मंगलवार, 29 मई 2012

क्षमा

-संध्या पेडणेकर
महाभारत युद्ध के बाद अश्वत्थामा ने रात में पांडवों के शिविर में आग लगा दी।
जिन्होंने भागने की कोशिश की उन सबको चुन चुन कर बाणों से मार डाला।
महाभारत युद्ध से बची सेना मारी गई। उस दिन युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद पांडवों को और सात्यकी को लेकर कृष्ण कहीं चले गए थे। अब पांडवों की सेना में केवल उतने ही लोग बचे थे।
सुबह लौटने के बाद पांडवों ने देखा कि शिविर और युद्धभूमि अधजली लाशों से पटी पड़ी है।
महारानी द्रौपदी के पांचों पुत्रों के शव भी क्षत-विक्षत पड़े थे। द्रौपदी की व्यथा का पार नहीं था।
अर्जुन ने उन्हें धैर्य बंधाया और कहा, 'इनके हत्यारे अश्वत्थामा का कटा सिर देखने के बाद ही आज तुम स्नान करना।'
इतना कह कर अपने रथ में बैठ कर कृष्ण के साथ अर्जुन अश्वत्थामा की खोज में निकल गए।
अर्जुन को देख कर अश्वत्थामा भागा लेकिन अर्जुन ने उसे पकड़ कर बांध दिया। उसे बंदी बना कर अर्जुन ने द्रौपदी के सामने खड़ा किया।
अश्वत्थामा पर नज़र पड़ते ही भीम ने कहा, 'इसे तो तत्काल मार डालना चाहिए।'
सबका गुस्सा उफान पर था लेकिन द्रौपदी ने सबको रोक कर कहा, 'मेरे पुत्र मारे गए हैं इसलिए, पुत्र की मृत्यु का  शोक  क्या होता है मैं जानती हूं। इसकी माता कृपी हमारी गुरुपत्नी है। उसके भी मेरी तरह पुत्र वियोग का दुख नहीं होना चाहिए। अपने गुरु को जिसने हमें अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाया उन गुरुदेव द्रोणाचार्य को को हम उनके इस पुत्र में उपस्थित पाते हैं। इसके साथ हम निष्ठुर नहीं हो सकते। छोड़ दो इसे।'
जिनके पांच मृत पुत्रों के शव सामने पड़े हों, उन पुत्रों के हत्यारे के प्रति द्रौपदी की क्षमा धन्य है।
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क्रोध क्षणिक पागलपन है।
ऐसे पागलपन में व्यक्ति कभीकभार अश्वत्थामा की तरह जघन्य कृत्य भी कर गुजरता है। 
क्रोध का बुखार उतर जाए तो माफी माँगना और माफी मांगनेवाले को माफ करना दोनों ही इंसानी व्यक्तित्व को परिपूर्ण बनाने वाले तत्व हैं। 
क्षमा को सभी धर्मों और संप्रदायों में श्रेष्ठ गुण करार दिया गया है। क्षमा माँगना अच्छा गुण है और किसी को क्षमा कर देना इंसान के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाता है। 
रहीम कहते हैं-
'क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात,
कहाँ रहीम हरि को घट्यो जो भृगु मारी लात' 
व्यक्तित्व का अद्भुत गुण है क्षमा।


