-संध्या पेडणेकर
प्रसिद्ध रशियन साहित्यिक दोस्तोवस्की की एक कथा है।
उन्होंने लिखा है कि मरने के अठ्ठारह सौ सालों के बाद जीजस को खयाल आया कि मैं शायद असमय दुनिया में गया था। इसलिए लोग मुझे समझ नहीं पाए और मुझे सूली पर चढ़ाया गया। अब हर गांव में गिरजे हैं, जगह जगह मेरे नाम की घंटी बजती है, मेरे नाम से मोमबत्तियां जलाई जाती हैं। अब ठीक वक्त है। अब मुझे दुनिया में जाना चाहिए।
सो, एक रविवार की सुबह जीजस अपने गांव बैथलहैम आए।
रविवार की सुबह थी। लोग प्रार्थना करने के बाद चर्च से बाहर निकल रहे थे।
जीजस ने सोचा, मुझे अपना परिचय देने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। घर घर में तस्वीर लगी है मेरी। जीजस को यह भी अच्छी तरह याद था कि पहले जब वह आए थे तब उन्होंने चिल्ला-चिल्ला कर लोगों से कहा था, 'मैं ईश्वर का पुत्र आपके लिए जीवन का संदेश लेकर आया हूं। जो मुझे जान लेगा वह मुक्त होगा।' लेकिन उस वक्त उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया था।
'अब वे मुझे जरूर पहचानेंगे,' जीजस को लगा।
लेकिन लोग उन्हें देख कर हंसने लगे। उन्हें लगा, कोई सिरफिरा है जो जीजस की तरह भेस बना कर खड़ा है। आखिर जीजस को कहना पड़ा कि, मैं वही हूं जिसकी पूजा करके तुम बाहर निकले हो।
हंसते हुए ही लोगों ने उनसे कहा, 'गिरजे का पादरी आए इससे पहले यहां से भाग जाओ वरना मुसीबत में पड़ोगे।'
जीजस समझाने लगे, 'पहले मैं यहूदियों के बीच था इसलिए गफलत हुई थी। मगर अब आप लोगों के बीच में हूं। क्या आप लोग भी मुझे पहचान नहीं पा रहे हो?'
इतने में पादरी आया।
जीजस पर हंसनेवाले लोग झुक झुक कर उसे प्रणाम करने लगे। जीजस ने सोचा, पादरी तो मुझे पहचान ही लेगा। लेकिन पादरी ने जीजस को पकड़ा और ले जाकर चर्च के एक कमरे में बंद कर दिया।
आधी रात को जीजस ने देखा कि वही पादरी हाथ में लालटेन लिए कमरे में आ रहा है।
जीजस के चरणों में सिर रख कर उसने कहा, 'मैंने तुम्हे पहले ही पहचान लिया था। लेकिन तुम ठहरे पुराने अराजक। तुम फिर सत्य की बातें कहोगे और सब अस्त-व्यस्त कर दोगे। हमने सब ठीक से जमा लिया है। अब तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हें कुछ कहना-करना हो तो हमारे जरिए करो। हम मनुष्य और तुम्हारे बीच की कड़ी हैं।..... और ज़्यादा गड़बड़ की तो अठ्ठारह सौ साल पहले जो दूसरे पादरियों ने तुम्हारे साथ किया था वही मुझे भी करना पड़ेगा। हम तुम्हारी मूर्ति की पूजा कर सकते हैं, तुम्हारे लिए गिरजे बना सकते हैं लेकिन खुद तुम्हारी मौजूदगी खतरनाक है!'
