लेकिन एक कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया।
फिर तो सारे कुत्तों ने उसका जी भर कर साथ दिया।
पूरा गांव जग गया, लेकिन किसीको इस बात का पता नहीं चला कि पहला कुत्ता कौन था जिसने भौंकना शुरू किया था। किसने न भौंकने का व्रत तोड़ दिया था।
जिब्रान बताते हैं - उस दिन गुरु पूरे गांव में घूमा लेकिन सारे कुत्ते चुप थे। रात के बारह बजे तक तो वह घबरा उठा। दिन भर न बोलने के कारण उसके गले में सुरसुरी होने लगी थी।
आखिर उससे रहा नहीं गया। एक अंधेरी गली में  जाकर वह जी भर कर भौंका। वही पहला कुत्ता था जो उस दिन भौंका था। फिर तो सभी कुत्तों ने समां बांध दिया था।
:)
कुत्तों की तरह ही इंसानों की बीमारी है बोलना।
बोल कर वे अपने को हल्का कर लेते हैं।
क्या सचमुच हमेशा बोलते रहना ज़रूरी होता है?
संवाद खत्म होने पर बोलना केवल कर्कशता भर रह जाता है।
बोलने और भौंकने में कोई फर्क न हो जैसे।  

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

सत्यवादी सुकरात

©संध्या पेडणेकर.
सुकरात को इसलिए जहर देकर मारा गया क्योंकि वह सच बोलता था। वह राज्य के खिलाफ कोई बगावत या क्रांति नहीं कर रहा था। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह लोगों को याद दिला रहा था कि तुम असत्य में जी रहे हो।
असत्य ही जहां जीवन का तरीका हो वहां उसकी यह बात कौन सह सकता था
अदालत में उस पर मुकदमा चला। 
मगर अदालत के मुख्य न्यायाधीश को इससे थोडी ग्लानि हो रही थी क्योंकि उसे सुकरात जैसे व्यक्ति को सजा देनी पड़ रही थी; लेकिन ज्यूरी के ज्यादातर लोग उसे मौत की सजा दिए जाने के पक्ष में थे। 
न्यायाधीश ने रास्ता खोज निकाला। उसने कहा, सुकरात, मैं तुमसे निवेदन करता हूं कि अगर तुम एथेन्स छोड़ कर चले जाओगे तो हम तुम्हें कोई दंड नहीं देंगे। एथेन्स के लोग राजी हो जाएंगे कि एथेन्स छोड़ने के बाद तुम जो चाहो सो करो।
सुकरात ने कहा, मैं जहां जाऊंगा वहीं मुकदमा चलेगा। सच तो जहां जाएगा वहीं चोट करेगा। जब एथेन्स जैसे सुसंस्कृत शहर में सत्य चोट कर रहा है तो और कहां जाऊं जहां वह चोट नहीं करेगा?
मुख्य न्यायाधीश ने एक और मौका देते हुए कहा, तो फिर ऐसा करो, तुम रहो एथेन्स में ही। हम तुम्हें बुढ़ापे में शहर से बाहर निकालना नहीं चाहते। मगर सत्य बोलना बंद कर दो।
सुकरात ने कहा, यह तो और भी असंभव है। सत्य के बिना तो मैं रह नहीं सकता। सत्य मेरी सांस है। सांस लिए बगैर जैसे कोई जी नहीं सकता उसी प्रकार सत्य बोले बगैर मैं जी नहीं सकता। जीवन रहे या जाए, इसका कोई मोल नहीं है। अच्छा हो, आप मुझे मौत की सजा दे दें। कम से कम लोग इतना तो कहेंगे कि मरा तो सच के लिए मरा, सॉक्रेटीस ने कोई समझौता नहीं किया।
पेंटिंग -"Death Of Socrates"
http://en.wikipedia.org/wiki/Trial_of_Socrates
http://en.wikipedia.org/wiki/Socrates
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व्यक्ति से समाज बनता है। समाज कई व्यक्तियों से बना समूह है। 
समाज का सदस्य होने के बाद अपनी सुरक्षितता के लिए व्यक्ति को समूह का सच स्वीकारना पड़ता है। 
ज़रूरी नहीं कि समूह का सच तर्काधारित हो। 
समूह की अतार्किकता के आगे व्यक्ति का तर्क नहीं टिक सकता। 
सत्य तर्काधारित होता है लेकिन उसमें समूह के सच का बल नहीं होता।
समूह के सच का कोई तर्क नहीं होता। ....