मंगलवार, 22 मई 2012

मुक्ति का क्षण


-संध्या पेडणेकर
नागार्जुन फकीर थे। एक रानी को उनसे प्यार हुआ। एक दिन साहस करके नागार्जुन को अपने महल में आमंत्रित किया। वह उनका सान्निध्य चाहती ती और साथ ही उन्हें कुछ देना चाहती थी जिससे उनके अभाव नष्ट हो जाएं।
नागार्जुन ने उसका आमंत्रण स्वीकार किया और मेहमान बन कर वे उसके महल में गए।  
उनके आने से रानी को बहुत खुशी हुई। उसने उनका स्वागत किया और हर तरह से उनका खयाल रखा।
दिन ढ़लने को आया तो नागार्जुन लौटने लगे। तब रानी ने बड़ी विनम्रता से कहा, 'महाराज, मैं आपसे कुछ चाहती हूं।'
नागार्जुन ने पूछा कि वह क्या चाहती है?
रानी ने कहा, 'गर आप अपना भिक्षापात्र मुझे दे दें तो... '
नागार्जुन ने झट अपना भिक्षापात्र उसे दे दिया। तब रानी ने उन्हें एक रत्नजटित स्वर्णपात्र दिया। उसने नागार्जुन से कहा, उस पात्र के बदले आप यह पात्र रख लीजिए। मैं आपके भिक्षापात्र की हर रोज पूजा करूंगी।
राजमहल से निकलते ही नागार्जुन के हाथ के बहुमूल्य पात्र पर एक चोर की नज़र पड़ी। उसने सोचा, एकांत देख कर वह उनसे पात्र छीन लेगा। वह नागार्जुन के पीछे पीछे चलने लगा।
कुछ दूर चलने के बाद नागार्जुन ने उस पात्र को फेंक दिया।
चोर ने झट वह पात्र उठाया। उसे लगा, इतना बहुमूल्य पात्र इस आदमी ने यूंही फेंक दिया
! मुझे कम से कम उसका शुक्रिया अदा करना चाहिए।
सो आगे बढ़ कर उसने नागार्जुन को रोका। कहा,
महाराज! मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। आप जैसे लोग भी होते हैं इस पर पहले मेरा विश्वास नहीं था। क्या मैं आपके पैर छू सकता हूं?’
नागार्जुन ने हंस कर उससे कहा,ज़रूर।
चोर ने झुक कर नागार्जुन के पैर छुए और कृतज्ञता से भरे उसके हृदय में उस एक क्षण और उस छुटपुट स्पर्श से ऐसे भाव जागे कि वह व्याकुल हो उठा। उसने नागार्जुन से पूछा, बाबा, अगर मुझे आपके जैसे बनना हो तो कितने जन्म लेने पड़ेगे?’
नागार्जुन ने कहा,'कितने जन्म? तुम चाहो तो यह आज हो सकता है, अभी हो सकता है!'
चोर उस दिन, उस क्षण के बाद चोर नहीं रहा। वह नागार्जुन का शिष्य बन गया।
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हृदय पवित्र हो तो उद्धार का क्षण कभी फिसल नहीं जाता।
लगन लगे तो पार पाने में देर नहीं लगती।
कहते हैं, शरीर में जब तक एकाध सांस भी बाकी हो तब तक पापी को अपने पाप से उद्धार पाने की आस नहीं छोड़नी चाहिए और पुण्यावान को अपने पुण्य पर गुमान नहीं पालना चाहिए।
कौनसा पल क्या सौगात ले आए क्या पता।
मन चंगा रखें, बस।

