बुधवार, 14 नवंबर 2012

विसोबा खेचर

-संध्या पेडणेकर
महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय के संत विसोबा खेचर की कहानी लगभग सब जानते हैं। विसोबा आलंदी में रहनेवाले दुष्ट मानसिकतावाले ऐसे ब्राह्मण थे जो ज्ञानेश्वर, सोपानदेव और मुक्ताबाई से द्वेषभाव रखते थे।
एक बार मुक्ताबाई को मांडा (एक तरह की मिठाई) खाने की इच्छा हुई। मांडा बनाने के लिए मिट्टी का बर्तन चाहिए। बर्तन लेने ज्ञानेश्वर कुम्हार के पास चले। रास्ते में उन्हें विसोबा मिले। उन्हें पता चला तो वह भी ज्ञानेश्वर के साथ कुम्हार के घर गए। उनके कहने से कुम्हार ने बर्तन देने से मना किया।
दुखी ज्ञानेश्वर घर लौटे। मुक्ताबाई ने पूछा, 'बर्तन कहां है?' ज्ञानेश्वर ने कहा, 'तुम आटा गूंधो, मांडे मेरी पीठ पर लगाना।'
तमाशा देखने के लिए ज्ञानेश्वर के पीछे पीछे आकर छिप कर खड़े विसोबा को आश्चर्य का झटका तब लगा जब मुक्ताई के बनाए मांडे ज्ञानेश्वर की पीठ पर सिंकने लगे। इस चमत्कार को देख कर विसोबा में आमूलाग्र बदलाव आया। आगे बढ़ कर उन्होंने ज्ञानेश्वर के पैर पकड़े और माफी मांगी।
मुक्ताबाई समझ गई कि बर्तन न मिलने के पीछे विसोबा की कारस्तानी है। उसने गुस्से से कहा, 'दूर हो खच्चर! पहले तो बर्तन नहीं लेने दिया और अब मांडे बनने नहीं दोगे।'
ज्ञानेश्वर ने मुक्ताबाई को शांत किया लेकिन तबसे विसोबा हो गए विसोबा खच्चर। आज भी महाराष्ट्र में उन्हें विसोबा खेचर के नाम से ही जाना जाता है।
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मन शैतानियों में लगा ही रहता है, कभी किसी वजह से, कभी बेवजह। 
मन को खाली करना भले-भलों को नहीं जमा। हां, अज्ञानी मन चमत्कार के आगे झुकता है।
और, क्या यह सही है कि संत अत्याचारियों द्वारा किए गए पाप सहते जाएं?
और कुछ वे करें न करें, कम से कम परमात्मा के दरबार में न्याय की गुहार तो वे लगा ही सकते हैं। 

सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

दुनिया का डर

-संध्या पेडणेकर
टॉलस्टॉय एक बार अलस्सुबह उठ कर चर्च गए।
उन्होंने सोचा, हर बार जब मैं प्रार्थना करने जाता हूं तब चर्च में कई लोग होते हैं। आज भगवान से अकेले में बात करूं।
चर्च में उन्होंने देखा कि शहर का एक अमीर आदमी पहले से ईसा के सामने घुटने टेक कर बैठा हुआ है।
वह कह रहा था, 'हे भगवान, मैंने इतने पाप किए हैं कि अब मुझे कहते हुए भी शर्म आती है। क्षमा कर देना मुझे।...'
टॉलस्टॉय ने सोचा, कितना महान आदमी है यह। सच्चे दिल से अपने अपराधों को स्वीकार कर रहा है।
इतने में उस व्यक्ति की नज़र टॉलस्टॉय पर पड़ी।
हडबडाकर वह उठ कर खड़ा हुआ। बोला, 'महाशय, मैंने अभी भगवान के सामने जो कुछ कहा वह आपने सुना तो नहीं?'
टॉलस्टॉय ने कहा, 'हां सुना, और  मैं धन्य हो गया। इसतरह अपने अपराधों को स्वीकार कर तुम मेरे आदर के पात्र हो गए हो।'
उस आदमी ने कहा, 'वह सब तो ठीक है, लेकिन कृपया आप ये बातें किसी और से मत कहिएगा। यह तो मेरे और भगवान के बीच की बात थी। मैं नहीं चाहता कि कोई और हमारी बातें सुने। और अगर तुमने ये बातें किसीको बताईं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।'
टॉलस्टॉय ने आश्चर्य के साथ कहा, 'लेकिन अभी अभी तो आप भगवान के सामने...'
वह आदमी बोला, 'वह मेरे और परमात्मा के बीच था। दुनिया के लिए मैंने वह नहीं कहा था।'
टॉलस्टॉय सोचने लगे, 'कैसी दुनिया है, लोगों से डरती है, भगवान से नहीं!'
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हम कहते हैं कि भगवान सर्वव्यापी है, 
लेकिन उससे सानिध्य पाने के लिए हमें पूजाघर जाना पड़ता है। 
चराचरव्यापी भगवान को हम पूजाघरों के तालों में बंद कर रखते हैं... 
और बाहर निकलते ही दुनियादार बन जाते हैं। 