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

जिस दिन प्रेम जगा

-संध्या पेडणेकर
विश्व की महिला संतों में सूफी संत राबिया एक महत्वपूर्ण नाम है। एक बार राबिया के घर एक और फकीर आकर ठहरा था। जिस धर्म ग्रंथ को पढ़ रही थी उसमें से एक पंक्ति राबिया ने काट दी यह उसने देखा। उसे बहुत अचरज हुआ। लगा, यह राबिया तो बड़ी दुस्साहसी है। धर्मग्रंथ को सुधार रही है?
उसने राबिया से पूछा, तुम इस धर्मग्रंथ से पंक्ति को क्यों काट रही हो?
राबिया ने वह पंक्ति काट दी थी जिसमें लिखा हुआ था – शैतान से घृणा करो। राबिया ने जवाब दिया, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। जिस दिन से मेरे अंदर परमात्मा के लिए प्रेम जागा है उस दिन से मेरे अंदर की नफरत गायब हो गई है। चाहूं तब भी मैं किसीसे – शैतान से भी नफरत नहीं कर सकती। मैं सिर्फ प्रेम ही कर सकती हूं।  मेरे मन में जब से प्रेम जगा है तभी से नफरत को मैंने नदारद पाया। नफरत ही नहीं तो मैं किससे और कैसे नफरत कर सकती हूं? इसीलिए, धर्मग्रंथ की यह पंक्ति मुझे जंची नहीं और मैंने उसे मिटा दिया।
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मन से नफरत की विदाई...
आज के समय की क्या यह सबसे बड़ी ज़रूरत नहीं है?
नफरत नहीं तो नफरत के साथ जुड़ी कोई दुर्भावना नहीं।
दुर्भावना नहीं तो उसके कारण होनेवाले दुष्कृत्य नहीं।
धर्म का असली काम यही है। आराध्य के सहारे हर मन के गलियारे में प्रेम का दीप जलाना।
विचारों की आवाजाही से पटे पडे मन के चौक को प्रेम से रोशन करना।
प्रेम की रोशनी जगे तो नफरत को विदा होने में देर ही कितनी लगेगी?

शनिवार, 10 अगस्त 2013

सवाल पहली बार करने का है

-संध्या पेडणेकर
अमेरिका की खोज के बाद कोलंबस अपने देश वापस लौटा। 
रानी ने उसका भव्य स्वागत किया। 
उसके सम्मान में दरबार में एक विशेष स्वागत समारोह आयोजित किया। 
कुछ दरबारीगण कोलंबस के घोर विरोधी थे। जाहिर है, उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगा।
भोज के दौरान उन दरबारियों ने कहा, 'कोलंबस ने कोई खास बड़ा काम नहीं किया है। पृथ्वी गोल है, अगर कोई भी जाता तो वह अमेरिका खोज ही लेता।'
काफी देर तक कोलंबस उनके ताने सुनता रहा। फिर उसने सामने थाली में  खाने के लिए रखे उबले अंडों में से एक अंडा उठाया और कहा, 'क्या आप में से कोई इसे टेबिल पर सीधा खडा करके दिखा सकता है?' 
कोलंबस की बात को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करने के लिए कई दरबारी आगे आए लेकिन उनमें से कोई भी अंडे को सीधा खडा नहीं कर सका।
हार कर उन्होंने कहा, "अंडा सीधा खड़ा हो ही नहीं सकता।"
कोलंबस ने एक अंडा उठाया। जोर से उसका सिरा टेबिल पर ठोंका। अंडे का ठुंका सिरा पिचक कर दब गया
और अंडा खड़ा हो गया।
कोलंबस ने कहा, 'लो, मैंने अंडा सीधा खड़ा कर दिया।'
दरबार में कोलाहल मचा।
सभी दरबारी कहने लगे, 'तुमने अंडे को ठोंका। यह तो कोई भी कर सकता है।'
कोलंबस ने कहा, 'लेकिन किसीने किया नहीं। किसी एक के कर दिखाने के बाद तो सब कुछ आसान हो जाता है। सवाल यह है कि पहली बार कौन करता है?'
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पहली बार करने का ही नहीं, सवाल काम करने का है।
आज कौन काम नहीं करता?
कुछ कामों का मूल्य पैसों में गुना जाता है, कुछ काम अमूल्य होते हैं।
अमूल्य का एक हीनार्थ भी है- मूल्यहीन।
इसे उस शब्द का अर्थसंकोच नहीं कह सकते, यह पूरी तरह से किसी चीज को उसके मूल उच्च अर्थ से पदच्युत कर हीन अर्थ में लेना होता है। इसीलिए - हीनार्थ। जैसे कि - महात्मा गांधी का गढ़ा शब्द 'हरिजन'।
सो, अमूल्य काम मूल्यहीन भी होते हैं और उन्हें कर्तव्यस्वरूप या अपनी मर्जी से करनेवाले या तो महान होते हैं या फिर कनिष्ठ, तुच्छ। 