शुक्रवार, 18 मई 2012

सीख


-संध्या पेडणेकर
एक आदमी के घर के आंगन में एक बडा पेड था।
पेड पूरे आंगन पर छाया हुआ था और घर पर भी उसकी छांव थी।
लेकिन उसके पडोसी का कहना था कि इस तरह घर और आंगन को घेरनेवाले पेड अशुभ होते हैं। उसके असर से घर में कुछ अशुभ घटे इससे पहले उसे काट देना चाहिए।
पडोसी की बातों में आकर उस व्यक्ति ने अपने आंगन का वह छायादार पेड काटा और चूल्हे में जलानेलायक उसके टुक़डे बनाएं।
पेड बहुत बडा था इसलिए उसकी आधी लकडियों से ही उस आदमी का घर भर गया।
तब उसका पडोसी मदद के बहाने बची हुई लक़डियां अपने घर ले गया। कुछ दिनों बाद उस आदमी को लगा कि अपने लिए लकडियों का इंतजाम करने के लिए ही पडोसी ने उसे पेड काटने की सलाह दी थी।
वह बडा दुखी हुआ।
गांव के एक बुजुर्ग से उसने सारी बात कही और पूछा कि क्या उससे कोई गलती हुई है?  क्या बडे पेड दुर्भाग्य का कारण होते हैं?
बुजुर्ग ने मुस्कुराकर कहा, 'पेड सचमुच दुर्भाग्यशाली था क्योंकि वह एक मूर्ख के आंगन में उगा था। इसीलिए वह कटा और अब उसे जलाया भी जाएगा।'
वह व्यक्ति अपनी गलती पर रोने लगा।
तो बुजुर्ग ने कहा, 'गलतियां इंसान से होती ही हैं। कोई बात नही, तसल्ली रखो कि अब तुम मूर्ख नहीं रहे। एक पेड खोकर ही सही तुमने जाना कि किसीकी सलाह पर तभी अमल करना चाहिए जब सलाह देनेवाले का उद्देश्य पता हो, सलाह ठीक से समझ में आए और तुम खुद भी उससे सहमत हों। ये बातें ध्यान में रखोगे तो आगे ऐसी गलती नहीं होगी।'
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बड़ी बड़ी हस्तियों ने बहुत कुछ खोया है हल्के कानों की बदौलत।
किस बात पर व्यक्ति झपटता हैं? और कब?
हम उन बातों पर झपटते हैं जो हमारे शक का पहनावा ओढ़कर आती हैं।
हमारी सुप्त इच्छाएं लफ्जों में व्यक्त होती हैं तो हम उनका यकीन कर लेते हैं।
और जब अपनी राय पक्की नहीं होती तो औरों की बेसिर-पैर की दलीलें हमें सच लगने लगती हैं।
और तब, जब हमारे डर शब्दों की शक्ल लेकर दबे पांव हाजिर होते हैं।
झपट लेते हैं हम जो भी जानकारी जिस भी दिशा से आए और जज़्ब कर लेते हैं।
हमारा विवेक भी गोया उतनी देर तक मजे लेता रहता है कि देखो कैसे उल्लू बन रहा है।
खुद हमें यकीन होता है कि ये सच नहीं है, लेकिन.....
फिर मिट्टी के गणपति दूध पीने लगते हैं...
बिल्ली का राह काटना अखरने लगता है...
किसीके जीभ पर बैठा पैदाइशी काला तिल उसे कालीजुबानवाला बना देता है....
सुबह सवेरे विधवा का मुंह देखना अपशगुनी होने लगता है...
शनीचर को नाखून काटना दुर्भाग्य को न्यौतना लगता है...  
और इन कमजोरियों को भुनानेवालों के बाजार में उछाल आ जाता है।
सौ बातों की एक बात,
किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले अपने विवेक का दामन थाम कर स्थितियों पर गौर कर लेना बेहतर होता है। अकल पर पड़ा परदा तब कमजोरी पर सरकाया जा सकता है।  
... क्योंकि चिड़िया खेत चुग जाए तो पछताने से कुछ नहीं होता।
....जो कुछ गंवाते हैं सब अकलखाते में जमा हो जाता।

गुरुवार, 17 मई 2012

लिंकन का परोपकार


-संध्या पेडणेकर
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन बहुत दयालु थे।
एक बार वह अपने मित्र के साथ एक सभा में जा रहे थे।
रास्ते में उन्होंने देखा कि सुअर का एक पिल्ला कीचड़ भरे गड्‌ढे में फंसा है और तडप रहा है।
लिंकन ने बग्घी रुकवाई और गड्‌ढे में उतरकर उसे कीचड से बाहर निकाला।
इस कोशिश में उनके कपडे गंदे हो गए और सभा के लिए थोडी देर भी हो गई।
उन्होंने वहीं से पानी लेकर हात-पैर साफ किए और बिना कपडे बदले वह सभा में चले गए।
उनके गंदे कपडे देख कर हर कोई उनके मित्र से उसकी वजह पूछता।
सभा जब प्रारंभ हुई तब उनका परिचय कराते हुए आयोजक ने बताया, लिंकनसाहब इतने दयालु हैं कि कीचड मं फंसे सूअर के एक बच्चे की तडप वह सह नहीं सके, उसे कीचड से निकाला तभी उन्हें संतोष मिला।
लिंकन ने खडे होकर उनकी बात को दुरुस्त किया,  कहा कि, आप लोगों को गलतफहमी हुई है। पिल्ला तडप रहा था इसलिए नहीं वरन्‌ उसे तडपता देख कर मुझे दुख हो रहा था इसलिए मैंने उसे बाहर निकाला। जो कुछ भी किया मैंने अपने लिए किया।
परोपकार को भी स्वान्तःसुखाय बतानेवाले लिंकन महान थे।
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किसीको भी दया का पात्र न समझो।
हम किसी और से ऊपर नहीं।
दान इसलिए न दो कि पानेवाला ज़रूरतमंद है।
गौर करें,
दान में भी पुण्य कमाने की वृत्ति हमने पाल ली है।
बिना स्वार्थ के हम कुछ नहीं करते।
क्या कभी कोई बात हम औरों के लिए भी करते हैं?
करते भी हैं तो क्या उसे जताने से चूकते हैं?
कडी घाम में प्यासों की प्यास मिटाना कितना बड़ा पुण्यकार्य है...
इस पुण्य का श्रेय पाने के लिए प्याऊ पर हम अपना या पुरखों का नाम चस्पां करते हैं।
मंदिर में सीढ़ियां बनाने के लिए दिए दान का ऐलान सीढ़ियों के पट्ट पर करते हैं।
यहां तक कि भगवान की मूर्ति गढवाने में लगी रकम का श्रेय बटोरने से भी नहीं चूकते।
बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं, दान ऐसे दो कि इस हाथ का दिया उस हथ को पता न चले।
दान देनेवाले को अहंकार न हो, और
दान लेनेवाले को कुंठा न हो...
अव्वल तो किसी के लिए कुछ करो ही मत
और अगर करो तो यूं कि गोया अपने लिए किया हो।