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

अपने खेत की फ़सल


-संध्या पेडणेकर
युद्ध के दिन थे। राजा के सौनिक पूरे प्रदेश में फैले थे। जिस गांव में जाते वहां के लोगों को न चाहते हुए भी कई बार उनके रहने-खाने का बंदोबस्त करना पड़ता। ऐसा नहीं कि लोगों में देशभक्ति नहीं थी, लेकिन कई बार सैनिकों का बर्ताव उजड्ड और क्रूरतापूर्ण होता था। इसलिए लोग उनसे बच कर रहना पसंद करते थे। जितने की उन्हें ज़रूरत होती उससे अधिक का वे नुकसान करते।
एक दिन सैनिकों का अधिकारी एक किसान को पकड़ कर ले आया। उसने किसान से कहा, गांव में किसके खेत में अच्छी फसल उगी है बताना। हफ्ते भर तक हमारा पडाव इसी गांव में रहेगा। हमें अपने खाने-पीने की और हमारे घोड़ों के लिए चारे की व्यवस्था करनी है।
किसान दुविधा में पड़ गया। न बताता तो सैनिक उसे सताते और अगर बताता तो जिस किसान के बारे में बताए उसके पूरे खानदान के सामने खाए क्या? जिए कैसे?’ का सवाल पैदा होता।
सैनिकों के साथ चलते चलते उसने मन ही मन कुछ फैसला कर लिया।
गांववालों के खेतों से वे गुज़र रहे थे। एक के बाद एक खेत दिखाते हुए सैनिक कह रहे थे कि इस खेत की फसल अच्छी है लेकिन वह किसान खुद के ज़्यादा जानकार होने की दुहाई देकर कहता कि इससे अच्छी फसल तो आगे वाले खेत में है। मैं जानता हूं, आइए, मैं आपको दिखा देता हूं।
आखिर एक खेत के सामने रुक कर वह बोला, इस खेत की फसल सबसे बेहतर है। सैनिकों को उस खेत की फसल में कुछ खास नज़र नहीं आया। सैनिकों का अधिकारी दहाडा और बोला, मैंने बेहतर फसल कहा था, तुम्हें सुनाई नहीं देता क्या? इससे अच्छी फसल तो हम पीछे छोड़ आए कई बार। क्यों किया तुमने ऐसा?’
किसान बोला, मैं जानता था कि आप खेत के मालिक को फ़सल का मूल्य तो देंगे नहीं। ऐसे में किसी और की फ़सल का मैं कैसे नुकसान करवाता? फ़सल ही तो किसान की साल भर की कमाई होती है। उसके बगैर वह कैसे गुजारा करेगा? और मैंने झूठ तो नहीं कहा आपसे। यह मेरा खेत है। मेरे लिए तो इसी खेत की फ़सल सबसे अच्छी फ़सल है।
सैनिक अधिकारी लज्जित हुआ। उसने किसान को फ़सल का मूल्य तो दिया ही, साथ ही उसकी निडरता के लिए विशेष सम्मान देकर उसे पुरस्कृत भी किया।
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आज न तो युद्ध का जमाना है और न ही आपात् काल।
आज अपने नुकसान के मूल्य पर भी सच बोलनेवाला ही दंडित होता है।
यदा कदा, किसी सत्यवादी को पुरस्कार मिलता भी है तो वह बही-खातों में कहीं ऐसे गायब हो जाता है जैसे गधे के सिर से सींग।
दुहाई सब देते हैं, लेकिन रामराज्य के लिए आवश्यक गुण आज किसके पास हैं?

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

वैराग्य में कमी

-संध्या पेडणेकर
भर्तृहरि राजा के बारे में पुराणों में एक कथा आती है। वैराग्यभाव से उन्होंने राज्य का त्याग किया तब पार्वती ने शंकर के सामने उनके त्याग की सराहना की। लेकिन शंकर ने कहा, 'उनके त्याग में कमी है।'
पार्वती ने पूछा, 'वह कैसे?'
शंकर ने कहा, 'भर्तृहरि ने भले राज्य का त्याग किया हो लेकिन संन्यासी जीवन की शुरुआत उन्होंने खाली हाथ नहीं की है। राजमहल से निकलते वक्त उन्होंने पानी के लिए पात्र, तकिया और हवा झलने के लिए पंखा साथ लिया।' इस पर पार्वती निरुत्तर हो गई।
कुछ समय बाद भर्तृहरि का वैराग्य गहराया तो साधना के क्रम में ये तीनों चीजें अपने आप छूट गईं। पार्वती ने फिर शिव से पूछा तो शिव ने कहा, 'अभी कमी है।'
पार्वती ने पूछा, 'अब क्या कमी है? अपने वैराग्य के अनुभव लोगों तक पहुंचाने के लिए वैराग्य शतक लिख रहे हैं, भिक्षा मांगना तक छोड़ दिया है। खाना जब मिलता है तो खा लेते हैं, नहीं मिलता तो नहीं खाते। लंबे समय तक भोजन नहीं मिलता तो पिंडदान के लिए आए आटे की रोटियां चिता की अग्नि पर सेंक कर खाते हैं। अब उनके वैराग्य में क्या कमी है?'
जानने के लिए शंकर-पार्वती भेस बदलकर भर्तृहरि के सामने उपस्थित हुए। बुढ़िया बनी पार्वती ने भर्तृहरि से खाना मांगा।
पिछले तीन दिनों से भर्तृहरि को भिक्षा नहीं मिली थी। आज थोड़ा आटा मिला था जिसकी वह रोटियां सेंक रहे थे। उन्होंने वृद्ध दंपति को बिठाया और सिंकी हुई सारी रोटियां उन्हें दे दीं।
पार्वती ने आंखों से ही शंकर से पूछा कि क्या अब इनका वैराग्य पूर्ण है?
शंकर ने आंखओं से ही कहा, 'नहीं।'
बूढे दंपति मे चल रहे आपसी इशारों के बारे में भर्तृहरि के मन में कौतुहल जगा। उन्होंने पूछा तब शंकर ने कहा, 'यह कह रही है कि हमने इस बेचारे की सारी रोटियां लीं। अब यह क्या खाएगा? हम आधी रोटियां इसे दे देते हैं।'
सुनते ही भर्तृहरि की भौंहें टेढी हो गईं। उन्होंने कहा, 'आप मुझे जानते नहीं। इतने बड़े साम्राज्य का मोह मैंने नहीं किया तो क्या चार रोटियों का मोह मैं करूंगा? ले जाइए, और सुखपूर्वक अपनी क्षुधा को शांत कीजिए। मुझे इसीमें संतोष है।'
शिव कुछ कहते इससे पहले पार्वती ने इस पर कहा, 'अब मैं समझी, भौतिक चीजों का त्याग भर्तृहरि ने किया लेकिन यश की आसक्ति और अहंकार का भाव इनमें अभी भी जागृत है। इनके वैराग्य में अभी कमी है भगवन्!'
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त्याग के प्रति अभिमान वैराग्य की राह में बाधा है। 
दान की भी हम रसीद चाहते हैं। 
याचक से उम्मीद करते हैं कि वह विनम्र रहे। 
चाहते हैं कि भगवान हमारे अच्छे कर्मों का हिसाब ज़रूर रखे! 

बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

जुआघर और मरघट

-संध्या पेडणेकर
चीन के मशहूर दार्शनिक कन्फ्यूशियस के पास एक आदमी आया।
उसने कहा, मैं ध्यान करना चाहता हूं।
कन्फ्यूशियस ने उससे कहा, 'पहले तुम दो स्थानों पर होकर आओ। एक तो जुआघर जाओ और देखो कि लोग वहां क्या करते हैं। तुम सिर्फ देखना, करना कुछ नहीं। फिर आकर मुझे अपनी राय बताना।'
दो महीनों के बाद वह आदमी लौटा। उसने कहा कि लोग पागल हैं।
कन्फ्यूशियस ने उससे कहा, 'अब मैं तुम्हें दूसरा साधना सूत्र देता हूं। अब तुम दो महीने मरघट जाओ। वहां जाकर बैठो और मुर्दों को जलते हुए देखो।'
दो महीनों बाद वह आदमी आया और बोला, 'आपने तो मेरी आंखें ही खोल दीं। मैंने देखा कि सारी ज़िंदगी एक जुआ है और उसका अंत मरघट पर हो रहा है।'
कन्फ्यूशियस ने उससे कहा, 'अब तुम जीवन का रहस्य जान गए हो। अब तुम ध्यान की अंतर्यात्रा पर निकल सकते हो।'
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जीवन की असारता का जब तक पता न चले, जब तक बाहरी ताम झाम से छुटकारा न मिले, जब तक भोगों से मन न भरे तब तक मन की यात्रा कर पाना असंभव है। 
जीवन ही जीवन की असारता, अप्रत्याशितता और क्षणभंगुरता का सटीक उदाहरण है। 
जीवन का यह रहस्य जिसने जाना वह मुक्त हो गया। 
इसी मुक्ति की रोशनी में वह अंतर्मन की यात्रा पर निकल कर बुद्धत्व पा सकता है।  

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

अपने ही झूठ का शिकार


-संध्या पेडणेकर
एक बार क बूढा आदमी एक गांव से गुजर रहा था। उसका पुराने जमाने का ढीला-ढाला चोगा, लंबी सफेद दाढ़ी-मूंछें, झुर्रियों से भरा चेहरा उस गांव के बच्चों को अजीब लगा। पहले एक-दो और फिर धीरे धीरे दस-बारह शरारती बच्चे उसके पीछे पीछे चलने लगे। थोडी देर बाद उन्होंने रास्ते में पड़े कंकड उठा उठा कर बूढ़े की तरफ उछालना शुरू किया। बूढ़ा परेशान हुआ। उसने बच्चों को समझाने की कोशिश की लेकिन बच्चे शैतानी पर उतारू थे।
बूढ़ा भी चालाक था। उसने एक तरकीब की।
उसने बच्चों को पास बुलाया और कहा, तुम्हें पता है? आज राजा सबको दावत दे रहा है।
दावत और मिठाई की बात से बच्चे बहल गए। उन्होंने पूछा, आपको कैसे पता?’
बूढ़े ने कहा, ए लो! मुझे नहीं पता होगा? मैं भी तो उसी भोज में जा रहा हूं!’
फिर बूढ़े ने पिछली दावत में परोसे गए पकवानों का वर्णन करना शुरू किया। उनकी खुशबू, उनका स्वाद, परोसने के बर्तन, बैठने का ताम-झाम, तरह तरह के शरबत आदि।
वर्णन सुन कर बच्चे राजमहल की ओर चल दिए।
बूढ़े ने छुटकारे की सांस ली और वह धीमे धीमे अपनी राह पर चल निकला।
उम्र के कारण उसकी चाल अब बेहद धीमी हो चली थी।
कुछ ही दूर वह गया होगा कि कुछ गांववालों को उसने हड़बड़ी से महल की ओर जाते हुए देखा। उसने यूंही उनसे पूछा तो पता चला कि राजा सबको भोज दे रहा है और वे उसी भोज में शामिल होने जा रहे
हैं।
थोड़ा और आगे जाने पर उसे और लोग राजमहल की तरफ बढ़ते हुए दिखाई दिए। बूढ़े को लगा कहीं सचमुच राजा ने भोज का आयोजन तो नहीं किया है?
और आगे बढ़ा तो बहुत सारे लोगों को उसने राजमहल की ओर बढ़ते देखा। सब दावत खाने जा रहे थे इसका भी उसे पता चला।
अब बूढ़े के मन में द्वंद्व पैदा हुआ। उसने सोचा, मैंने तो बच्चों को टालने के लिए गपबाजी की थी, कहीं ऐसा तो नहीं कि राजा सचमुच दावत दे रहा हो?
फिर उसे राजा की पिछली दावत के पकवान याद ने लगे। उस दावत का पूरा नूर उसकी आंखों के आगे झलकने लगा। उसका मन मचलने लगा।
उसने सोचा, हो न हो, राजा दावत दे रहा है। और अगर नहीं भी दे रहा है तो जाकर देखने में हर्ज ही क्या है? सच, बहुत दिन बीते दावत उडाए। चलूं और देखूं तो सही कि इस बार की दावत के क्या रंग हैं?’
सोचते सोचते बूढ़ा अपना काम भूल गया और उसके पैर भी राजमहल की राह पर मुड़ गए।
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अफवाहों और ठगी का यह पहला उसूल है।
वे अपने पैदा करनेवालों को भी नहीं बख्शतीं।
अफवाहें फैलाने वाले, दूसरों को ठगने वाले कब अपने ही फैलाए जाल में फंसेंगे कहा नहीं जा सकता।

