मंगलवार, 22 मई 2012

मुक्ति का क्षण


-संध्या पेडणेकर
नागार्जुन फकीर थे। एक रानी को उनसे प्यार हुआ। एक दिन साहस करके नागार्जुन को अपने महल में आमंत्रित किया। वह उनका सान्निध्य चाहती ती और साथ ही उन्हें कुछ देना चाहती थी जिससे उनके अभाव नष्ट हो जाएं।
नागार्जुन ने उसका आमंत्रण स्वीकार किया और मेहमान बन कर वे उसके महल में गए।  
उनके आने से रानी को बहुत खुशी हुई। उसने उनका स्वागत किया और हर तरह से उनका खयाल रखा।
दिन ढ़लने को आया तो नागार्जुन लौटने लगे। तब रानी ने बड़ी विनम्रता से कहा, 'महाराज, मैं आपसे कुछ चाहती हूं।'
नागार्जुन ने पूछा कि वह क्या चाहती है?
रानी ने कहा, 'गर आप अपना भिक्षापात्र मुझे दे दें तो... '
नागार्जुन ने झट अपना भिक्षापात्र उसे दे दिया। तब रानी ने उन्हें एक रत्नजटित स्वर्णपात्र दिया। उसने नागार्जुन से कहा, उस पात्र के बदले आप यह पात्र रख लीजिए। मैं आपके भिक्षापात्र की हर रोज पूजा करूंगी।
राजमहल से निकलते ही नागार्जुन के हाथ के बहुमूल्य पात्र पर एक चोर की नज़र पड़ी। उसने सोचा, एकांत देख कर वह उनसे पात्र छीन लेगा। वह नागार्जुन के पीछे पीछे चलने लगा।
कुछ दूर चलने के बाद नागार्जुन ने उस पात्र को फेंक दिया।
चोर ने झट वह पात्र उठाया। उसे लगा, इतना बहुमूल्य पात्र इस आदमी ने यूंही फेंक दिया
! मुझे कम से कम उसका शुक्रिया अदा करना चाहिए।
सो आगे बढ़ कर उसने नागार्जुन को रोका। कहा,
महाराज! मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। आप जैसे लोग भी होते हैं इस पर पहले मेरा विश्वास नहीं था। क्या मैं आपके पैर छू सकता हूं?’
नागार्जुन ने हंस कर उससे कहा,ज़रूर।
चोर ने झुक कर नागार्जुन के पैर छुए और कृतज्ञता से भरे उसके हृदय में उस एक क्षण और उस छुटपुट स्पर्श से ऐसे भाव जागे कि वह व्याकुल हो उठा। उसने नागार्जुन से पूछा, बाबा, अगर मुझे आपके जैसे बनना हो तो कितने जन्म लेने पड़ेगे?’
नागार्जुन ने कहा,'कितने जन्म? तुम चाहो तो यह आज हो सकता है, अभी हो सकता है!'
चोर उस दिन, उस क्षण के बाद चोर नहीं रहा। वह नागार्जुन का शिष्य बन गया।
---
हृदय पवित्र हो तो उद्धार का क्षण कभी फिसल नहीं जाता।
लगन लगे तो पार पाने में देर नहीं लगती।
कहते हैं, शरीर में जब तक एकाध सांस भी बाकी हो तब तक पापी को अपने पाप से उद्धार पाने की आस नहीं छोड़नी चाहिए और पुण्यावान को अपने पुण्य पर गुमान नहीं पालना चाहिए।
कौनसा पल क्या सौगात ले आए क्या पता।
मन चंगा रखें, बस।