-संध्या पेडणेकर
उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के सौतेले बड़े भाई राजा भर्तृहरि कवि थे। अनुराग और विराग का उदाहरण देने के लिए अक्सर उनका जिक्र किया जाता है। श्रृंगार शतक, वैराग्य शतक और नीति शतक ये तीन काव्य ग्रंथ उन्होंने लिखे हैं - इनमें से प्रत्येक में उनके लिखे सौ-सौ पद संग्रहित हैं। घोर श्रृंगारी राजा भर्तृहरि विरागी कैसे बने इसके बारे में एक कथा बताई जाती है -
भर्तृहरि अपनी नवविवाहिता पत्नी पिंगला के प्रेम में आकंठ डूबे हुए थे।
एक ब्राह्मण ने राजा भर्तृहरि को आशिर्वादस्वरूप एक फल भेंट किया और बताया कि इस फल को खानेवाले की आयु बढ़ेगी।
भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला से बेहद प्रेम करते थे। सो उन्होंने वह फल पिंगला को दिया।
पिंगला को राजा से नहीं बल्कि राजा के सारथी चंद्रचूड से प्रेम था। इसलिए, उसकी दीर्घायु की कामना करते हुए उसने वह फल चंद्रचूड को दिया।
सारथी चंद्रचूड एक वेश्या से प्यार करता था। दीर्घायु देनेवाला वह फल चंद्रचूड ने उस वेश्या को दिया।
वेश्या का चरित्र श्रेष्ठ था। उसने सोचा, दीर्घायु से मुझे क्या लाभ? दीर्घायु तो राजा की होनी चाहिए जो प्रजा का पालन करता है, राज्य का रक्षण करता है। सो उसने तय किया कि दीर्घायु प्रदान करनेवाला फल वह राजा को - यानी, भर्तृहरि को देगी।
उसने दरबार में जाकर फल की विशेषता बताई और कहा कि ऐसे फल को ग्रहण करने के लिए वह खुद योग्य व्यक्ति नहीं है। राजा ही इस फल को खाने का अधिकारी है। यह कह कर उसने फल राजा को अर्पण किया।
राजा भर्तृहरि उस फल को वापिस पाकर भौंचक रहा। उसने तो वह फल अपनी प्रिय पत्नी पिंगला को दिया था।
पूछताछ हुई और सारे रहस्य एक एक कर खुलते चले गए। राजा भर्तृहरि को जीवन की व्यर्थता का बोध हुआ। उन्होंने अपने ऐशोआराम से संपन्न जीवन का त्याग कर संन्यास लिया। घोर श्रृंगारी राजा भर्तृहरि घोर विरागी बने।
उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के सौतेले बड़े भाई राजा भर्तृहरि कवि थे। अनुराग और विराग का उदाहरण देने के लिए अक्सर उनका जिक्र किया जाता है। श्रृंगार शतक, वैराग्य शतक और नीति शतक ये तीन काव्य ग्रंथ उन्होंने लिखे हैं - इनमें से प्रत्येक में उनके लिखे सौ-सौ पद संग्रहित हैं। घोर श्रृंगारी राजा भर्तृहरि विरागी कैसे बने इसके बारे में एक कथा बताई जाती है -
भर्तृहरि अपनी नवविवाहिता पत्नी पिंगला के प्रेम में आकंठ डूबे हुए थे।
एक ब्राह्मण ने राजा भर्तृहरि को आशिर्वादस्वरूप एक फल भेंट किया और बताया कि इस फल को खानेवाले की आयु बढ़ेगी।
भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला से बेहद प्रेम करते थे। सो उन्होंने वह फल पिंगला को दिया।
पिंगला को राजा से नहीं बल्कि राजा के सारथी चंद्रचूड से प्रेम था। इसलिए, उसकी दीर्घायु की कामना करते हुए उसने वह फल चंद्रचूड को दिया।
सारथी चंद्रचूड एक वेश्या से प्यार करता था। दीर्घायु देनेवाला वह फल चंद्रचूड ने उस वेश्या को दिया।
वेश्या का चरित्र श्रेष्ठ था। उसने सोचा, दीर्घायु से मुझे क्या लाभ? दीर्घायु तो राजा की होनी चाहिए जो प्रजा का पालन करता है, राज्य का रक्षण करता है। सो उसने तय किया कि दीर्घायु प्रदान करनेवाला फल वह राजा को - यानी, भर्तृहरि को देगी।
उसने दरबार में जाकर फल की विशेषता बताई और कहा कि ऐसे फल को ग्रहण करने के लिए वह खुद योग्य व्यक्ति नहीं है। राजा ही इस फल को खाने का अधिकारी है। यह कह कर उसने फल राजा को अर्पण किया।
राजा भर्तृहरि उस फल को वापिस पाकर भौंचक रहा। उसने तो वह फल अपनी प्रिय पत्नी पिंगला को दिया था।