बुधवार, 16 मई 2012

बहुरूपी


-संध्या पेडणेकर
एक बार एक राजा के दरबार में एक बहुरुपिया आया और उसने पांच मुद्राओं की याचना की।
राजा ने कहा, 'तुम अगर बहुरुपिये हो तो अपनी कला का नमूना दिखाओ। हम तुम्हें पुरस्कार देंगे, दान नहीं!
लेकिन, राजा की बात सुन कर बहुरुपिया उनके दरबार से चला गया।
शहर से बाहर बने एक मंदिर के सामने दूसरे दिन वह तड़के से ही एक साधु का वेष धारण करके बैठा रहा। ढोर चराने आए चरवाहों ने साधु को देखा तो उनका वंदन किया। फिर कहा, 'महाराज, हमें आशिर्वाद दें।'
लेकिन साधु आंखें मूंदें अपनी ध्यानधारणा में लीन रहा।
चरवाहों ने साधु के आगमन की बात गांव में जाकर सभी को बता दी। दूसरे दिन शहर के तमाम लोग, दरबारी दान और फल-फूल लेकर साधु के आशिर्वाद लेने पहुंचे। साधु ने तब भी आंखें नहीं खोलीं, न दान में मिली चीजों को छुआ।
शाम तक राजा के कानों में महान साधु के आगमन की बात पहुंची। वह भी धन-रत्न-धान्य आदि लेकर साधु के दर्शन के लिए आ पहुंचा। हाथ जोड कर अनुनय करता रहा लेकिन साधु ने राजा पर भी कृपा नहीं की।
लौटते समय राजा ने अपने दरबारियों को आज्ञा दी कि सुबह सवेरे ही दरबार में वे उपस्थित हों। महान साधु को किसी तरह की कोई दिक्कत न हो इसलिए राज्य की तरफ से क्या किया जा सकता है इसपर वह उनके साथ विचार-विमर्ष करना चाहता था।
दूसरे दिन दरबार का कामकाज शुरू होते होते बहुरूपिया फिर उपस्थित हुआ।
उसने राजा से कहा, 'शहर से बाहर बैठे जिस महान साधु की कृपा के लिए आप पहुंचे थे वह मैं ही था। मैंने अपनी कला दिखा दी इसलिए मुझे पांच मुद्राएं दान में दे।'
राजा ने पूछा, 'कल तुम्हारे सामने वैभव का ढेर लगा था, तब तुमने उसमें से कुछ क्यों नहीं लिया?'
सुन कर मुस्कुराते हुए बहुरूपिए ने कहा, ' महाराज, कल मैं महान साधु था, अगर मैं दान स्वीकारता तो मेरी कला की गरिमा खो जाती। फिर मुझे पांच मुद्राओं की अपेक्षा थी, इतना धन लेकर मैं क्या करता!' उसकी बात सुन कर राजा को यकीन हुआ कि वह महान कलाकार ही नहीं महान व्यक्ति भी है।
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महान कौन?
ज़रूरतें तो क्षितिज सी हैं, असीम। उन पर अंकुश लगाना लगभग नामुमकिन।
लगे कि ये आईं नियंत्रण में,
फिर लगे कि, भुलावा था।
फिर, किस किस की ज़रूरतें पूरी करें?
माता-पिता, बीबी-बच्चे, पडोसी, नाते-रिश्तेदार, जान-पहचानवाले...
और मैं स्वयं...
अनंत है माया का जाल।
इससे आपा बचा कर गुजर सके वही श्रेष्ठ जीव।
पांच मुद्राओं की ज़रूरत है, पांच ही लें
पचास मिल रही हैं तब भी पांच ही लें।
संभव है?
जमाना तो ऐसा कि, पांच की ज़रूरत सोच कर निकलें और
पता चले कि उसी के दाम पचास हुए हैं इस दौरान।
साईं से तो हमें एक भंडार ही मांगना होगा
ताकि हम भी भूखे ना रहें, साधू न भूखा जाए...
और नहीं तो क्या!

