सोमवार, 30 अप्रैल 2012

इंद्र-वृत्रासुर युद्ध

-संध्या पेडणेकर
बारबार होनेवाले आपसी युद्धों से देव और दानव छुटकारा पाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक समझौता किया। 
दोनों पक्षों ने तय किया कि वे अपने शस्त्र दधीचि ऋषि के आश्रम में रखेंगे। महर्षि दधीचि ने अपने तपोबल से उन अस्त्रों को पानी में बदला और पी गए। इससे उनकी हड्डियां अभेद्य हुईं। 
लेकिन दानव ज्यादा समय तक बिना युद्ध के नहीं रह सके। जैसे ही पहले युद्ध से आई निर्बलता खत्म हुई वे फिर देवों से युद्ध का बहाना ढूंढ़ने लगे। 
इंद्र के हाथों विश्वरूप असुर का नाश हुआ तो उन्हें यह बहाना मिल गया। उन्होंने विश्वरूप के छोटे भाई वृत्रासुर के नेतृत्व में स्वर्ग पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इंद्र के सामने फिर युद्ध का संकट खडा हुआ। स्वर्ग की रक्षा के लिए वृत्रासुर को मारना जरूरी हो गया। लेकिन विश्वरूप की हत्या के कारण उसे सजा भुगतनी पडी थी क्योंकि वह ब्राह्मण था। अब उसके भाई की हत्या कर एक बार फिर ब्रह्महत्या के पातक की सजा वह भुगतना नहीं चाहता था। 
अपनी समस्या लेकर इंद्र ब्रह्माजी से सलाह लेने गया। 
तब बह्मा ने उसे समझाया, "देवराज, अगर कोई आपकी हत्या करने के उद्देश्य से आप पर हमला कर रहा हो तो फिर वह ब्राह्मण ही क्यों न हो, आत्मरक्षा के लिए उसे मारने में कोई दोष नहीं है। फिर आप तो ब्रह्मांड की रक्षा के लिए युद्ध करेंगे।"
ब्रह्मा की दलील सुन कर इंद्र आश्वस्त हो गया। 
उसने दधीचि की हड्डियों से बने अस्त्र का प्रयोग कर असुरों का नाश किया। 
इस घटना ने देवों को एक और सबक सिखाया, - स्वार्थसिद्धी के लिए अपने निर्णयों को बिना हिचक बदलनेवाले  धूर्त और कपटी लोगों का कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए।
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लड़ना जीव का स्थायीभाव नहीं। लेकिन कई बार अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए लड़ाई अवश्यंभावी हो जाती है।
सारासार विचार के बाद विवेकपूर्ण निर्णय लेना और स्वार्थसिद्धि के लिए गिरगिट की तरह तुरंत-फुरंत रंग बदलने में बहुत फर्क है।
लेकिन जीवन में कई बार ऐसे संकट आते हैं जब सोच-समझ कर लिए गए निर्णयों को भी बदलना पड़ता है। नैतिकता की नीव पर खड़ी निर्णयों की इमारत को बदलना बहुत कठिन होता है।
बचपन में हमारे गुरुजी हमें नैतिकता के आधार पर निर्णय लेने के संदर्भ में एक उदाहरण सुनाया करते थे। एक गाय दौडते हुए आपके सामने से गुजरती है और अगले मोड पर दाहिनी तरफ मुड कर आगे निकल जाती है। कुछेक मिनटों में ही एक जल्लाद हाथ में बडा छुरा लेकर दनदनाता हुआ आकर आपके सामने रुकता है। उसे देखते ही उसके इरादे आप जान जाते हैं। मोड पर आप खड़े हैं और वह आकर आपसे पूछे कि अभी अभी एक गाय दौडती हुई यहां से गुजरी थी, बताइए तो, वह किस ओर गई? आप क्या जवाब देंगे?
आपके सही जवाब देने से एक निरपराध जीव की हत्या होगी और अप्रत्यक्ष रूप से आप उस हत्या के लिए जिम्मेदार होंगे। उस जीव को बचाने के लिए आपको झूठ बोलना होगा, लेकिन झूठ बोलना तो सिरे से नैतिकता के खिलाफ है।
ऐसे समय आप अपने विवेक के सहारे क्या निर्णय लेंगे
इस उदाहरण में स्थितियां बेहद स्थूल रूप से सामने रखी गई हैं। जीवन के रण में स्थितियां कई बार सूक्ष्म होती हैं और उनसे निपटना बहुत आसान नहीं होता क्योंकि उनके साथ व्यक्ति के छोटे-बडे स्वार्थ भी जुड़े रहते हैं। 
सब्जी-फल बेचनेवाले से प्लास्टिक की थैलियों में सब्जी और फल खरीद लाएं या पर्यावरण की रक्षा को ध्यान में रखते हुए सूती थैली का इस्तेमाल करें, चौबीस घंटे पानी की आपूर्ति होती है इसलिए अंट-शंट पानी का इस्तेमाल करें या प्राकृतिक साधनसंपत्ति होने के काऱण पानी का योग्य इस्तेमाल करें जैसी बातों से लेकर अच्छा रिश्ता पाने के लिए दहेज देकर लड़का खरीदें (और उसके साथ उसका लालच, जो आगे चल कर आपकी लाडली के लिए जानलेवा संकट बन सकता है) या उसूलों पर चलनेवाले साधारण लड़के को दामाद बनाएं जैसी कई समस्याओं से लोगों का रोजमर्रा सामना होता ही रहता है।
पाप-पुण्य के बारे में धारणाएं बदलती रहती हैं, बदलती रही हैं। इसलिए, अपनी विवेकबुद्धि के सहारे ही जीवन की हर छोटी-बड़ी समस्या से संबंधीत निर्णय लेना तर्कसंगत होता है। 
इस कहानी में देवों की रक्षा के लिए दधीची को अपनी हड्डियां देनी पड़ीं। महत्तर उद्देश्य के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने में उन्हें कोई हिचक नहीं हुई लेकिन सालों के बाद उनका पुत्र जब जवान हुआ तो उसे पिता को इस कारण खोने का दुख नागवार गुजरा। उसने इंद्र से बदला लेने की सोची। क्या उसका निर्णय सही था?

