गुरुवार, 10 मई 2012

हांडी का मोह भी क्यों?

-संध्या पेडणेकर
शेख वाजिद अली एक बार अपने काफिले को लेकर यात्रा के लिए निकला। उसके काफिले में हजार के करीब ऊंट थे। उनके अलावा उसका और भी काफी सामान था।
यात्रा के दौरान वे एक ऐसी जगह पहुंचे जहां रास्ता बेहद संकरा था। एक समय केवल एक ही ऊंट उस रास्ते से होकर निकल सकता था।
सभी ऊंटों की एक लंबी कतार बनी। कतार में सबसे आगे वाजिद अली की सवारी थी।
अचानक उनके काफिले का एक ऊंट मर गया।
संकरे रास्ते में ही वह मर गया और ऐसे गिरा कि पूरा रास्ता घेर लिया। उसके पीछे वाले सारे ऊंट रुक गए।
आगे खबर भिजवाई गई। वाजिद अली ने सुना तो वह हालात का जायजा लेने के लिए, मरे ऊंट को देखने के लिए पीछे आया।
ऊंट पर नज़र पड़ते ही उसने कहा, 'यह कैसे मर सकता है? इसके हाथ हैं, पैर हैं, आंखें हैं, कान हैं....पूंछ  भी है। सब कुछ तो है।
जाहिर था कि मृत्यु के बारे में उसे कुछ पता न था।
सेवक ने कहा, 'सब कुछ है लेकिन इसके अंदर का जीवनतत्व चुक गया है।'
शेख ने पूछा, 'तो अब यह उठ कर चलेगा नहीं?'
सेवक ने कहा, 'अब यह कभी नहीं चलेगा। प्राण उड़ गए हैं इसलिए अब इसका शरीर गलेगा, सड़ेगा...'
उसने आगे कहा, 'और मौत सिर्फ ऊंट की नहीं होती, सबकी होती है।'
सहसा  वाजिद अली को विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, 'मेरी भी?'
सेवक ने कहा, 'हां, मौत सबकी होती है।'
मौत के बारे में जाना तो वाजिद अली के जीवन में वैराग्य जागा।
अपने बाकी सभी ऊंटों को उसने वापिस भेजा।
एक मिट्टी की हांडी लेकर वह चलता रहा। उसी हांडी में खाना पकाता और उसी को सिरहाने लेकर सोया रहता।
एक बार सूंघते हुए आए एक कुत्ते का मुंह उस हांडी में फंस गया। किसी तरह बाहर न निकले।
बौखलाया कुत्ता सरपट दौडा और दीवार से टकराया।
वाजिद अली की हांडी टूट गई।
शेख वाजिद अली ने सोचा, 'यह भी अच्छा ही हुआ,  सब कुछ छोड़ा और एक हांडी से मोह पाल लिया। जिस देह को दफनाना ही है उसके लिए हांडी का मोह भी क्यों पाला जाए?'
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माटी की इस देह को पालने के कितने चोंचले होते हैं। 
समय आने पर बीच राह में सांस साथ छोड़ ही जाती है।
इस बात से अनजान जीव यह मेरा, यह तेा के फेर में पड़ा रहता है।
पंडित भीमसेन जोशी जी का गाया हुआ संत कबीरदास जी का एक भजन याद आ रहा है, लिंक यहां दे रही हूं, आप भी ज़रूर सुनिएगा -
http://www.youtube.com/watch?v=crQfwtZhFx0

भजन के शब्द हैं -
काया नहीं तेरी नहीं तेरी | मत कर मेरी मेरी || धृ. ||

ये तो दो दिनकी जिंदगानी | जैसा फथर उपर पानी |
ये तो होवेगी खुरबानी || १ ||

जैसा रंग तरंग मिलावे | ये तो पलख पीछे उड जावे |
अंते कोई काम नहीं आवे || २ ||

सुन बात कहूं परमानी | वहांकी क्या करता गुमानी |
तुम तो बडे है बेइमानी || ३ ||

कहत कबीरा सुन नर ग्यानी | ये सीख हृदयमें मानी |
तेरेकू बात कही समझानी || 4 ||
http://www.maayboli.com/node/26871?page=7#comment-1567704