शनिवार, 29 सितंबर 2012

जैसा आदमी वैसी सजा

-संध्या पेडणेकर
एक राज्य के तीन अधिकारियों ने अपने अधिकारों के बल पर बडे घपले किए।
राजा को पता चला तब उसने तीनों को बुलाया।
उनमें से एक से राजा ने कहा, 'मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी।'
दूसरे आदमी को राजा ने एक साल की सजा सुनाई।
तीसरे आदमी को नगर में गधे पर उल्टा बिठा कर घुमाने, सौ कोडे लगाने और बीस साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई।
राजा न्यायी था लेकिन उसका यह न्याय अन्य दरबारियों को  अटपटा लगा। वे आपस में चर्चा करने लगे कि एक ही अपराध के लिए तीन लोगों को अलग अलग सजा सुनाना क्या न्यायसंगत है? आखिर उन्होंने राजा से ही अपने मन की आशंका का समाधान करने की विनति की। उन्होंने पूछा कि, महाराज, एक ही अपराध के लिए समान रूप से दोषियों को इसतरह अलग अलग सजा क्यों दी गई यह हम जानना चाहते हैं।
राजा ने उनसे कहा, 'जैसा आदमी वैसी सजा - इसी तत्व का पालन करते हुए मैंने इन तीनों को अलग अलग  सजा सुनाई। जो व्यक्ति सज्जन था, जिसने बुरी संगत में फंस कर बुरा कर्म किया था, उसे मैंने कोई सजा नहीं दी, केवल नाउम्मीदी जताई। उस व्यक्ति को इतना बुरा लगा कि उसने घर जाकर आत्महत्या की। दूसरे आदमी की चमडी थोडी मोटी थी इसलिए उसे मैंने एक साल की सजा सुनाई।'
एक दरबारी से रहा नहीं गया। वह बोला, 'लेकिन महाराज, तीसरे व्यक्ति को जो सजा सुनाई गई वह बेहद कठोर है।'
उसकी बात सुन कर राजा मुस्कुराया। कहा, 'आप लोग कारागृह में जाकर एक बार उस आदमी से मुलाकात कीजिए। हो सकता है, उसे मैंने इतनी कठोर सजा क्यों दी यह बात आपकी समझ में आ जाए।'
कुछ दरबारीगण कारागार में अपने सजायाफ्ता सहयोगी से मिलने पहुंचे।
वे यह देख कर हैरान रह गए कि उस आदमी के चेहरे पर शर्मिंदगी का नामोनिशान भी नहीं था। गधे पर उल्टा बिठा कर पूरे नगर में घुमाने का,  कोडे की मार खाने का और बीस साल के कारावास की सजा मिलने का उसे जरा भी रंज नहीं था। वह बड़े मजे में था। मिलने आए अपने पुराने सहयोगियों से वह बोला, 'केवल बीस सालों की ही तो सजा सुनाई है, यूं देखते देखते समय बीत जाएगा। और मैंने इतना कमा कर रखा है कि अगली सात पुश्तों तक हमारे खानदान में किसीको कोई काम करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। ऐश से जी सकते हैं हम! और वैसे यह कहने भर को ही कारागार है, यहां किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं है...'
एक दरबारी ने पूछा, 'चौक में, सबके सामने खडे कर तुम्हें कोडे लगाए गए, सब दूर आपकी बदनामी हुई....'
उसे बीच में ही टोकते हुए वह आदमी बोला, 'बदनामी में भी नाम तो होता ही है! मैं तो मशहूर हो गया हूं! आज पूरे नगर में लोग मेरे ही बारे में बोल रहे होंगे....'
दरबारियों को मानना ही पड़ा कि राजा ने सही न्याय किया था।
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दवा की खुराक हर व्यक्ति के लिए अलग होती है। 
सजा के साथ भी यही है। 
कुछ लोग बदनामी से डरते हैं, कुछ लोगों को लगता है, जो हो, नाम तो हुआ अपना। 
बड़ी आम धारणा है, लक्ष्मीजी जिस किसी तरह से आएं, उनका स्वागत ही किया जाना चाहिए।
कुछेक लोग आज भी मानते हैं कि कमाई के जरिए में खोट हो तो धन फलता नहीं, इसलिए कमाई का जरिया हमेशा सही होना चाहिए। 
ढाक के तीन पात होते होंगे, आदमजाद का हर नमूना नायाब होता है। 

