-संध्या पेडणेकर
एक बार एक राजा के दरबार
में एक बहुरुपिया आया और उसने पांच मुद्राओं की याचना की।
राजा ने कहा, 'तुम अगर बहुरुपिये
हो तो अपनी कला का नमूना दिखाओ। हम तुम्हें पुरस्कार देंगे, दान नहीं!'
लेकिन, राजा की बात सुन कर बहुरुपिया उनके दरबार से चला गया।
शहर से बाहर बने एक मंदिर
के सामने दूसरे दिन वह तड़के से ही एक साधु का वेष धारण करके बैठा रहा। ढोर चराने
आए चरवाहों ने साधु को देखा तो उनका वंदन किया। फिर कहा, 'महाराज, हमें आशिर्वाद दें।'
लेकिन साधु आंखें मूंदें
अपनी ध्यानधारणा में लीन रहा।
चरवाहों ने साधु के आगमन
की बात गांव में जाकर सभी को बता दी। दूसरे दिन शहर के तमाम लोग, दरबारी दान और फल-फूल लेकर साधु के आशिर्वाद
लेने पहुंचे। साधु ने तब भी आंखें नहीं खोलीं, न दान में मिली चीजों को छुआ।
शाम तक राजा के कानों में
महान साधु के आगमन की बात पहुंची। वह भी धन-रत्न-धान्य आदि लेकर साधु के दर्शन के
लिए आ पहुंचा। हाथ जोड कर अनुनय करता रहा लेकिन साधु ने राजा पर भी कृपा नहीं की।
लौटते समय राजा ने अपने
दरबारियों को आज्ञा दी कि सुबह सवेरे ही दरबार में वे उपस्थित हों। महान साधु को
किसी तरह की कोई दिक्कत न हो इसलिए राज्य की तरफ से क्या किया जा सकता है इसपर वह
उनके साथ विचार-विमर्ष करना चाहता था।
दूसरे दिन दरबार का
कामकाज शुरू होते होते बहुरूपिया फिर उपस्थित हुआ।
उसने राजा से कहा, 'शहर से बाहर बैठे
जिस महान साधु की कृपा के लिए आप पहुंचे थे वह मैं ही था। मैंने अपनी कला दिखा दी
इसलिए मुझे पांच मुद्राएं दान में दे।'
राजा ने पूछा, 'कल तुम्हारे
सामने वैभव का ढेर लगा था, तब तुमने उसमें
से कुछ क्यों नहीं लिया?'
सुन कर मुस्कुराते हुए
बहुरूपिए ने कहा, ' महाराज, कल मैं महान साधु
था, अगर मैं दान स्वीकारता तो
मेरी कला की गरिमा खो जाती। फिर मुझे पांच मुद्राओं की अपेक्षा थी, इतना धन लेकर मैं क्या करता!' उसकी बात सुन कर राजा को यकीन हुआ कि वह महान
कलाकार ही नहीं महान व्यक्ति भी है।
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महान कौन?
ज़रूरतें तो क्षितिज सी हैं, असीम। उन पर अंकुश लगाना लगभग नामुमकिन।
ज़रूरतें तो क्षितिज सी हैं, असीम। उन पर अंकुश लगाना लगभग नामुमकिन।
लगे कि ये आईं नियंत्रण
में,
फिर लगे कि, भुलावा था।
फिर, किस किस की ज़रूरतें पूरी करें?
माता-पिता, बीबी-बच्चे,
पडोसी, नाते-रिश्तेदार, जान-पहचानवाले...
और मैं स्वयं...
अनंत है माया का जाल।
इससे आपा बचा कर गुजर सके वही श्रेष्ठ जीव।
अनंत है माया का जाल।
इससे आपा बचा कर गुजर सके वही श्रेष्ठ जीव।
पांच मुद्राओं की ज़रूरत
है, पांच ही लें
पचास मिल रही हैं तब भी
पांच ही लें।
संभव है?
जमाना तो ऐसा कि, पांच की
ज़रूरत सोच कर निकलें और
पता चले कि उसी के दाम
पचास हुए हैं इस दौरान।
साईं से तो हमें एक भंडार
ही मांगना होगा
ताकि हम भी भूखे ना रहें,
साधू न भूखा जाए...
और नहीं तो क्या!