शनिवार, 10 अगस्त 2013

सवाल पहली बार करने का है

-संध्या पेडणेकर
अमेरिका की खोज के बाद कोलंबस अपने देश वापस लौटा। 
रानी ने उसका भव्य स्वागत किया। 
उसके सम्मान में दरबार में एक विशेष स्वागत समारोह आयोजित किया। 
कुछ दरबारीगण कोलंबस के घोर विरोधी थे। जाहिर है, उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगा।
भोज के दौरान उन दरबारियों ने कहा, 'कोलंबस ने कोई खास बड़ा काम नहीं किया है। पृथ्वी गोल है, अगर कोई भी जाता तो वह अमेरिका खोज ही लेता।'
काफी देर तक कोलंबस उनके ताने सुनता रहा। फिर उसने सामने थाली में  खाने के लिए रखे उबले अंडों में से एक अंडा उठाया और कहा, 'क्या आप में से कोई इसे टेबिल पर सीधा खडा करके दिखा सकता है?' 
कोलंबस की बात को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करने के लिए कई दरबारी आगे आए लेकिन उनमें से कोई भी अंडे को सीधा खडा नहीं कर सका।
हार कर उन्होंने कहा, "अंडा सीधा खड़ा हो ही नहीं सकता।"
कोलंबस ने एक अंडा उठाया। जोर से उसका सिरा टेबिल पर ठोंका। अंडे का ठुंका सिरा पिचक कर दब गया
और अंडा खड़ा हो गया।
कोलंबस ने कहा, 'लो, मैंने अंडा सीधा खड़ा कर दिया।'
दरबार में कोलाहल मचा।
सभी दरबारी कहने लगे, 'तुमने अंडे को ठोंका। यह तो कोई भी कर सकता है।'
कोलंबस ने कहा, 'लेकिन किसीने किया नहीं। किसी एक के कर दिखाने के बाद तो सब कुछ आसान हो जाता है। सवाल यह है कि पहली बार कौन करता है?'
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पहली बार करने का ही नहीं, सवाल काम करने का है।
आज कौन काम नहीं करता?
कुछ कामों का मूल्य पैसों में गुना जाता है, कुछ काम अमूल्य होते हैं।
अमूल्य का एक हीनार्थ भी है- मूल्यहीन।
इसे उस शब्द का अर्थसंकोच नहीं कह सकते, यह पूरी तरह से किसी चीज को उसके मूल उच्च अर्थ से पदच्युत कर हीन अर्थ में लेना होता है। इसीलिए - हीनार्थ। जैसे कि - महात्मा गांधी का गढ़ा शब्द 'हरिजन'।
सो, अमूल्य काम मूल्यहीन भी होते हैं और उन्हें कर्तव्यस्वरूप या अपनी मर्जी से करनेवाले या तो महान होते हैं या फिर कनिष्ठ, तुच्छ।