-संध्या पेडणेकर
क्रोधी दुर्वासा ऋषि
एक बार श्रीकृष्ण-रुक्मिणी के महल गए।
श्रीकृष्ण-रुक्मिणी ने उनका खूब आदर-सत्कार
किया।
दुर्वासा जैसे शीघ्रकोपी ऋषि का मन जीतना आसान नहीं, लेकिन अपनी सेवा से श्रीकृष्ण-रुक्मिणी ने उनका मन जीत
लिया।
शाम के समय दुर्वासा श्रीकृष्ण के रथ पर चढे। श्रीकृष्ण सारथी को रथ चलाने
के लिए कहने ही वाले थे कि उन्हें रोक कर दुर्वासा ने कहा, इस रथ को तुम और रुक्मिणी खींचोगे।
फिर घोडों की जगह
श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ने ली।
उनकी सेवा से खुश होकर दुर्वासा ने श्रीकृष्ण को एक
खास तरह का लेप दिया और कहा कि यह पायस लेप शरीर के जिस हिस्से पर मलोगे उस पर कोई
अस्त्र-शस्त्र प्रभाव नहीं कर सकेगा।
श्रीकृष्ण ने अपने पूरे शरीर पर वह लेप लगाया
लेकिन पैरों के तलवों को वह भूल गए।
शिवपुराण में बताया गया है कि इसी कारण
श्रीकृष्ण के तलवे कमजोर रह गए और जरा व्याध के बाण उन्हें भेद गए।
यादव कुल का जब
नाश हुआ तब श्रीकृष्ण उदास होकर एक पेड के नीचे लेटे थे। एक पैर के खडे घुटने पर
उन्होंने दूसरे पैर का तलुवा टिकाया हुआ था। रात हुई। अंधेरे में उनके तलवे का
पद्म चमकने लगा। जरा व्याध शिकार करने निकला था। उस पद्म को वह हिरन की आंख समझ
बैठा और उसने निशाना साध कर तीर चलाया।
इसी बाण से श्रीकृष्ण की जीवन लीला समाप्त
हुई।
हिंदु संस्कृति
में अतिथियों का सत्कार करने की परंपरा रही है। दुर्वासा जैसे अतिथि की इच्छाओं का
श्रीकृष्ण-रुक्मिणी जैसे संपन्न और श्रेष्ठ राजा-रानीद्वारा भी सम्मान किया जाता
था। संपन्न लोगों में महान व्यक्तित्वों के प्रति श्रद्धा हुआ करती थी। अतिथियों
का आशिर्वाद पाने की ललक हुआ करती थी। अतिथि की हर इच्छा का आदर करना परम कर्तव्य
माना जाता था। लेकिन क्या दुर्वासा के लिए यह ठीक था कि वह ऐसे दंपति से रथ
खिंचवाए? श्रीकृष्ण-रुक्मिणी ने उनकी इस किंचित
विक्षिप्त इच्छा का पालन क्यों किया? श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणी ने भी रथ खींचा था,
फिर दुर्वासा ने रुक्मिणी को क्या दिया? दिया ही होगा, हो
सकता है युगानुसार तब इस बात का जिक्र करना जरूरी नहीं रहा हो।
अपने काम में कोई कितना परफेक्शन ले आए?
खैर, कोई कितनी
भी कोशिश कर ले, होनी को टाला नहीं जा सकता क्या यही संदेश इस प्रसंग से नहीं
मिलता? भले कोई कहें कि श्रीकृष्ण की लीला समाप्ति का
समय आ गया था और इसलिए अपने अवतार से मुक्ति पाने का यह मार्ग खुद उनकी लीला का एक
अंग था।
वैसे, पायस लेप
के बारे में सोचने की ज़रूरत है। यह भी पता करना होगा कि इस लेप के सहारे क्या
प्राकृतिक विपदाओं से भी जीव को बचाया जा सकता है? आज मानव के सिर
पर उसके खुद के निर्माण किए गए संकटों के साथ साथ प्राकृतिक विपदाएं भी मंडरा रही
हैं। अपने क्षुद्र स्वार्थों से भले वह उबर जाए लेकिन इन आपदाओं के कारण मानव जाति
को विलुप्त होने से बचाने का कोई उपाय शीघ्रातिशीघ्र खोजना ही होगा।