शनिवार, 21 अप्रैल 2012

ब्रह्मज्ञान की परीक्षा

-संध्या पेडणेकर
एक बार की बात है। आदि शंकराचार्य स्नान के लिए गंगाजी की ओर जा रहे थे। एक चांडाल अपने चार कुत्तों के साथ रास्ता घेरे हुए बैठा था। उसे देखते ही शंकराचार्य ने ऊंचे स्वर में कहा, 'दूर हटो! दूर हटो!' 
उनकी बात सुन कर भी चांडाल अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ। उसने शंकराचार्य से कहा, "हे महात्मन्! वेदांत के द्वारा आप ब्रह्म और जीव की एकता का प्रतिपादन करते हैं। एक ओर तो आप कहते हैं कि ब्रह्म एक है जो सत्, चित्, आनंद, दोषरहित, असंग, अखंड, आकाश की तरह व्यापक और निर्लेप है और दूसरी ओर आप उसी अद्वैत ब्रह्म में भेद की कल्पना भी कर लेते हैं। मैं पवित्र ब्राह्मण हूं और तुम चांडाल हो, अतः दूर हटो, यह आपका आग्रह कैसा? बताइए, मेरा यह भौतिक शरीर आपके भौतिक शरीर से दूर हो या फिर इन भौतिक शरीरों में व्याप्त आत्मा एक-दूसरे से दूर हो? समस्त शरीरों में स्थित ब्रह्म की आप अवहेलना कर रहे हैं, महात्मन!"
चांडाल की बात ने आचार्य शंकर को सोचने पर मजबूर किया। उन्हें अपनी गलती समझ में आ गई। उन्होंने चांडाल से कहा कि, आप आत्मज्ञानी हैं। आपका कथन पूरी तरह सत्य है।
इसके बाद आचार्य शंकर ने जिन श्लोकों से चांडाल की स्तुति की वे 'मनीषा पंचक' के नाम से प्रसिद्ध हैं। संक्षेप में मनीषा पंचक में जो कहा है वह इसप्रकार है - मैं ब्रह्म ही हूं और समस्त जगत् भी ब्रह्मरूप है ऐसी जिसकी दृढ़ मान्यता है वह चांडाल हो या ब्राह्मण, वह मेरा गुरू है। 

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'मनीषा पंचक' के बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर मिल सकती है -
http://www.bhagavadgitausa.com/HYMNS%20OF%20SANKARA.htm
यू-ट्यूब पर इस प्रसंग का वीडियो देखने के लिए लिंक है-
http://www.youtube.com/watch?v=Ewta7YJCmyw
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भ्रम होना और भ्रम के कारण भूल होना मानव होने के नाते सहज है। श्रेष्ठ मानव वही है जो अपनी भूल का अहसास होने पर उसे सुधारने के लिए प्रस्तुत हो।
आखिर, एक मानव को दूसरे से श्रेष्ठ या कनिष्ठ ठहराना कहां तक तर्कसंगत या मानवीय है? जाति के आधार पर भेदभाव करना सर्वथः गलत और इसीलिए निषेधार्ह है।
अपनी भूल का अहसास होने के बाद किसी भी अहं का शिकार हुए बिना उसे सुधारना मानवोचित है।