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

एकाग्रता

-संध्या पेडणेकर
जेन गुरु बोकोजू अपने शिष्यों को ध्यान सिखाने के लिए जो तरीके अपनाते थे वे लोगों को अजीबोगरीब लगते थे।
एक बार एक राजकुमार उनसे शिक्षा लेने आया। बोकोजू ने उससे एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ने को कहा।
अब तक उस राजकुमार की ज़िंदगी राजमहल में ही बीती थी। पेड़ की ऊंचाई देखकर वह डर गया।
उसने बोकोजू से कहा, 'मैं पेड़ पर चढ़ना नहीं जानता। गिर जाऊंगा तो?'
उसे समझाते हुए बोकोजू ने कहा, 'पेड़ पर चढ़ना जाननेवालों को मैंने कभी कभार गिरते देखा है, लेकिन पेड़ पर चढ़ना नहीं जाननेवालों को कभी गिरते नहीं देखा। तुझे चढ़ना आता नहीं सो निश्चिंत भाव से तू चढ़।'
कोई अन्य चारा न देख कर राजकुमार पेड़ पर चढ़ने लगा।
सौ-सवा सौ फीट ऊंचा पेड़ था। गुरु की आज्ञा थी कि आखिरी छोर तक चढ़ना है। संभल संभल कर राजकुमार चढ़ने लगा। चढ़ता रहा।
उसे लगा था कि गुरु उसे निर्देश देंगे, कुछ मार्गदर्शन करेंगे। पर जब जब उसकी नड़र नीचे की तरफ जाती वह देखता किगुरु का उसकी तरफ ध्यान ही नहीं है।
ऊपर कगार तक पहुंच कर वह नीचे उतरने लगा गुरु तब भी आंखें बंद किए बैठे थे।
राजकुमार जैसे ही बीस-पच्चीस फूट की ऊंचाई तक पहुंचा गुरु चौंक कर उठे और निर्देश दिया कि, जरा सावधानी से उतरना।
राजकुमार नीचे उतर आया और उसने गुरु से पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया?
गुरु ने कहा, 'मैंने तुझे तभी चेतावनी दी जब तू निश्चिंत हो गया। जब तुझे लगा कि जमीन करीब आ गई तभी तू चूक सकता था। पेड़ की चोटी पर था तब तू खुद चौकन्ना था। उस समय तुझे मेरी ज़रूरत नहीं थी। मुझे जब लगा कि अब जमीन करीब है और तुझसे चूक हो सकती है तभी मैंने तुझे आवाज दी।'
राजकुमार को याद आया, गुरु सच ही तो कह रहे हैं। पे़ड़ पर चढ़ते वक्त, चोटी पर पहुंचने से पहले और बाद में उतरने की शुरुआत करने तक वह बहुत ही चौकन्ना था। जमीन पास दिखने लगी, तो उसका ध्यान हटने लगा था। गुरु से क्या और कैसे पूछना है इस बात को लेकर उसके मन ने मोर्चा बांधना शुरू ही किया था कि गुरू की चेतावनी भरी आवाज उसके कानों से टकराई थी और वह फिर से चौकन्ना हो गया था।
गुरु के प्रति उसकी शिकायत दूर हो गई और वह उनका ऋणी हुआ।
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काम जब तक कठिन होता है तब तक हमारा मन पूरी एकाग्रता के साथ उसे पूरा करने के लिए प्रयत्नरत रहता है। जब उसे लगता है कि काम बस पूरा होने में है तो वह आश्वस्त हो जाता है और उसकी एकाग्रता भंग हो जाती है। एकाग्रता के बगैर सफलता संभव नहीं। काम का हाथी भले आपने पार करा दिया हो, उसकी पूंछ आपकी एकाग्रता के अभाव में काम बिगाड सकती है। और मन हर किसीका आवारा ही होता है, उसे एकाग्र रखना बेहद कठिन है। 
मराठी की संत कवयित्री बहिणाबाई कह गई हैं - 
"मन वढाय वढाय उभ्या पीकातलं ढोर
किती हाकला हाकला फिरी येतं पिकांवर
    मन मोकाट मोकाट त्याले ठायी ठायी वाटा
         जशा वार्यानं चालल्या पानावर्हल्यारे लाटा....."
(हिंदी में शब्दार्थ - मन बड़ा चंचल होता है, खडी फसल में घुसे मवेशी की तरह। कितना भी भगाओ, वह फिर फिर फसल में घुस आता है। मन की कई राहें होती हैं। वह कहां कहां की सैर कर आएगा इसका कोई भरोसा नहीं। शांत पानी पर हवा से उठती चंचल लहरों की तरह होता है मन।) 
मन के बारे में बहिणाबाई एक और जगह कहती हैं कि मन बड़ा ठग होता है। वह इंद्र को ठगता है, ब्रह्म की अवमानना करता है! औरों को धोखा देते देते वह खुद को भी धोखा देने लगता है और अपने ही धोखे के झांसे में भी आ जाता है।
ऐसे मन को वश में करना और एकाग्र रखना बेहद कठिन काम है। लेकिन असाध्य नहीं। मन को साधना से एकाग्र किया जा सकता है और इस काम में सतगुरु हमारी मदद करते हैं। इसीलिए बहिणाबाई कहती हैं,
"बहेणि म्हणे मना सांडी रे मीपण। होय तूं शरण सद्गुरूसी ।।" 
(हिंदी में शब्दार्थ - बहिणाबाई कहती हैं कि रे मन, अहं छोड़ और गुरु की शरण चला जा।)
और गुरु वह नहीं जो पग पग पर आपको नसीहतें देता रहे। गुरू वह जो बोकोजू की तरह समय पर आपको चेताए। आपके जीवन की नैय्या को पार लगा दे।