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

कबीर के गुरु

-संध्या पेडणेकर
कहते हैं, गंगा घाट पर स्वामी रामानंद की राह में लेट कर कबीर ने दीक्षा प्राप्त कर ली थी। रामानंद अनजाने ही कबीर के गुरु बन गए।
दीक्षा उपरांत कबीर को ज्ञानप्राप्ति हुई और उनकी वाणी में मिठास आई। लोग उनके कीर्तन सुनने के लिए इकठ्ठे होते और कबीर के आसपास जुटती भीड को देख कर काशी के पंडित नाराज होते। उन पंडितों में से कई वेदपाठी थे, चार-चार वेदों का उन्होंने अध्ययन किया था उन्हें कोई सुनने नहीं आता था लेकिन कबीर की कथा सुनने के लिए लोग खिंचे चले आते। देख देख कर पंडितों को जलन होती। 
पंडितों ने कबीर से कहा, 'तुम गृहस्थ आदमी हो। तुम्हारी संतानें हैं। तुम्हारा कोई गुरू भी नहीं। इसलिए, तुम कथा सुनाना बंद करो।'
कबीर ने कहा, 'मेरा कोई गुरू नहीं यह आप गलत कह रहे हैं। मैंने अपने गुरू से ही यह विद्या प्राप्त की है। गुरु की कृपा के बिना भला ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है?'
कबीर की बात सुन कर पंडितों को अचरज हुआ। उन्होंने उनके गुरू के बारे में पूछा। कबीर ने बताया कि स्वामी रामानंद मेरे गुरू हैं। 

पंडितसमूह स्वामी रामानंद के पास पहुंचा। वे स्वामी रामानंद से पूछने लगे कि, आप तो वैष्णव संप्रदाय के कट्टर समर्थक हैं। कबीर के बारे में यह तक किसीको पता नहीं कि उसका धर्म क्या है - जुलाहा या मुसलमान, उसे आपने कैसे दीक्षा दी? यह तो धर्म के विरुद्ध आचरण हुआ। 
रामानंद जी को इन बातों के बारे में कुछ भी पता नहीं था। वह बोले, 'कौन कबीर? कैसी दीक्षा? हमने तो नहीं दी!' 
पूरी काशी इसी विषय पर चर्चा करने लगी कि गुरू सच्चा कि चेला सच्चा। 
आखिर रामानंद जी ने कबीर को बुला कर पूछा, 'तुम्हारे गुरु कौन हैं?'
कबीर ने कहा, 'आप ही हैं!'
स्वामी रामानंद बोले, 'मैंने तुम्हें कब दीक्षा दी?' बोलते बोलते स्वामी रामानंद ने पैर की खडाऊं उतारी और कबीर के सिर पर दे मारी। कहा, 'मुझे तू झूठा साबित करेगा रे? राम राम राम!!...'
कबीर ने स्वामी रामानंद के पैरों पर लोट लगाई। कहा, 'गुरुदेव, गंगाकिनारे जो दीक्षा दी थी वह अगर झूठ है तो फिर आज दी हुई दीक्षा तो सच है ना! आपके हाथ से सिर पर आशिर्वाद झर रहे हैं और राम नाम का मंत्र भी मिल रहा है।'
कबीर के वचन सुन कर स्वामी रामानंद संतुष्ट हुए। उन्होंने कबीर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकारा। 
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'गुरु गोविंद दोऊ खड़े काको लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।।'-कबीर




सोमवार, 10 सितंबर 2012

भाग्य की दस्तक पहचानो

 -संध्या पेडणेकर
सूफी संत हुजबिरी कहा करते थे कि आदमी अपने हाथ से मौके गंवाता रहता है।
एक आदमी उनसे मिलने आया हुआ था। उसने कहा, मैं नहीं मान सकता। मेरी ही देखिए, ज़िंदगी बीत गई अवसर की तलाश में। अवसर आया ही नहीं। गंवाने का सवाल ही नहीं है। ताक में बैठा हुआ हूं मैं, अवसर आता तो दबोच लेता।
हुजबिरी ने कहा, देखेंगे शाम को, अभी तो मैं नदी पार जा रहा हूं। शाम को उस पार नदी किनारे पेड़ के नीचे बैठा मिलूंगा। तुम मिलने आ जाना, तभी देखेंगे।
उस आदमी के चले जाने के बाद हुजबिरी ने अपने शिष्यों से कहा, एक घड़े में सोने के सिक्के भर कर उसके आने के रास्ते में पुल पर रख दो।
शाम को वह आदमी हुजबिरी से मिलने उसी पुल पर से आया। ठीक बीच में आकर उसने आंखें बंद कर लीं। घडा जहां रखा था पुल का वह हिस्सा उसने आंखें बंद रखे ही पार किया। वहां खड़े बाकी लोग भी भौंचक थे। सबको लगा, हद्द हो गई। ठीक घड़े के पास आते ही इसने आंखें कैसे मूंद लीं?
वह आदमी हुजबिरी के पास पहुंचा। पीछे पीछे घड़ा लेकर बाकी लोग भी पहुंचे।
हुजबिरी ने उस आदमी से पूछा, तुमने आंखें क्यों बंद कर ली थीं चलते चलते?’
वह आदमी बोला, मुझे लगा कि जरा देखूं तो कि आंखें बंद करके पुल पार करना का लगता है! ऐसे ही मौज आ गई तो मैंने आंखें बंद कर लीं।
हुजबिरी ने कहा, यह घड़ा देख रहे हो? सोने के सिक्कों से भरा यह घड़ा तेरे लिए ही रास्ते में रखा हुआ था। इसे पाकर तेरी सारी  माली मुश्किलें खत्म हो जातीं। लेकिन मन में मेरे खटका भी लगा हुआ था। लगा कि, ज़िंदगी भर यह मौके गंवाता ही आया है, इस मौके को गंवाने की भी कोई न कोई तरकीब निकाल ही लेगा। इस अवसर को भी गंवा देगा।
और तूने तरकीब निकाल ही ली, जरा आंखें बंद करके देख तो लूं!’
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चाहे आंखें बंद रखें या खुलीं, कई बार अवसर खो ही जाते हैं।
इसे फिर भाग्य कहें, लापरवाही कहें या फिर निरी मूर्खता।
और एक बात,
क्या सोना पानेवाले ही भाग्यवान होते हैं?
फिर मिडास का क्या?
तुकाराम कह गए हैं – ठेविले अनंते तैसेचि रहावे…‘
परस्परविरोधी बातें हैं संतोष और मौके की तलाश।
चतुर हम उन्हें कह सकते हैं जो मौके पाकर संतुष्ट रहते हैं!