मंगलवार, 15 मई 2012

सबका कल्याण ही है सच्चा धर्म

-संध्या पेडणेकर
रामानुजाचार्य को उनके गुरु ने अष्टाक्षरी मंत्र का उपदेश दिया और कहा, 'वत्स, यह कल्याणकारी मंत्र जिसके भी कान में पड़ता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। वह मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। इसलिए इसे अत्यंत गोपनीय माना जाता है। तुम भी इसे कभी किसी अनधिकारी को मत सुनाना।'
गुरु की बात सुन कर रामानुजाचार्य मुश्किल में पड़ गए। वे सोचने लगे, अगर यह मंत्र इतना कारगर है तो इसे गोपनीय क्यों रखा जाए? इसे तो हर आदमी को सुनाया जाना चाहिए ताकि सबके दुख दूर हों और सभी के पाप कटें। उन्हें गुरु का निर्देश भी अच्छी तरह याद था। वे जानते थे कि गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाला पाप का भागीदार बनता है। इस द्वंद्व ने उन्हें रात भर सोने नहीं दिया। एक तरफ सारे जगत् के कल्याण का सवाल था और दूसरी तरफ थी गुरु की आज्ञा।
आखिरकार उन्होंने निर्णय ले लिया।  ब्राह्म मुहूर्त पर वे उठे और आश्रम की छत पर चढ़ कर अपनी पूरी शक्ति के साथ अष्टाक्षरी मंत्र का जाप करने लगे। उन्हें इस तरह जाप करता सुन कर लोगों की भारी भीड़ जुटी। थोडी ही देर में गुरुदेव भी आ पहुंचे। उन्होंने रामानुज को नीचे आने को कहा।
रामानुज नीचे उतरकर आए तब गुरुदेव उनसे बोले, 'जानते हो तुम क्या कर रहे हो?'
विनम्रता के साथ रामानुज ने उत्तर दिया, 'गुरुदेव, क्षमा करें। आपकी आज्ञा भंग करने का पाप मैंने किया है। मैं यह भी जानता हूं कि इस पाप को करने के कारण अब मैं नरक में जाऊंगा। लेकिन मुझे इसका कोई दुख नहीं है, क्योंकि, जिन लोगों ने यह मंत्र सुना वे मोक्ष को प्राप्त हो जाएंगे।'
रामानुज की बातें सुन कर गुरुदेव गद्गद् हुए। उन्होंने रामानुज को गले से लगा लिया और कहा, 'तुम ही मेरे सच्चे शिष्य हो। प्राणिमात्र के कल्याण की जिसे चिंता हो वही सच्चा धार्मिक है।'
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एक थी बुढ़िया। उसके पास एक चटख लाल कलगीवाला मुर्गा था। वह हर रोज सुबह बांग देता और फिर सूरज उगता। बुढ़िया को लगा, मेरे मुर्गे के कारण दुनिया में सुबह होती है। मैं सबका फायदा क्यों कराऊं? ठेका लिया है? उसने एक दिन अपने मुर्गे को ढंक कर रखा। बूझो फिर क्या हुआ?
एक बुढिया ने एक बड़ी टोकरी में बहुत सारे केंकडे रखे थे और उन्हें किसी प्रकार बांधा नहीं था और न टोकरे पर ढक्कन ही रखा था। एक व्यक्ति ने उससे पूछा, ऐसे तो ये केंकडे तितर-बितर हो जाएंगे। बुढ़िया ने मुस्कुराकर कहा, ये पहले इस टोकरी से बाहर तो आएं! इनकी आदत है, कोई दो कदम आगे बढ़ता है तो पूरी जमात उन्हें पीछे खींच लेती है।
ये आम आदमी के लक्षण हैं।
उसे फकत अपने कल्याण की चिंता होती है। 
दूसरे के कल्याण की सोच कर भी वह सतर्क हो जाता है।
अपने कारण किसीके कल्याण की बात सोच कर भी वह बेचैन हो उठता है। 
अपना कल्याण जोखिम में डाल कर अन्यों की चिंता?...ना।
यह काम तो संतों का है।
मानवमात्र के कल्याण के लिए सभी धर्मों का निर्माण हुआ है। लेकिन आज की तारीख में धर्मों में भी अपनी श्रेष्ठता को लेकर आपसी होड़ लगी हुई है।
इसीलिए मानव मात्र के कल्याण की सोचनेवाले रामानुज विशिष्ट बन जाते है।
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गुरुवार, 10 मई 2012

हांडी का मोह भी क्यों?