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

राजा भर्तृहरि

-संध्या पेडणेकर
उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के सौतेले बड़े भाई राजा भर्तृहरि कवि थे। अनुराग और विराग का उदाहरण देने के लिए अक्सर उनका जिक्र किया जाता है।  श्रृंगार शतक, वैराग्य शतक और नीति शतक  ये तीन काव्य ग्रंथ उन्होंने लिखे हैं - इनमें से प्रत्येक में उनके लिखे सौ-सौ पद संग्रहित हैं। घोर श्रृंगारी राजा भर्तृहरि विरागी कैसे बने इसके बारे में एक कथा बताई जाती है -
भर्तृहरि अपनी नवविवाहिता पत्नी पिंगला  के प्रेम में आकंठ डूबे हुए थे। 
एक ब्राह्मण ने राजा भर्तृहरि को आशिर्वादस्वरूप एक फल भेंट किया और बताया कि इस फल को खानेवाले की आयु बढ़ेगी।
भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला से बेहद प्रेम करते थे। सो उन्होंने वह फल पिंगला को दिया।
पिंगला को राजा से नहीं बल्कि राजा के सारथी चंद्रचूड से प्रेम था। इसलिए, उसकी दीर्घायु की कामना करते हुए उसने वह फल चंद्रचूड को दिया।

सारथी चंद्रचूड एक वेश्या से  प्यार करता था। दीर्घायु देनेवाला वह फल चंद्रचूड ने उस वेश्या को दिया। 
वेश्या का चरित्र श्रेष्ठ था। उसने सोचा, दीर्घायु से मुझे क्या लाभ? दीर्घायु तो राजा की होनी चाहिए जो प्रजा का पालन करता है, राज्य का रक्षण करता है। सो उसने तय किया कि दीर्घायु प्रदान करनेवाला फल  वह राजा को - यानी, भर्तृहरि को देगी। 
उसने दरबार में जाकर फल की विशेषता बताई और कहा कि ऐसे फल को ग्रहण करने के लिए वह खुद योग्य व्यक्ति नहीं है। राजा ही इस फल को खाने का अधिकारी है। यह कह कर उसने फल राजा को अर्पण किया।
राजा भर्तृहरि उस फल को वापिस पाकर भौंचक रहा। उसने तो वह फल अपनी प्रिय पत्नी पिंगला को दिया था।
पूछताछ हुई और सारे रहस्य एक एक कर खुलते चले गए। राजा भर्तृहरि को जीवन की व्यर्थता का बोध हुआ। उन्होंने अपने ऐशोआराम से संपन्न जीवन का त्याग कर संन्यास लिया। घोर श्रृंगारी राजा भर्तृहरि घोर विरागी बने। 

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इस धरती पर समीक्षकों की जमात कैसे पैदा हुई इस बारे में एक कहानी कहीं पढ़ी थी। पहले समीक्षक भगवान के साथ स्वर्ग लोक में ही रहते थे। मानव का निर्माण करने के बाद भगवान ने समीक्षक से राय पूछी। अपनी अनूठी रचना पर भगवान खुद मुग्ध थे। वे प्रशंसा सुनना चाहते थे लेकिन समीक्षक ने नुक्ताचीनी करते हुए हमेशा की तरह खोट बताया - इस प्राणि के हृदय पर एक खिड़की होनी चाहिए ताकि उसके मन में क्या चल रहा है इसका कुछ अंदाजा लगाया जा सके। समीक्षक की इस वाहियात बात से क्षुब्ध होकर भगवान ने उसे मानव के साथ ही इस धरती पर भेज दिया और तबसे वे यहीं बस कर मानव के कार्य की नुक्ताचीनी करते रहते हैं। (इस कहानी से निकलनेवाले स्वर - समीक्षकों की जमात इंसानों से जुदा होती है, पर फिर कभी)
आज यह कहानी इसलिए याद आई क्योंकि भर्तृहरि से संबंधीत यह कथा जिस ओर संकेत करती है उससे ऐसी खिड़की की आवश्यकता अधोरेखांकित होती है। हम अपनी आजादी के बारे में आश्वस्त होते हैं लेकिन अन्यों के बारे में अपनी जो कल्पनाएं होती हैं वे अगर गलत साबित हुई तो हमें ठेस पहुंचती है।
भर्तृहरि को लगा पिंगला उससे प्रेम करती है, पिंगला को लगा सारथी चंद्रचूड उनसे प्रेम करता है लेकिन उन सबकी उम्मीदें झूठी साबित हुईं।
वेश्या के संदर्भ में सामाजिक रूढार्थ में प्रेम शब्द कहीं बैठता नहीं इसलिए प्रेम के संदर्भ में उसका जिक्र नहीं आया। उसमें विवेक की उम्मीद भी चंद्रचूड को नहीं रही होगी, लेकिन यहां उसमें अभी विवेक शेष दिखाया गया है। यानी, उम्मीद से विपरीत। खैर, इन सब बातों का समय रहते पता चलता तो श्रृंगारी राजा भर्तृहरि वियोगी नहीं होते। इसलिए, इंसान के दिल पर खिड़की का होना बेहद ज़रूरी है। 
जरा सोचिए, ज़िंदगी कितनी आसान होती अगर हरेक के दिल पर एक अदद खिड़की लगी होती। तब ईमानदारी हर तरह से मानव का स्थायी गुण होता।
न कहीं घोटाले होते और न कहीं उन घोटालों का निषेध व्यक्त करना पड़ता। 
वैसे, राजा भर्तृहरि के विरागी बनने के बारे में हमें शिकायत नहीं करनी चाहिए क्योंकि अगर वे वैराग्य को नहीं अपनाते तो वैराग्य शतक  नहीं लिखते, न नीति शतक  लिखते।
अच्छा ही है कि दिल पर खिड़कियां नहीं हैं।

