शनिवार, 28 अप्रैल 2012

एकाग्रता

-संध्या पेडणेकर
जेन गुरु बोकोजू अपने शिष्यों को ध्यान सिखाने के लिए जो तरीके अपनाते थे वे लोगों को अजीबोगरीब लगते थे।
एक बार एक राजकुमार उनसे शिक्षा लेने आया। बोकोजू ने उससे एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ने को कहा।
अब तक उस राजकुमार की ज़िंदगी राजमहल में ही बीती थी। पेड़ की ऊंचाई देखकर वह डर गया।
उसने बोकोजू से कहा, 'मैं पेड़ पर चढ़ना नहीं जानता। गिर जाऊंगा तो?'
उसे समझाते हुए बोकोजू ने कहा, 'पेड़ पर चढ़ना जाननेवालों को मैंने कभी कभार गिरते देखा है, लेकिन पेड़ पर चढ़ना नहीं जाननेवालों को कभी गिरते नहीं देखा। तुझे चढ़ना आता नहीं सो निश्चिंत भाव से तू चढ़।'
कोई अन्य चारा न देख कर राजकुमार पेड़ पर चढ़ने लगा।
सौ-सवा सौ फीट ऊंचा पेड़ था। गुरु की आज्ञा थी कि आखिरी छोर तक चढ़ना है। संभल संभल कर राजकुमार चढ़ने लगा। चढ़ता रहा।
उसे लगा था कि गुरु उसे निर्देश देंगे, कुछ मार्गदर्शन करेंगे। पर जब जब उसकी नड़र नीचे की तरफ जाती वह देखता किगुरु का उसकी तरफ ध्यान ही नहीं है।
ऊपर कगार तक पहुंच कर वह नीचे उतरने लगा गुरु तब भी आंखें बंद किए बैठे थे।
राजकुमार जैसे ही बीस-पच्चीस फूट की ऊंचाई तक पहुंचा गुरु चौंक कर उठे और निर्देश दिया कि, जरा सावधानी से उतरना।
राजकुमार नीचे उतर आया और उसने गुरु से पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया?
गुरु ने कहा, 'मैंने तुझे तभी चेतावनी दी जब तू निश्चिंत हो गया। जब तुझे लगा कि जमीन करीब आ गई तभी तू चूक सकता था। पेड़ की चोटी पर था तब तू खुद चौकन्ना था। उस समय तुझे मेरी ज़रूरत नहीं थी। मुझे जब लगा कि अब जमीन करीब है और तुझसे चूक हो सकती है तभी मैंने तुझे आवाज दी।'
राजकुमार को याद आया, गुरु सच ही तो कह रहे हैं। पे़ड़ पर चढ़ते वक्त, चोटी पर पहुंचने से पहले और बाद में उतरने की शुरुआत करने तक वह बहुत ही चौकन्ना था। जमीन पास दिखने लगी, तो उसका ध्यान हटने लगा था। गुरु से क्या और कैसे पूछना है इस बात को लेकर उसके मन ने मोर्चा बांधना शुरू ही किया था कि गुरू की चेतावनी भरी आवाज उसके कानों से टकराई थी और वह फिर से चौकन्ना हो गया था।
गुरु के प्रति उसकी शिकायत दूर हो गई और वह उनका ऋणी हुआ।
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काम जब तक कठिन होता है तब तक हमारा मन पूरी एकाग्रता के साथ उसे पूरा करने के लिए प्रयत्नरत रहता है। जब उसे लगता है कि काम बस पूरा होने में है तो वह आश्वस्त हो जाता है और उसकी एकाग्रता भंग हो जाती है। एकाग्रता के बगैर सफलता संभव नहीं। काम का हाथी भले आपने पार करा दिया हो, उसकी पूंछ आपकी एकाग्रता के अभाव में काम बिगाड सकती है। और मन हर किसीका आवारा ही होता है, उसे एकाग्र रखना बेहद कठिन है। 
मराठी की संत कवयित्री बहिणाबाई कह गई हैं - 
"मन वढाय वढाय उभ्या पीकातलं ढोर
किती हाकला हाकला फिरी येतं पिकांवर
    मन मोकाट मोकाट त्याले ठायी ठायी वाटा
         जशा वार्यानं चालल्या पानावर्हल्यारे लाटा....."
(हिंदी में शब्दार्थ - मन बड़ा चंचल होता है, खडी फसल में घुसे मवेशी की तरह। कितना भी भगाओ, वह फिर फिर फसल में घुस आता है। मन की कई राहें होती हैं। वह कहां कहां की सैर कर आएगा इसका कोई भरोसा नहीं। शांत पानी पर हवा से उठती चंचल लहरों की तरह होता है मन।) 
मन के बारे में बहिणाबाई एक और जगह कहती हैं कि मन बड़ा ठग होता है। वह इंद्र को ठगता है, ब्रह्म की अवमानना करता है! औरों को धोखा देते देते वह खुद को भी धोखा देने लगता है और अपने ही धोखे के झांसे में भी आ जाता है।
ऐसे मन को वश में करना और एकाग्र रखना बेहद कठिन काम है। लेकिन असाध्य नहीं। मन को साधना से एकाग्र किया जा सकता है और इस काम में सतगुरु हमारी मदद करते हैं। इसीलिए बहिणाबाई कहती हैं,
"बहेणि म्हणे मना सांडी रे मीपण। होय तूं शरण सद्गुरूसी ।।" 
(हिंदी में शब्दार्थ - बहिणाबाई कहती हैं कि रे मन, अहं छोड़ और गुरु की शरण चला जा।)
और गुरु वह नहीं जो पग पग पर आपको नसीहतें देता रहे। गुरू वह जो बोकोजू की तरह समय पर आपको चेताए। आपके जीवन की नैय्या को पार लगा दे।