सोमवार, 27 अगस्त 2012

ज़रूरत है सहानुभूति की...

-संध्या पेडणेकर
समीर का एक छोटा गाराज था। उसीसे उसकी रोजी-रोटी चलती थी।
एक दिन उसके बचपन का दोस्त लकी उससे मिलने आया।
समीर की शानदार गाडी की उसने तारीफ की। घूम घूम कर वह गाडी का मुआयना कर रहा था। एक जगह वह चौंका, पल भर रुका, कुछ पूछने को हुआ लेकिन फिर उसने अपना इरादा बदल दिया।
लेकिन उसी गाडी पर सवार होकर जब वे लंबी ड्राइव पर निकले तब लकी से रहा नहीं गया। उसने पूछा, 'यार समीर, एक बात पूछता हूं बुरा मत मानना। भई तुम्हारा अपना गराज है, फिर भी तुम्हारी इस शानदार कार पर एक जगह उखडे हुए रंग को, थोडे पिचके दरवाजे को तुमने ठीक क्यों नहीं कराया?'
समीर ने कहा, 'वह एक कहानी है लकी। चाहूं तो मैं भी अपने गराज में अपनी गाडी को ठीक करा सकता हूं। लेकिन मैंने जान-बूझ कर उस निशान को मिटाया नहीं है।'
लकी ने जोर दिया तब समीर ने उस निशान से जुड़ा वाकया बताया। उसने कहा, 'मैंने उन दिनों नई-नई गाडी खरीदी थी। एक दिन गाडी में बैठ कर मैं लंबी ड्राइव पर निकला। गाडी हवा से बातें कर रही थीं, मुझे बड़ा मजा आ रहा था। मेरा दिमाग सातवें आसमान पर था। गति का नशा-सा मुझ पर छाया हुआ था।'
तभी दूर एक जगह रास्ते के किनारे खड़ी गाडियों के  बीच मुझे कुछ हलचल सी दिखाई दी। उस तरफ ध्यान देने के मूड में मैं नहीं था। मेरी कार फर्राटे से आगे बढ़ी कि एक ईंट आकर दरवाजे से टकराई। खच्च् से ब्रेक लगा कर मैं बाहर निकला। आगबबूला हुआ जा रहा था मैं।'
'देखा कि, सड़क के किनारे एक छोटा बच्चा सहमा हुआ खड़ा है। वह रो रहा था। लेकिन उसके रोने का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। मेरी प्यारी गाडी को उसने ईंट मार कर पिचका दिया था। मैं उस पर बरस पड़ा - जानते हो, तुमने मेरा कितना नुकसान किया है? क्यों फेंकी तुमने वह ईंट? देखो, मेरी कार का शीशा तो टूट ही गया है, दरवाजा भी पिचक गया है और उस पर खरोंचे भी आई हैं।....'
'मेरा भाई... मेरा भाई व्हील चेयर से गिर गया है। वह मुझसे बड़ा है.... उसे वापिस व्हील चेयर में मैं बैठा नहीं पा रहा हूं, वह मुझसे संभल नहीं रहा। मैंने कई गाड़ियों को इशारा किया लेकिन किसीने अपनी गाडी रोकी नहीं।...मेरे भाई को उठा कर व्हील चेयर में बिठाने में मेरी मदद कीजिए, प्लीज....।'
'बच्चे का चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। मैंने सुना और तभी मेरा ध्यान लुढ़की हुई व्हील चेयर और उससे लटके बच्चे की तरफ गया। गति के मेरे नशे पर मानो घडों पानी गिरा। अपनी और अपने जैसे अन्यों की स्पीड के प्रति पागलपन पर मुझे ग्लानि हुई।'
'आज हम ऐसी गति से भागे चले जा रहे हैं कि हमारे पास कहीं देखने की फुर्सत नहीं। किसीको अपनी ज़रूरत भी हो सकती है इसका हमें खयाल ही नहीं। हमें अहसास नहीं कि कभी उनकी जगह हम खुद भी हो सकते हैं।
भगवान भी शायद फुसफुसा कर हमें चेताने की कोशिश करता है, लेकिन हमारे पास जब उसकी सुनने के लिए भी फुर्सत नहीं होती तब वह ईंट की मार से चेताता है। यह बात हमेशा याद रहे इसलिए मैंने यह निशान ठीक नहीं करवाया। कार के इस निशान पर जब मेरी नज़र जाती है तब अपने बड़े भाई को ठेल कर ले जाता हुआ वह बच्चा मुझे दिखाई देता है।'
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गाडी हर किसीके पास नहीं होती, लेकिन गतिशील आज हर कोई है।
हर कोई अंधाधुंध भागा चला जा रहा है, सरपट, बेतहाशा।
बहुत कुछ हासिल करना है हमें अपनी ज़िंदगी से।
मन को संवेदनशील बनाए रखने के लिए क्या ईंट की मार खाना ज़रूरी है?
इंसान हैं, सो हमें इंसान बने रहना चाहिए, क्यों?