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

ब्रह्मज्ञान की परीक्षा

-संध्या पेडणेकर
एक बार की बात है। आदि शंकराचार्य स्नान के लिए गंगाजी की ओर जा रहे थे। एक चांडाल अपने चार कुत्तों के साथ रास्ता घेरे हुए बैठा था। उसे देखते ही शंकराचार्य ने ऊंचे स्वर में कहा, 'दूर हटो! दूर हटो!' 
उनकी बात सुन कर भी चांडाल अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ। उसने शंकराचार्य से कहा, "हे महात्मन्! वेदांत के द्वारा आप ब्रह्म और जीव की एकता का प्रतिपादन करते हैं। एक ओर तो आप कहते हैं कि ब्रह्म एक है जो सत्, चित्, आनंद, दोषरहित, असंग, अखंड, आकाश की तरह व्यापक और निर्लेप है और दूसरी ओर आप उसी अद्वैत ब्रह्म में भेद की कल्पना भी कर लेते हैं। मैं पवित्र ब्राह्मण हूं और तुम चांडाल हो, अतः दूर हटो, यह आपका आग्रह कैसा? बताइए, मेरा यह भौतिक शरीर आपके भौतिक शरीर से दूर हो या फिर इन भौतिक शरीरों में व्याप्त आत्मा एक-दूसरे से दूर हो? समस्त शरीरों में स्थित ब्रह्म की आप अवहेलना कर रहे हैं, महात्मन!"
चांडाल की बात ने आचार्य शंकर को सोचने पर मजबूर किया। उन्हें अपनी गलती समझ में आ गई। उन्होंने चांडाल से कहा कि, आप आत्मज्ञानी हैं। आपका कथन पूरी तरह सत्य है।
इसके बाद आचार्य शंकर ने जिन श्लोकों से चांडाल की स्तुति की वे 'मनीषा पंचक' के नाम से प्रसिद्ध हैं। संक्षेप में मनीषा पंचक में जो कहा है वह इसप्रकार है - मैं ब्रह्म ही हूं और समस्त जगत् भी ब्रह्मरूप है ऐसी जिसकी दृढ़ मान्यता है वह चांडाल हो या ब्राह्मण, वह मेरा गुरू है। 

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'मनीषा पंचक' के बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर मिल सकती है -
http://www.bhagavadgitausa.com/HYMNS%20OF%20SANKARA.htm
यू-ट्यूब पर इस प्रसंग का वीडियो देखने के लिए लिंक है-
http://www.youtube.com/watch?v=Ewta7YJCmyw
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भ्रम होना और भ्रम के कारण भूल होना मानव होने के नाते सहज है। श्रेष्ठ मानव वही है जो अपनी भूल का अहसास होने पर उसे सुधारने के लिए प्रस्तुत हो।
आखिर, एक मानव को दूसरे से श्रेष्ठ या कनिष्ठ ठहराना कहां तक तर्कसंगत या मानवीय है? जाति के आधार पर भेदभाव करना सर्वथः गलत और इसीलिए निषेधार्ह है।
अपनी भूल का अहसास होने के बाद किसी भी अहं का शिकार हुए बिना उसे सुधारना मानवोचित है। 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