सोमवार, 5 अगस्त 2013

श्रीमती रूथ

– संध्या पेडणेकर
खलील जिब्रान की एक और कहानी सुनिए-
तीन व्यक्ति यात्रा पर निकले थे। दूर से उन्होंने देखा कि हरी-भरी पहाड़ी पर एक खूबसूरत सफेद महल है। तीनों में बातचीत होने लगी। 
एक ने कहा, - 'जानते हो, यह श्रीमती रूथ का घर है। वह पुरानी जादुगरनी है।'
दूसरे ने कहा, - 'हां घर तो श्रीमती रूथ का ही है लेकिन उनके बारे में तुम ग़लत कह रहे हो। वह तो एक बेहद खूबसूरत महिला है। हमेशा सपनों में डूबी रहती है।'
तीसरे ने कहा, 'खूबसूरत तो वह हैं लेकिन मैंने सुना है कि वह बहुत क्रूर हैं। यह आसपास की सारी जमीन उन्हींकी है और इस जमीन पर काम करनेवाले किसानों का वह खून चूस लेती हैं।'  
बतियाते हुए वह आगे बढ़े। गांव में पहुंचे तो चौक में उन्हें एक बूढ़ा मिला। उससे उन्होंने पूछा, -'उस सफेद महल में रहनेवाली श्रीमती रूथ के बारे में क्या आप कुछ बता सकते हैं?'
उस बूढ़े व्यक्ति ने उनसे कहा, -'हां, वहां श्रीमती रूथ रहा करती थीं। मैंने अपने बचपन में उनके बारे में बहुत सुना था। उन्हें मैंने देखा भी था। लेकिन उन्हें गुजरे तो अस्सी वर्ष हो गए हैं लगभग। मैं नब्बे वर्ष का हूं और मैं जब दस वर्ष का था तब उनकी मौत हुई थी। तब से वह मकान बिल्कुल खाली पड़ा है। कभी कभी वहां उल्लू बोलते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि वहां प्रेत रहते हैं।'
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जिससे पार न पाया जा सके वह स्त्री पुरुष के लिए एक अबूझ पहेली होती है। ऐसी पहेली जिसके बारे में किसी भी बात पर विश्वास करने में या उसके बारे में अफवाहें फैलाने में पुरुष को कोई झिझक नहीं होती।
स्त्री को इन्सान न माननेवालों के लिए वह एक पहेली बन जाती है।
अपनी श्रेष्ठता के दंभ में कुछ पुरुष उसे पैर की जूती मानते हैं।
अपने हीनताबोध के कारण कुछ पुरुष उसे देवि मानते हैं।
अपनी अकर्मण्यता के कारण कुछ पुरुष उसे जादूगरनी या डायन मानते हैं।
उसके प्रति अपनी तीव्र लालसा के वशीभूत हो कभी पुरुष उसे कविता कहते हैं।
उसूलों के प्रति पक्के होने के कारण कुछ पुरुषों को वह रक्तपिपासू लगती है।
हां, जो लोग उसे इन्सान मानते हैं उन्हें उसके स्त्री होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।     
ऐसे लोग उसे अपनी ही तरह जीवनयात्रा पर निकली यायावर मानते हैं और साथ चलते हैं। 

