सोमवार, 30 अप्रैल 2012

इंद्र-वृत्रासुर युद्ध

-संध्या पेडणेकर
बारबार होनेवाले आपसी युद्धों से देव और दानव छुटकारा पाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक समझौता किया। 
दोनों पक्षों ने तय किया कि वे अपने शस्त्र दधीचि ऋषि के आश्रम में रखेंगे। महर्षि दधीचि ने अपने तपोबल से उन अस्त्रों को पानी में बदला और पी गए। इससे उनकी हड्डियां अभेद्य हुईं। 
लेकिन दानव ज्यादा समय तक बिना युद्ध के नहीं रह सके। जैसे ही पहले युद्ध से आई निर्बलता खत्म हुई वे फिर देवों से युद्ध का बहाना ढूंढ़ने लगे। 
इंद्र के हाथों विश्वरूप असुर का नाश हुआ तो उन्हें यह बहाना मिल गया। उन्होंने विश्वरूप के छोटे भाई वृत्रासुर के नेतृत्व में स्वर्ग पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इंद्र के सामने फिर युद्ध का संकट खडा हुआ। स्वर्ग की रक्षा के लिए वृत्रासुर को मारना जरूरी हो गया। लेकिन विश्वरूप की हत्या के कारण उसे सजा भुगतनी पडी थी क्योंकि वह ब्राह्मण था। अब उसके भाई की हत्या कर एक बार फिर ब्रह्महत्या के पातक की सजा वह भुगतना नहीं चाहता था। 
अपनी समस्या लेकर इंद्र ब्रह्माजी से सलाह लेने गया। 
तब बह्मा ने उसे समझाया, "देवराज, अगर कोई आपकी हत्या करने के उद्देश्य से आप पर हमला कर रहा हो तो फिर वह ब्राह्मण ही क्यों न हो, आत्मरक्षा के लिए उसे मारने में कोई दोष नहीं है। फिर आप तो ब्रह्मांड की रक्षा के लिए युद्ध करेंगे।"
ब्रह्मा की दलील सुन कर इंद्र आश्वस्त हो गया। 
उसने दधीचि की हड्डियों से बने अस्त्र का प्रयोग कर असुरों का नाश किया। 
इस घटना ने देवों को एक और सबक सिखाया, - स्वार्थसिद्धी के लिए अपने निर्णयों को बिना हिचक बदलनेवाले  धूर्त और कपटी लोगों का कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए।
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लड़ना जीव का स्थायीभाव नहीं। लेकिन कई बार अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए लड़ाई अवश्यंभावी हो जाती है।
सारासार विचार के बाद विवेकपूर्ण निर्णय लेना और स्वार्थसिद्धि के लिए गिरगिट की तरह तुरंत-फुरंत रंग बदलने में बहुत फर्क है।
लेकिन जीवन में कई बार ऐसे संकट आते हैं जब सोच-समझ कर लिए गए निर्णयों को भी बदलना पड़ता है। नैतिकता की नीव पर खड़ी निर्णयों की इमारत को बदलना बहुत कठिन होता है।
बचपन में हमारे गुरुजी हमें नैतिकता के आधार पर निर्णय लेने के संदर्भ में एक उदाहरण सुनाया करते थे। एक गाय दौडते हुए आपके सामने से गुजरती है और अगले मोड पर दाहिनी तरफ मुड कर आगे निकल जाती है। कुछेक मिनटों में ही एक जल्लाद हाथ में बडा छुरा लेकर दनदनाता हुआ आकर आपके सामने रुकता है। उसे देखते ही उसके इरादे आप जान जाते हैं। मोड पर आप खड़े हैं और वह आकर आपसे पूछे कि अभी अभी एक गाय दौडती हुई यहां से गुजरी थी, बताइए तो, वह किस ओर गई? आप क्या जवाब देंगे?
आपके सही जवाब देने से एक निरपराध जीव की हत्या होगी और अप्रत्यक्ष रूप से आप उस हत्या के लिए जिम्मेदार होंगे। उस जीव को बचाने के लिए आपको झूठ बोलना होगा, लेकिन झूठ बोलना तो सिरे से नैतिकता के खिलाफ है।
ऐसे समय आप अपने विवेक के सहारे क्या निर्णय लेंगे
इस उदाहरण में स्थितियां बेहद स्थूल रूप से सामने रखी गई हैं। जीवन के रण में स्थितियां कई बार सूक्ष्म होती हैं और उनसे निपटना बहुत आसान नहीं होता क्योंकि उनके साथ व्यक्ति के छोटे-बडे स्वार्थ भी जुड़े रहते हैं। 
सब्जी-फल बेचनेवाले से प्लास्टिक की थैलियों में सब्जी और फल खरीद लाएं या पर्यावरण की रक्षा को ध्यान में रखते हुए सूती थैली का इस्तेमाल करें, चौबीस घंटे पानी की आपूर्ति होती है इसलिए अंट-शंट पानी का इस्तेमाल करें या प्राकृतिक साधनसंपत्ति होने के काऱण पानी का योग्य इस्तेमाल करें जैसी बातों से लेकर अच्छा रिश्ता पाने के लिए दहेज देकर लड़का खरीदें (और उसके साथ उसका लालच, जो आगे चल कर आपकी लाडली के लिए जानलेवा संकट बन सकता है) या उसूलों पर चलनेवाले साधारण लड़के को दामाद बनाएं जैसी कई समस्याओं से लोगों का रोजमर्रा सामना होता ही रहता है।
पाप-पुण्य के बारे में धारणाएं बदलती रहती हैं, बदलती रही हैं। इसलिए, अपनी विवेकबुद्धि के सहारे ही जीवन की हर छोटी-बड़ी समस्या से संबंधीत निर्णय लेना तर्कसंगत होता है। 
इस कहानी में देवों की रक्षा के लिए दधीची को अपनी हड्डियां देनी पड़ीं। महत्तर उद्देश्य के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने में उन्हें कोई हिचक नहीं हुई लेकिन सालों के बाद उनका पुत्र जब जवान हुआ तो उसे पिता को इस कारण खोने का दुख नागवार गुजरा। उसने इंद्र से बदला लेने की सोची। क्या उसका निर्णय सही था?