हमदर्दी


 -संध्या पेडणेकर
 एक दुकानदार ने अपनी दुकान पर,'कुत्ते के पिल्ले बेचने हैं' वाला बोर्ड टांगा। कुछ ही देर में एक बच्चा काऊंटर के परे खड़ा उससे पूछ रहा था,'आप पप्पी कितने में बेच रहे हैं?' दुकानदार ने कहा,'४०० रुपयों में। क्या तुम पिल्ला खरीदना चाहते हो?' बच्चे ने जेब में हाथ डाला और बंद मुठ्ठी बाहर निकाली। कुछेक रुपए और सिक्के भर उसकी जेब में थे। उसने कहा, 'क्या इतने पैसों में मैं उन्हें एक बार देख सकता हूं?' दुकानदार ने दुकान के पीछेवाले अहाते की तरफ देख कर आवाज लगाई और नौकरानी से कहा कि वह बच्चे को पिल्ले दिखाए। नौकरानी के हाथ में सीटी थी। उसने वह बजाई तो पास ही रखे एक बडे बक्से से पांच-छः गबदुल से पिल्ले लुढकते हुए आवाज की दिशा में दौड़ने लगे। उन सबके पीछे एक पिल्ला लंगडाता हुआ धीमे धीमे जा रहा था। बच्चे ने दुकानदार से पूछा, 'उस पिल्ले को क्या हुआ है?' दुकानदार ने कहा, 'उसे हमने जानवरों के डॉक्टर को दिखाया था। उसने बताया है कि इस पिल्ले के एक पैर में पैदाइशी खामी है जिसे ठीक नहीं किया जा सकता। वह जिंदगीभर लूला ही रहेगा।' कुछ सोच कर बच्चे ने कहा,'क्या मैं यह पिल्ला खरीद सकता हूं?' दुकानदार को अब उत्सुकता हुई। दूकानदार ने उससे कहा,'बेटा, यह पिल्ला तुम्हारे किसी काम का नहीं। न वह तुम्हारे साथ खेलेगा, न दौडेगा, न छलांग मार सकेगा। तुम अगर फिर भी वही पिल्ला चाहते हो तो ले जाओ। मैं उसके पैसे नहीं लूंगा।' बच्चे ने कहा, 'मैं उसे लूंगा, लेकिन मुफ्त नहीं। आपने दूसरे पिल्लों की जितनी रखी है उतनी ही कीमत इसकी भी है और मैं इसके लिए उतनी ही कीमत दूंगा। अभी मैं इतने ही पैसे दे सकता हूं लेकिन पिताजी से लेकर मैं आपके बाकी पैसे चुका दूंगा।' अब दूकानदार से रहा नहीं गया। उसने पूछा, 'क्या सचमुच तुम इस पिल्ले को खरीदना चाहते हो? वह कभी.....' दुकानदार को बीच में टोक कर बच्चे ने अपनी पतलून नीचे से उठा कर दिखाई। उसका पैर बुरी तरह मुडा हुआ था। स्टील के पट्टे के सहारे झूल रहा था। बच्चे ने मीठी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, 'मैं भी दौड नहीं सकता हूं चाचाजी। फिर इस पिल्ले को समझनेवाला कोई हो ऐसा उसे लगेगा, तो उसके लिए मैं हूं ना।'
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हमदर्दी बड़ी नायाब चीज है।
लोग अक्सर शिकायत करते रहते हैं कि हमें समझनेवाला कोई नहीं। अक्सर ऐसा तब कहा जाता है जब किसी गलती के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाता है। याकि जीवन से लगाई गई उनकी उम्मीदें पूरी नहीं होतीं।
लेकिन जिनका पूरा जीवन किसी गलती की तरह होता है उनके दुख का क्या आर-पार!
कई बार केवल किनारे बैठ कर प्रवाह को देखना भर उनके भाग्य में लिखा होता है। हमदर्दी की उम्मीद रखना भी उनके लिए गंवारा नहीं होता। अपने जैसे किसी और जीव को यह कमी खलने न देने की इस बच्चे की कोशिश जितनी गदगद कर देती है उतना ही उसका स्वाभिमान भी।  
ज़रूरतमंद के लिए 'मैं हूं नाहर कोई नहीं कह सकता। 
शीरीरिक विकलांगता और सोच की विकलांगता दो अलग चीजें हैं।

