-संध्या पेडणेकर
एक योगी के पास एक युवक आया।
बोला, 'बड़ी दूर से आस लेकर आया हूं। आप मेरा मोक्ष के मार्ग पर मार्गदर्शन करें।'
योगी ने उससे पूछा, 'श्रद्धा है? तभी तुम सत्य को सम्हाल पाओगे।'
युवक ने कहा, 'परिपूर्ण श्रद्धा लेकर आया हूं। जो कहेंगे, स्वीकार करूंगा।'
युवक ने कहा, 'परिपूर्ण श्रद्धा लेकर आया हूं। जो कहेंगे, स्वीकार करूंगा।'
योगी ने कहा, 'अभी तो मैं कुएं पर पानी भरने जा रहा हूं। मेरे पीछे आओ। मैं जो करूं उसका निरीक्षण करना। प्रश्न मत उठाना। श्रद्धा रखना।'
युवक ने सोचा, 'इसमें क्या कठिनाई है!' वह योगी के पीछे हो लिया।
योगी ने कुएं की मेंड पर एक घडा रखा। युवक थोड़ा हैरान हुआ क्योंकि उस घडे में पेंदी नहीं थी।
दूसरा साबुत घडा रस्सी में बांध कर योगी ने कुएं में डाला। पानी भरा, ऊपर खींचा और बिन पेंदी के घडे में उंडेला। बिन पेंदी के घडे से सारा पानी बह गया। योगी ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। उसने फिर घड़ा कुएं में डाला, पानी भरा और खींच कर बिन पेंदी के घड़े में उंडेला।
दूसरा साबुत घडा रस्सी में बांध कर योगी ने कुएं में डाला। पानी भरा, ऊपर खींचा और बिन पेंदी के घडे में उंडेला। बिन पेंदी के घडे से सारा पानी बह गया। योगी ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। उसने फिर घड़ा कुएं में डाला, पानी भरा और खींच कर बिन पेंदी के घड़े में उंडेला।
एक बार, दो बार, तीन बार.....
युवक ने सोचा, यह आदमी शायद पागल है। सारा पानी बहा जा रहा है और यह बिना देखे उंडेले जा रहा है। बिन पेंदी के पात्र में पानी भरे तो कैसे?
चौथी बार युवक भूल गया कि उसे चुप रहना है। उसने पूछ ही लिया, 'ऐसे तो यह पात्र भरने से रहा। इसमें पेंदी कहां है?'
युवक ने सोचा, यह आदमी शायद पागल है। सारा पानी बहा जा रहा है और यह बिना देखे उंडेले जा रहा है। बिन पेंदी के पात्र में पानी भरे तो कैसे?
चौथी बार युवक भूल गया कि उसे चुप रहना है। उसने पूछ ही लिया, 'ऐसे तो यह पात्र भरने से रहा। इसमें पेंदी कहां है?'
योगी ने कहा, 'बस! खतम हो गया संबंध। कहा था श्रद्धा रखना। चुप रहना। पेंदी से हमें क्या लेना-देना? हमें तो घडे में पानी भरना है। पेंदी से क्या प्रयोजन? सतह पर मेरा बराबर ध्यान है....'
युवक बोला, 'मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि आप क्या कर रहे हैं।'
योगी ने कहा, 'जाओ। दुबारा इस तरफ मत आना। पहली ही परीक्षा में असफल हो गए। अभी तो और बड़े इम्तहान आने को थे।'
युवक लौट गया।
लेकिन बड़ा परेशान रहा।
उसने अपना चैन खोया। न सो पाए, न खा पाए।
उसने सोचा, इतनी सी बात तो किसी मूढ़ को भी समझ में आ जाती। ज़रूर इस आदमी का कोई और प्रयोजन था। मुझे चुप खड़े रहना चाहिए था। आखिर कितनी देर तक यह चलता? मैंने जल्दी की। मैं चूक गया।
उसने सोचा, इतनी सी बात तो किसी मूढ़ को भी समझ में आ जाती। ज़रूर इस आदमी का कोई और प्रयोजन था। मुझे चुप खड़े रहना चाहिए था। आखिर कितनी देर तक यह चलता? मैंने जल्दी की। मैं चूक गया।
दूसरे दिन युवक वापिस लौट आया। उसने योगी से क्षमा मांगी।
योगी ने कहा, 'जितनी समझदारी तुम मुझे बता रहे हो उतनी अगर अपनी ज़िंदगी के साथ बरतते तो तुम्हें मेरे पास आने की ज़रूरत नहीं पड़ती। इशारा बस उतना ही था। जिस पात्र में पेंदी ना हो उसे भरा नहीं जा सकता। वासनाएं-कामनाएं तूने इतने दिनों से भरीं, क्या अब तक शरीर का पात्र लबालब भर पाया? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसमें पेंदी ही नहीं?'
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शरीर के इस पात्र की पेंदी नहीं।
अहं का कोई अंत नहीं।
अहं का कोई अंत नहीं।
भोग से इस शरीर रूपी पात्र को जितना भरते जाएंगे उतना ही उसे खाली पाएंगे। लेकिन लालसा में अंधा मन इस बात से अनजान है। कामनापूर्ति के कितने ही घड़े आप इस बिन पेंदी के अतृप्त शरीर रूपी पात्र में उंडेलिए वह खाली का खाली रहेगा। 'और... और' की उसकी मांग कभी खत्म नहीं होगी।
हमारा अहं हमें इस बात से हमेशा थपकता रहता है कि जो तू जानता है वही सच है। अंतिम सत्य वही है। दंभ हर जीव को होता है कि सभी कार्यों का कारण वह जानता है। हाथी और अंधों की कथा हम सब जानते हैं, लेकिन अपने सत्य की लकीर पीटने से किसीको मुक्ति नहीं।
बिरले ही होते हैं जिनमें गुरु की कृपा से विवेक जागता है और बताता है कि -
शरीर के इस पात्र की पेंदी नहीं।
अहं का कोई अंत नहीं।
अहं का कोई अंत नहीं।
और
इन दोनों पतवारों के सहारे खेई जानेवाली नाव का
कोई किनारा नहीं।
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