शनिवार, 3 अगस्त 2013

रोग पहचान कर इलाज करें

-संध्या पेडणेकर
एक गांव में एक मोची रहता था। उसके पेट में बड़े जोर का दर्द उठा। दर्द बढ़ता ही गया तो वह गांव के वैद्य के पास गया। वैद्य ने देखा कि रोग अपनी समझ से परे है सो उसने मोची से कहा, 'बेटा, माफ करना लेकिन तुम्हारी बीमारी मैं समझ नहीं पा रहा हूं। इसलिए मैं दवा नहीं दे सकता।'
मोची ने इसका गलत मतलब निकाला। उसे लगा कि वैद्य ने कहा कि उसका रोग लाइलाज है। वह दुखी मन से घर लौटा।
उसे सिरके में बना प्याज का अचार बहुत पसंद था। उसने सोचा, पता नहीं इस लाइलाज बीमारी से मैं उठूंगा कि नहीं। जी भर के एक बार यह अचार खा लूं।
वह अचार खाने बैठा। देखते देखते उसने साल भर के लिए बना अचार खा लिया।
आश्चर्य की बात कि उसका पेटदर्द ठीक हुआ।
दो-चार दिन बाद वैद्य को खयाल आया कि चल कर देख लूं कि मोची के पेटदर्द का क्या हाल है। मोची का हाल देख कर वह आश्चर्यचकित हुआ। उसने देखा कि मोची तंदुरुस्त है और अपना काम कर रहा है।
उसने मोची से पूछा तब मोची ने अचार खाने की बात बताई। वैद्य को लगा, चलो, एक नया नुस्खा हाथ आया है। घर जाकर उसने अपनी पोथी में लिख रखा कि जब समझ में न आनेवाला पेटदर्द हो तो सिरके में बना प्याज का अचार खाने से आदमी ठीक हो जाता है।
कुछ समय बाद उसके पास एक दर्जी पेटदर्द  की शिकायत लेकर पहुंचा। वैद्य ने जांचा लेकिन बीमारी का कारण पकड़ में नहीं आया। तब उसने दर्जी से कहा, बाजार जाकर सिरके में बना अचार किलोभर खरीद लो और खा जाओ।
दर्जी ने वही किया। उसने थोड़ा-सा अचार ही खाया कि असहनीय पीडा़ से बिलबिलाने लगा। लेकिन दर्जी को वैद्य पर भरोसा था। वह अचार खाता गया । अभी पाव भर अचार उसने खाया होगा कि उसका पेटदर्द ऐसे बढ़ा कि वह मर गया।
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प्रकृति ने हर व्यक्ति को अलग बनाया है। हर व्यक्ति की प्रकृति अलग होती है। इसलिए, ज़रूरी नहीं कि एक व्यक्ति पर लागू इलाज दूसरे पर भी ठीक उसी तरह का असर दिखाए। कई बार ठीक विपरीत असर भी हो सकता है जैसे कि इस कहानी में हम देखते हैं। 
तो क्या वैद्य ग़लत था?
उस पर भरोसा करनेवाले बीमार व्यक्ति ग़लत थे?
- दोनों सवालों के जवाब नहीं में ही होंगे। 
न वैद्य का दर्जी को इलाज बताते हुए कोई गलत इरादा था।
दरअसल, इलाज का सारा विज्ञान अनुमान पर ही आधारित होता है। लक्षण देख कर उपाय बताए जाते हैं।
खुद वैद्य में और बीमार व्यक्तियों में यह समझ होना ज़रूरी है।
अव्वल तो, अपने शरीर के बारे में हर किसीको थोड़ीबहुत जानकारी होना ज़रूरी है।
इसप्रकार व्यक्ति इलाज पाने में वैद्य की मदद भी कर सकता है और वैद्य से बताए गए इलाज लागू हो रहे हैं कि नहीं यह भी जान सकता है।

शनिवार, 8 जून 2013

आंखें और भ्रम




खलील जिब्रान की एक छोटी-सी कहानी है। 
कहानी का शीर्षक है - आंखें।
कहानी कुछ इसप्रकार है -
एक बार आंखों ने कहा, 'सामने वाली खाई के उस पार  वाला पहाड़ कितना सुंदर है! देखो तो! फिलहाल चारों तरफ उसे कोहरे ने घेर रखा है, लेकिन नज़ारा बहुत सुंदर है। '
आंखों ने जो कहा था उसे सुन कर कानों ने कहा, 'पहाड़? कहां है पहाड़? मुझे कोई पहाड़ सुनाई नहीं दे रहा!'
कान ने जो कहा वह सुन कर हाथों ने कहा, 'हां रे! आंखों ने जो कहा उसे सुन कर मैंने भी पहाड़ को छूने की कोशिश की थी, लेकिन कहीं कुछ था नहीं। मुझे नहीं लगता कोई पहाड़ होगा यहां!'
नाक ने कहा, 'हाथ ठीक ही कह रहे हैं, है कहां पहाड़? होता तो क्या मुझे उसकी गंध नहीं आती?'
इन सबकी बातें सुन कर आँखें उदास हुईं। उन्होंने अपनी नज़र को पहाड़ से हटा लिया।
आँखों ने जैसे ही अपनी नज़र हटाई बाकी सभी की आपस में खुसुर-पुसुर शुरू हुई - आंखों को शायद भ्रम हुआ है। आंखों में कोई गड़बड़ी पैदा हुई है शायद!'
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कहानी यहीं खत्म होती है।
सबको अपने-अपने अहसासों पर ही भरोसा था।  
औरों का कहना भी सही हो सकता है यह मानने के लिए 
अहंकार के कारण कोई तैयार ही नहीं था। 
सत्य को अपनी कुव्वत के आधार पर ढूंढ़े सबूतों के पैमाने पर कस कर
वे खरी-खोटी आजमाना चाहते थे। उन्हें पता नहीं था कि किसी एक पैमाने में समाने जितना सत्य न तो संकीर्ण है और न ही छोटा। और आंखें? 
अपने अहसासों पर उन्हें विश्वास था पर आत्मविश्वास उनमें बिल्कुल नहीं था। 