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

श्रद्धा और तर्क

-संध्या पेडणेकर
एक बार एक सिद्ध पुरुष अपने शिष्य से प्रसन्न हुए।
उसे पारसमणि देने का उन्होंने वादा किया।
शिष्य बड़ा खुश हुआ। पारसमणि मिलता तो उसका प्रयोग कर वह लोहे को सोना बना सकता था।
 गुरु-शिष्य पारसमणि लेने निकले।
गांव से बाहर निकलने के बाद एक निर्जन जगह वे पहुंचे। वहां गुरु ने शिष्य को वह जगह दिखाई जहां पारसमणि जमीन में गडा हुआ था।
शिष्य ने वहां खोदा और उसे एक जंग लगी डिबिया उसे मिली।
गुरु ने खुश होकर कहा, 'इसीमें है पारस पत्थर।'
शिष्य के मन में गुरु के प्रति बहुत आदर था । साथ ही, उसे अपने ज्ञान पर भी अभिमान  था।
उसने सोचा, अगर डिब्बी में पारसमणि होता तो लोहे की यह डिबिया सोने की न बन जाती? लेकिन डिब्बी तो लोहे की ही है।
गुरु की बात रखने के लिए उसने वह डिब्बी उठा ली, लेकिनअब उसके मन में  गुरु के प्रति अविश्वास भी पैदा हुआ था।  उसने डिबिया खोल कर नहीं देखा।
गुरु से अलग होते ही उसने बेकार समझ कर डिब्बी दूर उछाल दी।
वह आगे बढ़ने ही वाला था कि रुक गया। उसने देखा, पारसमणिवाली वह जंग लगी लोहे की डिबिया सोने की हो गई थी।
झुक कर उसने डिब्बी उठा ली। देखा, डिबिया में अंदर मखमल का अस्तर लगा हुआ है। अस्तर के कारण ही मणि शायद डिब्बी से छुई नहीं थी। जमीन से टकराते ही डिबिया खुल गई और पारस से छू गई थी शायद। तभी वह सोने की हो गई थी।
उसने अस्तर हटा कर देखा लेकिन  पारसमणि कहीं लुढ़क गया था। उसने बहुत ढ़ूंढ़ा लेकिन उसे वह कहीं नहीं मिला।
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श्रद्धा के बिना कोरा तर्क नुकसानदेह साबित होता है।
श्रद्धा व्यक्ति को आस्थावान बना देती है।
दुनिया में भगवान के दर्शन करने की क्षमता मन के भगवान के प्रति सश्रद्ध होने से ही आती है।  

शनिवार, 18 अगस्त 2012

खाली हाथ

-संध्या पेडणेकर
दुनिया को जीतने की महत्वाकांक्षा पालनेवाला जगज्जेता सिकंदर महान मरा.
उसकी जब अर्थी निकली तो लोग यह देख कर हैरान हो गए कि उसके दोनों हाथ अर्थी से बाहर दोनों तरफ लटके हुए थे।
सिकंदर महान की अर्थी थी। देखने के लिए लाखों लोग जुटे थे। सबके मन में यही भाव था कि इतने महान सम्राट की अर्थी इतनी लापरवाही से कैसे सजायी गई? उसके दोनों हाथ तो बाहर ही रह गए हैं!
होते होते लोगों को पता चल गया कि ऐसा लापरवाही के कारण नहीं हुआ था, जान-बूझ कर किया गया था। यह तो सिकंदर महान की ही इच्छा थी कि उसकी अर्थी के दोनों तरफ उसके दो हाथ लटकने दिए जाएं ताकि लोग साफ साफ देख सकें। पता चले लोगों को कि औरों की तरह ही सिकंदर भी खाली हाथ ही जा रहा है। उसके हाथ भी खाली ही हैं। ज़िंदगी भर की उसकी दौड़ बेकार ही साबित हुई।
मरने से करीब दसेक वर्ष पहले सिकंदर प्रसिद्ध यूनानी फकीर डायोजनीज से मिलने गया था। सिकंदर की दुनिया जीतने की महत्वाकांक्षा के बारे में डायोजनीज जानता था। उसने सिकंदर से पूछा था, 'सोचो सिकंदर, अगर पूरी दुनिया जीत लोगे तो फिर क्या करोगे?'
सुन कर सिकंदर उदास हो गया। उसने डायोजनीज से कहा, 'मैं खुद सोच कर परेशान हो जाता हूं। दूसरी दुनिया तो है नहीं। इस दुनिया को जीत लूंगा तो क्या करूंगा फिर मैं?'
उसने अभी पूरी दुनिया जीती नहीं थी लेकिन लोभ और अहं इतना कि पूरी दुनिया जीतने के बाद भी वासना उदास होगी!
पहुंचा हुआ जुआरी था सिकंदर। अपना सब कुछ दांव पर लगा कर उसने बहुत कुछ जीता। धन-संपत्ति के ढ़ेर लगाए। लेकिन मरते वक्त उसका कहना कि, देख लें लोग, मेरे हाथ खाली हैं.....मरते वक्त ही सही बहुत कुछ जीत कर गया था सिकंदर।
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कहते हैं, शरीर में एक सांस भी जब तक बाकी होती है तब तक पुण्यवान को अपने पुण्यों पर इतराना नहीं चाहिए और पापियों को अपने पापों के कारण निराश नहीं होना चाहिए। 
मुक्ति एक पल में आप पर कृपावान हो सकती है।
पल भर में बेडा या तो पार हो सकता है या गरक।
या फिर, 
कुछ ऐसा, कि-
पल पल को लेकर जीव को जागरुक रहना चाहिए।
पार होते होते न जाने किस पल उसका बेडा गर्क हो जाए...
बेडा गर्क होते होते न जाने कब तिनके के सहारे उबर जाने की मोहलत उसे नसीब हो...

