सोमवार, 16 अप्रैल 2012

दूसरों के लिए अच्छा सोचो


-संध्या पेडणेकर
वैसे तो नारद ब्रह्मचारी हैं लेकिन एक बार श्रीमती पर उनकी नजर पडी और वह उस पर लट्टू हुए। श्रीमती से शादी करने की इच्छा उनके मन में पैदा हुई। 
तुंबरू ने श्रीमती को देखा तो संयोगवश कहिए या दुर्भाग्यवश, उनके मन में भी यही इच्छा पैदा हुई।
दोनों को एक दूसरे की इच्छा के बारे में पता चला तो उन्होंने एक दूसरे को मात देने की ठान ली। दोनों भगवान विष्णु के भक्त थे। 
नारद ने अपने आराध्य से कहा कि श्रीमती के स्वयंवर में तुंबरू हिस्सा लेने आए तो उसका चेहरा भालू का बन जाए। 
तुंबरू ने विष्णू से कहा कि नारद का चेहरा ऐन समंय पर बंदर का बन जाए। 
भगवान विष्णु को बडा मजा आ रहा था। उन्होंने सोचा कि मैं भी चल कर देखूं कि इन दोनों का क्या हाल होता है। 
स्वयंवर के समय हाथ में माला लेकर जब श्रीमती स्वयंवर में उपस्थित वर देख रही थी तो कतार में आखिर छोर पर खडे नारद और तुंबरू पर उसकी नजर पडी। दोनों बडे रौबिले लग रहे थे। 
सभी वरों को पार कर वह उनके पास पहुंची तो देखा कि एक का चेहरा भालू का है और दूसरे का बंदर का। 
वह सहम गई। 
तभी विष्णू पर उसकी नजर पडी। आदमी का चेहरा देख कर उसने राहत की सांस ली और विष्णु के गले में वरमाला पहना दी। 
बाद में हुआ यूं कि, नारद खुश थे, क्योंकि तुंबरू को श्रीमती नहीं मिली और तुंबरू खुश थे, क्योंकि नारद को श्रीमती नहीं मिली। इसतरह, दूसरों का बुरा चाहनेवालों को खुद का नुकसान झेलना पडता है।
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आखिर अपने नुकसान की कामना कोई करे ही क्यों? 
कहते हैं दूसरों की तरफ एक उंगली दिखाते हैं तब बाकी चार उंगलियां अपनी तरफ ही इशारा करती हैं। कहते यह भी हैं कि जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदते हैं वे खुद गड्ढे में गिर जाते हैं। ऐसी एक नहीं कई बातें रुढ़ हैं लेकिन....
लेकिन जब सिर पर किसी और का बुरा करने की कामना छा जाती है तब ज्ञान के ये सभी विचार-मौक्तिक इंसान को याद नहीं आते। तब बस यही बात भूत की तरह सिर पर सवार रहती है कि भले अपना थोड़ा नुकसान क्यों न हो, दूसरे का भला किसी कीमत पर नहीं होना चाहिए। बैर की कई कहानियां ऐसी ही दुर्भावना के साथ पैदा होती हैं और रौद्र से भीषण और बीभत्स रूप धारण करती जाती हैं। दूसरों का अहित चाहते हुए आदमी एक तरह से अपने अहित की ही कामना करता है।
समय रहते ऐसी भावनाओं पर अंकुश लगाना विवेकवान व्यक्ति का लक्षण है। अपना फायदा न हो न सही, अहित किसीका न हो यह भावना जितनी परपोषक है उससे कहीं ज़्यादा स्वपोषक है। सबके हित की कामना करते हुए परोक्ष रूप से हम अपने हित की भी कामना करते रहते हैं। ऐसी प्रार्थना से आत्मा को जो ऊर्जा मिलती है वह किसी भी भौतिक लाभ से निर्विवाद रूप से कई गुना  अच्छी होती है। ऐसी ऊर्जा सही मायने में व्यक्ति को संपन्न बनाती है। इसलिए, 
अच्छा सोचो, अच्छा पाओ।