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

नहि सत्यात्परो धर्मः


-संध्या पेडणेकर
एक बार कई ब्राह्मण दार्शनिक गौतम से मिलने आए। गौतम के शिष्यों ने अपने गुरु से कहा, आपसे मुलाकात की उम्मीद लेकर वे ब्रह्मवादी दार्शनिक आपसे मिलने आए हैं। उन्होंने एक नए दर्शन की स्थापना की है और इस दर्शन के प्रमुख भगवान ब्रह्म है यह उनका दावा है। गुरुजी, इस बारे में आपके विचार क्या हैं यह हम सब जानना चाहते हैं।
इस पर गौतम ने जो जवाब दिया वह विचारणीय है ऐसा मुझे लगता है। गौतम ने ब्रह्मवादियों से सवाल किया, क्या आप लोगों ने ब्रह्म को देखा है?’ उन्होंने कहा, नहीं। गौतम ने पूछा, क्या आपकी ब्रह्म से बातचीत हुई है?’ जवाब मिला, नहीं। गौतम ने पूछा, क्या आपने ब्रह्म के बारे में कुछ सुना है?’ फिर जवाब मिला, नहीं। गौतम ने पूछा, क्या आपने ब्रह्म को चखा है?’  जवाब वही था, नहीं तब गौतम ने उनसे कहा कि जब आप कहते हैं कि आपके पंचज्ञानेंद्रियों ने और पंचकर्मेंद्रियों ने ब्रह्म क्या है इसका अनुभव नहीं किया, तो फिर ब्रह्म है यह आप किस भरोसे कहते हैं? इस पर ब्रह्मवादियों से कोई जवाब देते नहीं बना।
डॉ बाबासाहब आंबेडकर लेखन आणि भाषणे, खंड 18, भाग 3, 243.
वडाला, मुंबई में स्थित सिद्धार्थ कला एवं विज्ञान महाविद्यालय के पहले वर्षिक समारोह के अवसर पर दिए वक्तव्य से उर्द्धृत
गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधीत कहानी को उस अवसर पर सुनाने का औचित्य विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा था - सोचिए, गौतम बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ है कि हर इंसान को सोचने की आजादी है लेकिन अपनी इस आजादी का उपयोग उसे सत्य को ढूंढ़ने के लिए करना होगा। आखिर सत्य के मायने क्या हैं? व्यक्ति के पंच कर्मेंद्रियों और पंच ज्ञानेंद्रियों को जो सही लगे वही सत्य है। यानी कि, सत्य दिखाई दे, सुनाई दे, उसे हम सूंघ सकें, उसका स्वाद ले सकें और उसके अस्तित्व के बारे में हम लोगों को यकीन दिला सकें।गौतम ने अपने शिष्यों के आगे यही उद्देश्य रखे थे। सिद्धार्थ कॉलेज भी इन्हीं लक्ष्यों का अनुसरण करनेवाला है – 1.सत्य को ढूंढ निकालना, 2.मानवता की सीख देनेवाले धर्म का ही अनुसरण करना। 
अपने वक्तव्य में आगे उन्होंने कहा था, "सत्य और पूर्ण ज्ञान परस्परविरोधी बातें हैं। शास्त्र भी किसी बात को परिपूर्ण या अंतिम नहीं मानता। इसीलिए सत्य भी अधूरा होने के कारण कालानुसार बार बार उसे ढूंढना क्रमप्राप्त है। इसी कारण दुनिया में पूरी तरह पवित्र कुछ भी नहीं।
धर्म यानी सत्य यह हमें सीखना होगा। नहि सत्यात्परो धर्मः! यानी, सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं । हमारा लक्ष्य भी यही हो। हम किसी और को कभी दुख न दें। यही हमारे धर्म की सीख होनी चाहिए। सत्य ढूंढने में व्यक्ति को पूरी आजादी मिले यही अपने इस कॉलेज का लक्ष्य हो।"