-संध्या पेडणेकर
शेख वाजिद अली एक बार अपने काफिले को लेकर यात्रा के लिए निकला। उसके काफिले में हजार के करीब ऊंट थे। उनके अलावा उसका और भी काफी सामान था।
यात्रा के दौरान वे एक ऐसी जगह पहुंचे जहां रास्ता बेहद संकरा था। एक समय केवल एक ही ऊंट उस रास्ते से होकर निकल सकता था।
सभी ऊंटों की एक लंबी कतार बनी। कतार में सबसे आगे वाजिद अली की सवारी थी।
अचानक उनके काफिले का एक ऊंट मर गया।
संकरे रास्ते में ही वह मर गया और ऐसे गिरा कि पूरा रास्ता घेर लिया। उसके पीछे वाले सारे ऊंट रुक गए।
आगे खबर भिजवाई गई। वाजिद अली ने सुना तो वह हालात का जायजा लेने के लिए, मरे ऊंट को देखने के लिए पीछे आया।
ऊंट पर नज़र पड़ते ही उसने कहा, 'यह कैसे मर सकता है? इसके हाथ हैं, पैर हैं, आंखें हैं, कान हैं....पूंछ  भी है। सब कुछ तो है।
जाहिर था कि मृत्यु के बारे में उसे कुछ पता न था।
सेवक ने कहा, 'सब कुछ है लेकिन इसके अंदर का जीवनतत्व चुक गया है।'
शेख ने पूछा, 'तो अब यह उठ कर चलेगा नहीं?'
सेवक ने कहा, 'अब यह कभी नहीं चलेगा। प्राण उड़ गए हैं इसलिए अब इसका शरीर गलेगा, सड़ेगा...'
उसने आगे कहा, 'और मौत सिर्फ ऊंट की नहीं होती, सबकी होती है।'
सहसा  वाजिद अली को विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, 'मेरी भी?'
सेवक ने कहा, 'हां, मौत सबकी होती है।'
मौत के बारे में जाना तो वाजिद अली के जीवन में वैराग्य जागा।
अपने बाकी सभी ऊंटों को उसने वापिस भेजा।
एक मिट्टी की हांडी लेकर वह चलता रहा। उसी हांडी में खाना पकाता और उसी को सिरहाने लेकर सोया रहता।
एक बार सूंघते हुए आए एक कुत्ते का मुंह उस हांडी में फंस गया। किसी तरह बाहर न निकले।
बौखलाया कुत्ता सरपट दौडा और दीवार से टकराया।
वाजिद अली की हांडी टूट गई।
शेख वाजिद अली ने सोचा, 'यह भी अच्छा ही हुआ,  सब कुछ छोड़ा और एक हांडी से मोह पाल लिया। जिस देह को दफनाना ही है उसके लिए हांडी का मोह भी क्यों पाला जाए?'
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माटी की इस देह को पालने के कितने चोंचले होते हैं। 
समय आने पर बीच राह में सांस साथ छोड़ ही जाती है।
इस बात से अनजान जीव यह मेरा, यह तेा के फेर में पड़ा रहता है।
पंडित भीमसेन जोशी जी का गाया हुआ संत कबीरदास जी का एक भजन याद आ रहा है, लिंक यहां दे रही हूं, आप भी ज़रूर सुनिएगा -
http://www.youtube.com/watch?v=crQfwtZhFx0

भजन के शब्द हैं -
काया नहीं तेरी नहीं तेरी | मत कर मेरी मेरी || धृ. ||

ये तो दो दिनकी जिंदगानी | जैसा फथर उपर पानी |
ये तो होवेगी खुरबानी || १ ||

जैसा रंग तरंग मिलावे | ये तो पलख पीछे उड जावे |
अंते कोई काम नहीं आवे || २ ||

सुन बात कहूं परमानी | वहांकी क्या करता गुमानी |
तुम तो बडे है बेइमानी || ३ ||

कहत कबीरा सुन नर ग्यानी | ये सीख हृदयमें मानी |
तेरेकू बात कही समझानी || 4 ||
http://www.maayboli.com/node/26871?page=7#comment-1567704