प्रसिद्ध रशियन साहित्यिक दोस्तोवस्की की एक कथा है।
उन्होंने लिखा है कि मरने के अठ्ठारह सौ सालों के बाद जीजस को खयाल आया कि मैं शायद असमय दुनिया में गया था। इसलिए लोग मुझे समझ नहीं पाए और मुझे सूली पर चढ़ाया गया। अब हर गांव में गिरजे हैं, जगह जगह मेरे नाम की घंटी बजती है, मेरे नाम से मोमबत्तियां जलाई जाती हैं। अब ठीक वक्त है। अब मुझे दुनिया में जाना चाहिए।
सो, एक रविवार की सुबह जीजस अपने गांव बैथलहैम आए।
रविवार की सुबह थी। लोग प्रार्थना करने के बाद चर्च से बाहर निकल रहे थे।
जीजस ने सोचा, मुझे अपना परिचय देने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। घर घर में तस्वीर लगी है मेरी। जीजस को यह भी अच्छी तरह याद था कि पहले जब वह आए थे तब उन्होंने चिल्ला-चिल्ला कर लोगों से कहा था, 'मैं ईश्वर का पुत्र आपके लिए जीवन का संदेश लेकर आया हूं। जो मुझे जान लेगा वह मुक्त होगा।' लेकिन उस वक्त उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया था।
'अब वे मुझे जरूर पहचानेंगे,' जीजस को लगा।
लेकिन लोग उन्हें देख कर हंसने लगे। उन्हें लगा, कोई सिरफिरा है जो जीजस की तरह भेस बना कर खड़ा है। आखिर जीजस को कहना पड़ा कि, मैं वही हूं जिसकी पूजा करके तुम बाहर निकले हो।
हंसते हुए ही लोगों ने उनसे कहा, 'गिरजे का पादरी आए इससे पहले यहां से भाग जाओ वरना मुसीबत में पड़ोगे।'
जीजस समझाने लगे, 'पहले मैं यहूदियों के बीच था इसलिए गफलत हुई थी। मगर अब आप लोगों के बीच में हूं। क्या आप लोग भी मुझे पहचान नहीं पा रहे हो?'
इतने में पादरी आया।
जीजस पर हंसनेवाले लोग झुक झुक कर उसे प्रणाम करने लगे। जीजस ने सोचा, पादरी तो मुझे पहचान ही लेगा। लेकिन पादरी ने जीजस को पकड़ा और ले जाकर चर्च के एक कमरे में बंद कर दिया।
आधी रात को जीजस ने देखा कि वही पादरी हाथ में लालटेन लिए कमरे में आ रहा है।
जीजस के चरणों में सिर रख कर उसने कहा, 'मैंने तुम्हे पहले ही पहचान लिया था। लेकिन तुम ठहरे पुराने अराजक। तुम फिर सत्य की बातें कहोगे और सब अस्त-व्यस्त कर दोगे। हमने सब ठीक से जमा लिया है। अब तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हें कुछ कहना-करना हो तो हमारे जरिए करो। हम मनुष्य और तुम्हारे बीच की कड़ी हैं।..... और ज़्यादा गड़बड़ की तो अठ्ठारह सौ साल पहले जो दूसरे पादरियों ने तुम्हारे साथ किया था वही मुझे भी करना पड़ेगा। हम तुम्हारी मूर्ति की पूजा कर सकते हैं, तुम्हारे लिए गिरजे बना सकते हैं लेकिन खुद तुम्हारी मौजूदगी खतरनाक है!'
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न जमाना बदलता है, न लोगों की मानसिकता में बहुत ज़्यादा फेरबदलाव आते हैं। इंसान की मनोवृत्तियां पहले भी स्वकेंद्रित थीं और शायद हमेशा ही रहेंगी। किसीको आदर्श बना लेने के बाद उसका अनुगमन करने के बजाय उसकी पूजा करना अधिक सहूलियतवाला होता है। इसतरह पूजाघर से निकलने के बाद लोग फिर अपने मूल व्यक्तित्व के साथ दुनियावी तामझाम से अपने तरीके से निपटने के लिए आज़ाद होते हैं।
इन बातों को अधोरेखित करती दोस्तोवस्की की यह कहानी मुझे इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि इसमें उन्होंने लोगों की एक और आम मानसिकता पर प्रकाश डाला है। वह यह, कि लोगों को लगता है कि भगवान को मनाने से उसके प्रतिनिधि को मनाना आसान होता है। भगवान तो एडजस्ट करने से रहे, सो एजेंट से ही ले-देकर बेडा पार करवा लेने में ही समझदारी है।
दुनियावी झमेलों में भगवान खुद पड़ते होंगे इस बारे में भी लोग शायद हमेशा से सशंकित रहे हैं। इसलिए भी भगवान के प्रतिनिधियों की ज़्यादा पूछ होती है। लोग भगवान को मंदिरों में तो पहचान सकते हैं, प्रत्यक्ष सामना होने पर पहचानना उनके लिए असुविधाजनक होता है।
बहरहाल, मानव मन की जो बारीकियां यहां व्यक्त हैं उनसे आए दिन हम सब दो-चार होते ही रहते हैं। श्रद्धा की कमी और ढ़कोसलों पर जोर देकर ज़्यादातर मन खुश होते हैं कि हमने सही रीत निभा दी। लेकिन क्या रस्म-रीत निभाना ही भगवान को जानना है? यह कहानी हमारे मन को सोच की इस राह पर ठेलती है।