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

बिन पेंदी का पात्र


-संध्या पेडणेकर
एक योगी के पास एक युवक आया। 
बोला, 'बड़ी दूर से आस लेकर आया हूं। आप मेरा मोक्ष के मार्ग पर मार्गदर्शन करें।'
योगी ने उससे पूछा, 'श्रद्धा है? तभी तुम सत्य को सम्हाल पाओगे।'
युवक ने कहा, 'परिपूर्ण श्रद्धा लेकर आया हूं। जो कहेंगे, स्वीकार करूंगा।'
योगी ने कहा, 'अभी तो मैं कुएं पर पानी भरने जा रहा हूं। मेरे पीछे आओ। मैं जो करूं उसका निरीक्षण करना। प्रश्न मत उठाना। श्रद्धा रखना।' 
युवक ने सोचा, 'इसमें क्या कठिनाई है!' वह योगी के पीछे हो लिया। 
योगी ने कुएं की मेंड पर एक घडा रखा। युवक थोड़ा हैरान हुआ क्योंकि उस घडे में पेंदी नहीं थी।
दूसरा साबुत घडा रस्सी में बांध कर योगी ने कुएं में डाला। पानी भरा, ऊपर खींचा और बिन पेंदी के घडे में उंडेला। बिन पेंदी के घडे से सारा पानी बह गया। योगी ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। उसने फिर घड़ा कुएं में डाला, पानी भरा और खींच कर बिन पेंदी के घड़े में उंडेला। 
एक बार, दो बार, तीन बार.....
युवक ने सोचा, यह आदमी शायद पागल है। सारा पानी बहा जा रहा है और यह बिना देखे उंडेले जा रहा है। बिन पेंदी के पात्र में पानी भरे तो कैसे?
चौथी बार युवक भूल गया कि उसे चुप रहना है। उसने पूछ ही लिया, 'ऐसे तो यह पात्र भरने से रहा।  इसमें पेंदी कहां है?'
योगी ने कहा, 'बस! खतम हो गया संबंध। कहा था श्रद्धा रखना। चुप रहना। पेंदी से हमें क्या लेना-देना? हमें तो घडे में पानी भरना है। पेंदी से क्या प्रयोजन? सतह पर मेरा बराबर ध्यान है....'
युवक बोला, 'मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि आप क्या कर रहे हैं।'
योगी ने कहा, 'जाओ। दुबारा इस तरफ मत आना। पहली ही परीक्षा में असफल हो गए। अभी तो और बड़े इम्तहान आने को थे।'
युवक लौट गया। 
लेकिन बड़ा परेशान रहा। 
उसने अपना चैन खोया। न सो पाए, न खा पाए।
उसने सोचा, इतनी सी बात तो किसी मूढ़ को भी समझ में आ जाती। ज़रूर इस आदमी का कोई और प्रयोजन था। मुझे चुप खड़े रहना चाहिए था। आखिर कितनी देर तक यह चलता? मैंने जल्दी की। मैं चूक गया। 
दूसरे दिन युवक वापिस लौट आया। उसने योगी से क्षमा मांगी। 
योगी ने कहा, 'जितनी समझदारी तुम मुझे बता रहे हो उतनी अगर अपनी ज़िंदगी के साथ बरतते तो तुम्हें मेरे पास आने की ज़रूरत नहीं पड़ती। इशारा बस उतना ही था। जिस पात्र में पेंदी ना हो उसे भरा नहीं जा सकता। वासनाएं-कामनाएं तूने इतने दिनों से भरीं, क्या अब तक शरीर का पात्र लबालब भर पाया? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसमें पेंदी ही नहीं?'
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शरीर के इस पात्र की पेंदी नहीं।
अहं का कोई अंत नहीं।
भोग से इस शरीर रूपी पात्र को जितना भरते जाएंगे उतना ही उसे खाली पाएंगे। लेकिन लालसा में अंधा मन इस बात से अनजान है। कामनापूर्ति के कितने ही घड़े आप इस बिन पेंदी के अतृप्त शरीर रूपी पात्र में उंडेलिए वह खाली का खाली रहेगा। 'और... और' की उसकी मांग कभी खत्म नहीं होगी। 
हमारा अहं हमें इस बात से हमेशा थपकता रहता है कि जो तू जानता है वही सच है। अंतिम सत्य वही है। दंभ हर जीव को होता है कि सभी कार्यों का कारण वह जानता है। हाथी और अंधों की कथा हम सब जानते हैं, लेकिन अपने सत्य की लकीर पीटने से किसीको मुक्ति नहीं।
बिरले ही होते हैं जिनमें गुरु की कृपा से विवेक जागता है और बताता है कि - 
शरीर के इस पात्र की पेंदी नहीं।
अहं का कोई अंत नहीं।
और
इन दोनों पतवारों के सहारे खेई जानेवाली नाव का 
कोई किनारा नहीं। 
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मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

जरा सी भूल


-संध्या पेडणेकर
क्रोधी दुर्वासा ऋषि एक बार श्रीकृष्ण-रुक्मिणी के महल गए। 
श्रीकृष्ण-रुक्मिणी ने उनका खूब आदर-सत्कार किया। 
दुर्वासा जैसे शीघ्रकोपी ऋषि का मन जीतना आसान नहीं, लेकिन अपनी सेवा से श्रीकृष्ण-रुक्मिणी ने उनका मन जीत लिया। 
शाम के समय दुर्वासा श्रीकृष्ण के रथ पर चढे। श्रीकृष्ण सारथी को रथ चलाने के लिए कहने ही वाले थे कि उन्हें रोक कर दुर्वासा ने कहा, इस रथ को तुम और रुक्मिणी खींचोगे। 
फिर घोडों की जगह श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ने ली। 
उनकी सेवा से खुश होकर दुर्वासा ने श्रीकृष्ण को एक खास तरह का लेप दिया और कहा कि यह पायस लेप शरीर के जिस हिस्से पर मलोगे उस पर कोई अस्त्र-शस्त्र प्रभाव नहीं कर सकेगा। 
श्रीकृष्ण ने अपने पूरे शरीर पर वह लेप लगाया लेकिन पैरों के तलवों को वह भूल गए। 
शिवपुराण में बताया गया है कि इसी कारण श्रीकृष्ण के तलवे कमजोर रह गए और जरा व्याध के बाण उन्हें भेद गए। 
यादव कुल का जब नाश हुआ तब श्रीकृष्ण उदास होकर एक पेड के नीचे लेटे थे। एक पैर के खडे घुटने पर उन्होंने दूसरे पैर का तलुवा टिकाया हुआ था। रात हुई। अंधेरे में उनके तलवे का पद्म चमकने लगा। जरा व्याध शिकार करने निकला था। उस पद्म को वह हिरन की आंख समझ बैठा और उसने निशाना साध कर तीर चलाया। 
इसी बाण से श्रीकृष्ण की जीवन लीला समाप्त हुई।
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हिंदु संस्कृति में अतिथियों का सत्कार करने की परंपरा रही है। दुर्वासा जैसे अतिथि की इच्छाओं का श्रीकृष्ण-रुक्मिणी जैसे संपन्न और श्रेष्ठ राजा-रानीद्वारा भी सम्मान किया जाता था। संपन्न लोगों में महान व्यक्तित्वों के प्रति श्रद्धा हुआ करती थी। अतिथियों का आशिर्वाद पाने की ललक हुआ करती थी। अतिथि की हर इच्छा का आदर करना परम कर्तव्य माना जाता था। लेकिन क्या दुर्वासा के लिए यह ठीक था कि वह ऐसे दंपति से रथ खिंचवाए? श्रीकृष्ण-रुक्मिणी ने उनकी इस किंचित विक्षिप्त इच्छा का पालन क्यों किया?  श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणी ने भी रथ खींचा था, फिर दुर्वासा ने रुक्मिणी को क्या दिया? दिया ही होगा, हो सकता है युगानुसार तब इस बात का जिक्र करना जरूरी नहीं रहा हो।
अपने काम में कोई कितना परफेक्शन ले आए? 
खैर, कोई कितनी भी कोशिश कर ले, होनी को टाला नहीं जा सकता क्या यही संदेश इस प्रसंग से नहीं मिलता? भले कोई कहें कि श्रीकृष्ण की लीला समाप्ति का समय आ गया था और इसलिए अपने अवतार से मुक्ति पाने का यह मार्ग खुद उनकी लीला का एक अंग था।
वैसे, पायस लेप के बारे में सोचने की ज़रूरत है। यह भी पता करना होगा कि इस लेप के सहारे क्या प्राकृतिक विपदाओं से भी जीव को बचाया जा सकता है? आज मानव के सिर पर उसके खुद के निर्माण किए गए संकटों के साथ साथ प्राकृतिक विपदाएं भी मंडरा रही हैं। अपने क्षुद्र स्वार्थों से भले वह उबर जाए लेकिन इन आपदाओं के कारण मानव जाति को विलुप्त होने से बचाने का कोई उपाय शीघ्रातिशीघ्र खोजना ही होगा। 