मंगलवार, 8 मई 2012

गुरू की महानता


-संध्या पेडणेकर
एक बार कौटिल्य के पास एक युवक आया। 
उसने उनसे कहा, 'मैंने सुना है कि आप महान ज्ञानी हैं, अर्थशास्त्री हैं। कृपया मुझे अमीर बनने का गुर सिखा दीजिए।'  
कौटिल्य ने उससे कहा, 'दुनिया में दो तरह के ज्ञानी होते हैं- आत्मिक और भौतिक। तुम्हें जिस तरह की जरूरत है वह ज्ञान मैं तुम्हें अवश्य दूंगा। लेकिन उससे पहले तुम्हें एक छोटी-सी परीक्षा देनी होगी। तुम्हारे सामने फैली रेत में से तुम सफेद और काले रंग का एक-एक पत्थर चुनो। उन्हें अपनी थैली में रखो। मेरा एक शिष्य तुम्हारी थैली में से बिना देखे एक पत्थर चुनेगा। वह अगर सफेद पत्थर चुनेगा तो मैं तुम्हें भौतिक संपत्ति कमाने का ज्ञान दूंगा। वह अगर काला पत्थर चुनेगा तो तुम्हें मैं आध्यात्मिक संपत्ति कमाने का ज्ञान कराऊंगा।
उस युवक ने तुरंत नीचे झुक कर दो पत्थर उठाए और अपनी थैली में डाले। 
पत्थर उठाते समय कौटिल्य और उनके एक शिष्य ने देखा कि उसने दोनों पत्थर सफेद रंग के ही चुने थे क्योंकि उसे रुपया-पैसा कमाने की ही चाह थी। 
कौटिल्य ने उसी शिष्य को युवक की थैली से एक पत्थर चुनने को कहा। 
शिष्य ने युवक की थैली में हाथ डाला और मुठ्ठी बंद कर एक पत्थर बाहर निकाला। बंद मुठ्‌टी के साथ वह अपने गुरू की तरफ चला लेकिन चलते-चलते लडखडाकर गिर गया। उसकी मुठ्ठी खुली और पत्थर कहीं खो गया। 
आसपास पडे अन्य पत्थरों में से अब उसे ढूंढ निकालना मुश्किल था। 
युवक अपना राज खुल जाने के डर से सहमा हुआ था। 
कौटिल्य ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, 'डरो मत, अपनी थैली से दूसरा पत्थर निकालो। उसका रंग देख कर तय किया जा सकता है कि मेरे शिष्य ने किस रंग का पत्थर उठाया था।'  
युवक की थैली से सफेद रंग का पत्थर निकला। 
कौटिल्य ने कहा, 'इसका मतलब है कि मेरे शिष्य ने काले रंग का पत्थर उठाया था। तुम्हें आत्मिक ज्ञान की जरूरत है। आज से तुम मेरे शिष्य बन जाना।
युवक ने दौड कर कौटिल्य के पैर पकड़ लिए और अपने किए की माफी मांगी। कौटिल्य ने कहा, 'वह गुरू ही क्या जो अपने शिष्य की असली जरूरतों के बारे में न जान सके।'
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धन्य वह गुरू और धन्य वह शिष्य। ...
कबीरजी कह गए हैं – 
        गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पाय।
        बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।
गुरु श्रेष्ठ क्यों? क्योंकि गुरु बताता है कि क्या सही है, क्या ग़लत है, क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य। गोविंद तक पहुंचानेवाली राह का पथप्रदर्शक है गुरु। गुरु के बिना बेडा पार लगना असंभव।
यह दुनिया, जहां पग पग पर छल, माया, प्रपंच का जाल बिछा हो और उस पर डाला चुग्गा चुगने के लिए दुनियावी भूलभुलैय्या में लिप्त मन आतुर खड़ा हो वहां गुरु के मार्गदर्शन के बगैर श्वेत-श्याम की पहचान संभव नहीं। 
जिस चेले को ऐसे गुरु की प्राप्ति हो वह परम भागी। कबीर कहते हैं ऐसे गुरु की महति वर्णन करने के लिए -
       
