बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

जुआघर और मरघट

-संध्या पेडणेकर
चीन के मशहूर दार्शनिक कन्फ्यूशियस के पास एक आदमी आया।
उसने कहा, मैं ध्यान करना चाहता हूं।
कन्फ्यूशियस ने उससे कहा, 'पहले तुम दो स्थानों पर होकर आओ। एक तो जुआघर जाओ और देखो कि लोग वहां क्या करते हैं। तुम सिर्फ देखना, करना कुछ नहीं। फिर आकर मुझे अपनी राय बताना।'
दो महीनों के बाद वह आदमी लौटा। उसने कहा कि लोग पागल हैं।
कन्फ्यूशियस ने उससे कहा, 'अब मैं तुम्हें दूसरा साधना सूत्र देता हूं। अब तुम दो महीने मरघट जाओ। वहां जाकर बैठो और मुर्दों को जलते हुए देखो।'
दो महीनों बाद वह आदमी आया और बोला, 'आपने तो मेरी आंखें ही खोल दीं। मैंने देखा कि सारी ज़िंदगी एक जुआ है और उसका अंत मरघट पर हो रहा है।'
कन्फ्यूशियस ने उससे कहा, 'अब तुम जीवन का रहस्य जान गए हो। अब तुम ध्यान की अंतर्यात्रा पर निकल सकते हो।'
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जीवन की असारता का जब तक पता न चले, जब तक बाहरी ताम झाम से छुटकारा न मिले, जब तक भोगों से मन न भरे तब तक मन की यात्रा कर पाना असंभव है। 
जीवन ही जीवन की असारता, अप्रत्याशितता और क्षणभंगुरता का सटीक उदाहरण है। 
जीवन का यह रहस्य जिसने जाना वह मुक्त हो गया। 
इसी मुक्ति की रोशनी में वह अंतर्मन की यात्रा पर निकल कर बुद्धत्व पा सकता है।