पूछताछ हुई और सारे रहस्य एक एक कर खुलते चले गए। राजा भर्तृहरि को जीवन की व्यर्थता का बोध हुआ। उन्होंने अपने ऐशोआराम से संपन्न जीवन का त्याग कर संन्यास लिया। घोर श्रृंगारी राजा भर्तृहरि घोर विरागी बने।
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इस धरती पर समीक्षकों की जमात कैसे पैदा हुई इस बारे में एक कहानी कहीं पढ़ी थी। पहले समीक्षक भगवान के साथ स्वर्ग लोक में ही रहते थे। मानव का निर्माण करने के बाद भगवान ने समीक्षक से राय पूछी। अपनी अनूठी रचना पर भगवान खुद मुग्ध थे। वे प्रशंसा सुनना चाहते थे लेकिन समीक्षक ने नुक्ताचीनी करते हुए हमेशा की तरह खोट बताया - इस प्राणि के हृदय पर एक खिड़की होनी चाहिए ताकि उसके मन में क्या चल रहा है इसका कुछ अंदाजा लगाया जा सके। समीक्षक की इस वाहियात बात से क्षुब्ध होकर भगवान ने उसे मानव के साथ ही इस धरती पर भेज दिया और तबसे वे यहीं बस कर मानव के कार्य की नुक्ताचीनी करते रहते हैं। (इस कहानी से निकलनेवाले स्वर - समीक्षकों की जमात इंसानों से जुदा होती है, पर फिर कभी)
आज यह कहानी इसलिए याद आई क्योंकि भर्तृहरि से संबंधीत यह कथा जिस ओर संकेत करती है उससे ऐसी खिड़की की आवश्यकता अधोरेखांकित होती है। हम अपनी आजादी के बारे में आश्वस्त होते हैं लेकिन अन्यों के बारे में अपनी जो कल्पनाएं होती हैं वे अगर गलत साबित हुई तो हमें ठेस पहुंचती है।
भर्तृहरि को लगा पिंगला उससे प्रेम करती है, पिंगला को लगा सारथी चंद्रचूड उनसे प्रेम करता है लेकिन उन सबकी उम्मीदें झूठी साबित हुईं।
वेश्या के संदर्भ में सामाजिक रूढार्थ में प्रेम शब्द कहीं बैठता नहीं इसलिए प्रेम के संदर्भ में उसका जिक्र नहीं आया। उसमें विवेक की उम्मीद भी चंद्रचूड को नहीं रही होगी, लेकिन यहां उसमें अभी विवेक शेष दिखाया गया है। यानी, उम्मीद से विपरीत। खैर, इन सब बातों का समय रहते पता चलता तो श्रृंगारी राजा भर्तृहरि वियोगी नहीं होते। इसलिए, इंसान के दिल पर खिड़की का होना बेहद ज़रूरी है।
आज यह कहानी इसलिए याद आई क्योंकि भर्तृहरि से संबंधीत यह कथा जिस ओर संकेत करती है उससे ऐसी खिड़की की आवश्यकता अधोरेखांकित होती है। हम अपनी आजादी के बारे में आश्वस्त होते हैं लेकिन अन्यों के बारे में अपनी जो कल्पनाएं होती हैं वे अगर गलत साबित हुई तो हमें ठेस पहुंचती है।
भर्तृहरि को लगा पिंगला उससे प्रेम करती है, पिंगला को लगा सारथी चंद्रचूड उनसे प्रेम करता है लेकिन उन सबकी उम्मीदें झूठी साबित हुईं।
वेश्या के संदर्भ में सामाजिक रूढार्थ में प्रेम शब्द कहीं बैठता नहीं इसलिए प्रेम के संदर्भ में उसका जिक्र नहीं आया। उसमें विवेक की उम्मीद भी चंद्रचूड को नहीं रही होगी, लेकिन यहां उसमें अभी विवेक शेष दिखाया गया है। यानी, उम्मीद से विपरीत। खैर, इन सब बातों का समय रहते पता चलता तो श्रृंगारी राजा भर्तृहरि वियोगी नहीं होते। इसलिए, इंसान के दिल पर खिड़की का होना बेहद ज़रूरी है।
जरा सोचिए, ज़िंदगी कितनी आसान होती अगर हरेक के दिल पर एक अदद खिड़की लगी होती। तब ईमानदारी हर तरह से मानव का स्थायी गुण होता।
न कहीं घोटाले होते और न कहीं उन घोटालों का निषेध व्यक्त करना पड़ता।
न कहीं घोटाले होते और न कहीं उन घोटालों का निषेध व्यक्त करना पड़ता।
वैसे, राजा भर्तृहरि के विरागी बनने के बारे में हमें शिकायत नहीं करनी चाहिए क्योंकि अगर वे वैराग्य को नहीं अपनाते तो वैराग्य शतक नहीं लिखते, न नीति शतक लिखते।
अच्छा ही है कि दिल पर खिड़कियां नहीं हैं।
अच्छा ही है कि दिल पर खिड़कियां नहीं हैं।