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

दूसरों के लिए अच्छा सोचो


-संध्या पेडणेकर
वैसे तो नारद ब्रह्मचारी हैं लेकिन एक बार श्रीमती पर उनकी नजर पडी और वह उस पर लट्टू हुए। श्रीमती से शादी करने की इच्छा उनके मन में पैदा हुई। 
तुंबरू ने श्रीमती को देखा तो संयोगवश कहिए या दुर्भाग्यवश, उनके मन में भी यही इच्छा पैदा हुई।
दोनों को एक दूसरे की इच्छा के बारे में पता चला तो उन्होंने एक दूसरे को मात देने की ठान ली। दोनों भगवान विष्णु के भक्त थे। 
नारद ने अपने आराध्य से कहा कि श्रीमती के स्वयंवर में तुंबरू हिस्सा लेने आए तो उसका चेहरा भालू का बन जाए। 
तुंबरू ने विष्णू से कहा कि नारद का चेहरा ऐन समंय पर बंदर का बन जाए। 
भगवान विष्णु को बडा मजा आ रहा था। उन्होंने सोचा कि मैं भी चल कर देखूं कि इन दोनों का क्या हाल होता है। 
स्वयंवर के समय हाथ में माला लेकर जब श्रीमती स्वयंवर में उपस्थित वर देख रही थी तो कतार में आखिर छोर पर खडे नारद और तुंबरू पर उसकी नजर पडी। दोनों बडे रौबिले लग रहे थे। 
सभी वरों को पार कर वह उनके पास पहुंची तो देखा कि एक का चेहरा भालू का है और दूसरे का बंदर का। 
वह सहम गई। 
तभी विष्णू पर उसकी नजर पडी। आदमी का चेहरा देख कर उसने राहत की सांस ली और विष्णु के गले में वरमाला पहना दी। 
बाद में हुआ यूं कि, नारद खुश थे, क्योंकि तुंबरू को श्रीमती नहीं मिली और तुंबरू खुश थे, क्योंकि नारद को श्रीमती नहीं मिली। इसतरह, दूसरों का बुरा चाहनेवालों को खुद का नुकसान झेलना पडता है।
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आखिर अपने नुकसान की कामना कोई करे ही क्यों? 
कहते हैं दूसरों की तरफ एक उंगली दिखाते हैं तब बाकी चार उंगलियां अपनी तरफ ही इशारा करती हैं। कहते यह भी हैं कि जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदते हैं वे खुद गड्ढे में गिर जाते हैं। ऐसी एक नहीं कई बातें रुढ़ हैं लेकिन....
लेकिन जब सिर पर किसी और का बुरा करने की कामना छा जाती है तब ज्ञान के ये सभी विचार-मौक्तिक इंसान को याद नहीं आते। तब बस यही बात भूत की तरह सिर पर सवार रहती है कि भले अपना थोड़ा नुकसान क्यों न हो, दूसरे का भला किसी कीमत पर नहीं होना चाहिए। बैर की कई कहानियां ऐसी ही दुर्भावना के साथ पैदा होती हैं और रौद्र से भीषण और बीभत्स रूप धारण करती जाती हैं। दूसरों का अहित चाहते हुए आदमी एक तरह से अपने अहित की ही कामना करता है।
समय रहते ऐसी भावनाओं पर अंकुश लगाना विवेकवान व्यक्ति का लक्षण है। अपना फायदा न हो न सही, अहित किसीका न हो यह भावना जितनी परपोषक है उससे कहीं ज़्यादा स्वपोषक है। सबके हित की कामना करते हुए परोक्ष रूप से हम अपने हित की भी कामना करते रहते हैं। ऐसी प्रार्थना से आत्मा को जो ऊर्जा मिलती है वह किसी भी भौतिक लाभ से निर्विवाद रूप से कई गुना  अच्छी होती है। ऐसी ऊर्जा सही मायने में व्यक्ति को संपन्न बनाती है। इसलिए, 
अच्छा सोचो, अच्छा पाओ। 