सब धरती कागज करू, लेखन सब बनराई
        सात समंद की मसि करू, गुरु गुण लिखा ना जाई।।

शनिवार, 5 मई 2012

स्वप्न और सत्य

-संध्या पे़डणेकर
चोमा नाम का एक लकडहारा एक दिन जंगल में लकड़ियां तोड़ने गया। वहां अचानक एक हिरन से उसका सामना हुआ। हिरन डर गया था इसलिए उसका शिकार करने में चोमा को ज्यादा कष्ट नहीं करने पड़े।
लेकिन फिर उसके सामने एक मुश्किल आई, लकड़ियां और हिरन दोनों को एक साथ कैसे ले जाया जाए?
सोच कर उसने निर्णय लिया कि पहले वह बाजार जाकर लकड़ियां बेचेगा, जो पैसा मिलेगा उससे ज़रूरत का सामान खरीद कर घर में रखेगा और फिर जंगल में आकर हिरन को ले जाएगा।
उसने एक गड्ढा खोदकर हिरन के शव को उसमें छिपा दिया।
सारे काम निपटा कर जब वह शाम को लौटा तो काफी ढूंढ़ने के बाद भी उसे वह गड्ढा नहीं मिला जिसमें उसने हिरन का शव छिपाया था। तब वह असमंजस में पड़ा। उसे लगा कि शायद हिरन के शिकार का उसने बस सपना देखा था, असल में हिरन का शिकार उसने नहीं किया। वह वापिस घर लौट गया।
रात दोस्तों की मंडली में उसने अपने सपने की बात बताई।
चोमा का एक दोस्त था चानी। उसे लगा कि चोमा ने सचमुच हिरन मारा है। रातोंरात वह जंगल गया । कोशिश करके उसने वह गड्ढा ढूंढा। उसे खोद कर हिरन को निकाला और घर ले आया। हिरन के मांस के टुकडे बेच कर उसने खूब पैसा कमाया।
चोमा को इस बात का पता चला तो वह चानी के घर पहुंचा और अपने पैसों की मांग की। उसका दावा था कि हिरन जब उसने मारा था तो उसे बेच कर मिलनेवाले पैसों पर भी उसीका हक था।
चानी ने रुपए देने से इनकार किया।
चोमा गांव के मुखिया के पास शिकायत लेकर पहुंचा।
पंचायत बैठी। चोमा की पूरी बात सुनने के बाद मुखिया ने कहा, तुमने हिरन का शिकार किया था लेकिन उसके शिकार को सपना समझने की भूल तुमने की। यह तुम्हारी गलती थी। अगर तुमने हिरन के शिकार का सपना देखा था तो अब पैसों में हिस्सा मांगने की गलती तुम कर रहे हो। सपना और सच इन दो चीजों में तुम फर्क नहीं कर पा रहे हो।
फिर चानी से मुखिया ने कहा, 'चोमा जब सपने के बारे में बता रहा था तभी तुम जान गए थे कि वह जो कह रहा है वह सच है। जागने और सपने के बीच का फर्क तुम जानते थे और चोमा के तुम दोस्त थे। इस नाते तुम्हें हिरन ढूंढ़ने में उसकी मदद करनी चाहिए थी। लेकिन उसके असमंजस का फायदा उठा कर तुमने खुद हिरन पर कब्जा किया और उसका मांस बेच कर पैसा कमाया।'
-'दोनों की गलती होने के कारण अब इन रुपयों पर तुम दोनों का नहीं पंचायत का अधिकार है।'
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जीवन में सफलता पाने के लिए स्वप्न और जागृति का फर्क जानना ज़रूरी है।
केवल इस फर्क को जानना भर काफी नहीं, नीयत साफ होना भी ज़रूरी है।
नैतिकता की इन बातों के बारे में जो जागरुक नहीं होते उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है।
किसी भी न्यायव्यवस्था से किए जानेवाले न्याय को परिपूर्ण न्याय कहना न्याय्य  नहीं।
और कि,
न्यायव्यवस्था चूंकि इंसानों द्वारा ही निर्मित है और इंसानों द्वारा ही चलाई जाती है इसलिए कई बार उसमें त्रुटियां भी हो सकती हैं। इसलिए किसी भी बात को अंतिम सत्य मानने से बचना चाहिए।