रविवार, 15 अप्रैल 2012

ईश्वर को पहचानना मुश्किल है

-संध्या पेडणेकर
प्रसिद्ध रशियन साहित्यिक दोस्तोवस्की की एक कथा है।
उन्होंने लिखा है कि मरने के अठ्ठारह सौ सालों के बाद जीजस को खयाल आया कि मैं शायद असमय दुनिया में गया था। इसलिए लोग मुझे समझ नहीं पाए और मुझे सूली पर चढ़ाया गया। अब हर गांव में गिरजे हैं, जगह जगह मेरे नाम की घंटी बजती है, मेरे नाम से मोमबत्तियां जलाई जाती हैं। अब ठीक वक्त है। अब मुझे दुनिया में जाना चाहिए।
सो, एक रविवार की सुबह जीजस अपने गांव बैथलहैम आए।
रविवार की सुबह थी। लोग प्रार्थना करने के बाद चर्च से बाहर निकल रहे थे।
जीजस ने सोचा, मुझे अपना परिचय देने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। घर घर में तस्वीर लगी है मेरी। जीजस को यह भी अच्छी तरह याद था कि पहले जब वह आए थे तब उन्होंने चिल्ला-चिल्ला कर लोगों से कहा था, 'मैं ईश्वर का पुत्र आपके लिए जीवन का संदेश लेकर आया हूं। जो मुझे जान लेगा वह मुक्त होगा।' लेकिन उस वक्त उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया था।
'अब वे मुझे जरूर पहचानेंगे,' जीजस को लगा।
लेकिन लोग उन्हें देख कर हंसने लगे। उन्हें लगा, कोई सिरफिरा है जो जीजस की तरह भेस बना कर खड़ा है। आखिर जीजस को कहना पड़ा कि, मैं वही हूं जिसकी पूजा करके तुम बाहर निकले हो।
हंसते हुए ही लोगों ने उनसे कहा, 'गिरजे का पादरी आए इससे पहले यहां से भाग जाओ वरना मुसीबत में पड़ोगे।'
जीजस समझाने लगे, 'पहले मैं यहूदियों के बीच था इसलिए गफलत हुई थी। मगर अब आप लोगों के बीच में हूं। क्या आप लोग भी मुझे पहचान नहीं पा रहे हो?'
इतने में पादरी आया।
जीजस पर हंसनेवाले लोग झुक झुक कर उसे प्रणाम करने लगे। जीजस ने सोचा, पादरी तो मुझे पहचान ही लेगा। लेकिन पादरी ने जीजस को पकड़ा और ले जाकर चर्च के एक कमरे में बंद कर दिया।
आधी रात को जीजस ने देखा कि वही पादरी हाथ में लालटेन लिए कमरे में आ रहा है।
जीजस के चरणों में सिर रख कर उसने कहा, 'मैंने तुम्हे पहले ही पहचान लिया था। लेकिन तुम ठहरे पुराने अराजक। तुम फिर सत्य की बातें कहोगे और सब अस्त-व्यस्त कर दोगे। हमने सब ठीक से जमा लिया है। अब तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हें कुछ कहना-करना हो तो हमारे जरिए करो। हम मनुष्य और तुम्हारे बीच की कड़ी हैं।..... और ज़्यादा गड़बड़ की तो अठ्ठारह सौ साल पहले जो दूसरे पादरियों ने तुम्हारे साथ किया था वही मुझे भी करना पड़ेगा। हम तुम्हारी मूर्ति की पूजा कर सकते हैं, तुम्हारे लिए गिरजे बना सकते हैं लेकिन खुद तुम्हारी मौजूदगी खतरनाक है!'
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न जमाना बदलता है, न लोगों की मानसिकता में बहुत ज़्यादा फेरबदलाव आते हैं। इंसान की मनोवृत्तियां पहले भी स्वकेंद्रित थीं और शायद हमेशा ही रहेंगी। किसीको आदर्श बना लेने के बाद उसका अनुगमन करने के बजाय उसकी पूजा करना अधिक सहूलियतवाला होता है। इसतरह पूजाघर से निकलने के बाद लोग फिर अपने मूल व्यक्तित्व के साथ दुनियावी तामझाम से अपने तरीके से निपटने के लिए आज़ाद होते हैं। 
इन बातों को अधोरेखित करती दोस्तोवस्की की यह कहानी मुझे इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि इसमें उन्होंने लोगों की एक और आम मानसिकता पर प्रकाश डाला है। वह यह, कि लोगों को लगता है कि भगवान को मनाने से उसके प्रतिनिधि को मनाना आसान होता है। भगवान तो एडजस्ट करने से रहे, सो एजेंट से ही ले-देकर बेडा पार करवा लेने में ही समझदारी है। 
दुनियावी झमेलों में भगवान खुद पड़ते होंगे इस बारे में भी लोग शायद हमेशा से सशंकित रहे हैं। इसलिए भी भगवान के प्रतिनिधियों की ज़्यादा पूछ होती है। लोग भगवान को मंदिरों में तो पहचान सकते हैं, प्रत्यक्ष सामना होने पर पहचानना उनके लिए असुविधाजनक होता है। 
बहरहाल, मानव मन की जो बारीकियां यहां व्यक्त हैं उनसे आए दिन हम सब दो-चार होते ही रहते हैं। श्रद्धा की कमी और ढ़कोसलों पर जोर देकर ज़्यादातर मन खुश होते हैं कि हमने सही रीत निभा दी। लेकिन क्या रस्म-रीत निभाना ही भगवान को जानना है? यह कहानी हमारे मन को सोच की इस राह पर ठेलती है।