बुधवार, 8 अगस्त 2012

तत्वमसि श्वेतकेतु

-संध्या पेडणेकर
कई बरसों तक विद्यार्जन करने के बाद श्वेतकेतु अपने घर लौटा। पिता उद्दालक ने उससे पूछा, 'तुमने सारी विद्याएं प्राप्त कर लीं मगर क्या तुमने ब्रह्म को जाना? उसे जाने बिना सारी विद्याएं व्यर्थ हैं।'
श्वेतकेतु ने कहा, 'यदि मेरे गुरुदेव उसके बारे में जानते होते तो वे मुझे ब्रह्मविद्या भी अवश्य सिखाते। उन्हें जो भी विद्याएं अवगत थीं वे उन्होंने मुझे सिखा दीं। उन्होंने स्वयं मुझसे कहा, 'श्वेतकेतु, अब मेरे पास तुम्हें पढ़ाने के लिए कुछ नहीं बचा। अब तुम घर जा सकते हो।'
इस पर पिता उद्दालक ने कहा, 'तब तो मुझे ही तुम्हें सिखान होगा। जाओ, बाहर के पेड़ पर से एक फल तोड़ कर ले आओ।'
श्वेतकेतु फल तोड़ कर ले आया।
पिता ने कहा, 'इसे काटो।'
श्वेतकेतु ने फल काटा। उसमें बीज ही बीज भरे हुए थे।
पिता ने कहा, 'इसमें से एक बीज चुन लो।'
श्वेतकेतु ने बीज चुना तो पिता ने पूछा, 'क्या इस छोटे-से बीज से बड़ा पेड़ बन सकता है?'
श्वेतकेतु ने कहा, 'बन सकता है नहीं, बनता ही है।'
पिता ने कहा, 'तो इसका अर्थ है इसीमें पेड़ छिपा होना चाहिए। तुम बीज को काटो। हम उसके अंदर उस पेड़ को खोजते हैं जो उसके अंदर छिपा हुआ है।'
श्वेतकेतु ने बीज काटा पर वहां कुछ भी नहीं था। वहां सून्य हाथ लगा तो श्वेतकेतु ने पिता से कहा, 'इसके अंदर तो कुछ भी नहीं है। कुछ दिखाई नहीं दे रहा।'
उद्दालक ने कहा, 'जो दिखाई नहीं दे रहा, जो अदृश्य है उसी से यह विशाल पेड़, यह दृश्य  पैदा हुआ है। हम भी ऐसे ही शून्य से आए हैं। वह जो दिखाई नहीं पड़ता उसीसे हमारा भी आविर्भाव हुआ है।'
श्वेतकेतु ने पूछा, 'क्या मैं भी उसी महाशून्य से आया हूं?'
उसके इस प्रश्न के उत्तर में उद्दालक ने जो महावचन कहा वह है - 'तत्वमसि श्वेतकेतु' - हां श्वेतकेतु, तू भी उसी महाशून्य से आया है, तू भी वही है।'
कहा है, कि इस अमृत वचन को सुन कर श्वेतकेतु ज्ञान को उपलब्ध हुआ।
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अस्तित्व सीमित है अवकाश असीम।
जहां शून्य होता है, संभावनाएं वहीं से जन्म लेती हैं।
शून्य अंत नहीं, शून्य शुरुआत भी नहीं।
शून्य क्षय नहीं।
जो निर्माण होता है उसकी सीमाएं हैं, उसके साथ क्षय जुड़ा है।
शून्य अक्षय है, शून्य अनंत है। 
ब्रह्म को जानने के लिए शून्य को जानना अवश्यंभावी है।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

जीवन का गणित

-संध्या पेडणेकर
एक था कनखजूरा।
सौ पैरोंवाला कीडा।
रेंगता हुआ कहीं जा रहा था।
एक खरगोश की उस पर नज़र पड़ी।
खरगोश पहले तो बड़ा हैरान हुआ। उसे लगा, कैसे चलता होगा यह! पहले कौन-सा पैर उठाता होगा। पीछे कौन-सा पैर उठाता होगा।... फिर इतने पैर सही से उठाना और टिकाना... बहुत कठिन है। यह तो जीता-जागता गणित हुआ।
खरगोश ने कनखजूरे को आवाज दी। कहा, 'ठहरो भाई, मेरे एक सवाल का जवाब देते जाना। तुम्हारे तो सौ पैर हैं। इनमें से तुम कौन-सा पैर पहले उठाते हो? कभी तुम्हारी चाल गडबडाती नहीं? कभी गलती से तुमने एक साथ दस पैर नहीं उठाए आज तक? कमाल है। सच बताओ, लड़खड़ा कर गिरे नहीं कभी तुम? आश्चर्य! मैं जानना चाहता हूं तुम्हारा यह गणित।'
असल में, कनखजूरे ने अपने पैरों के बारे में कभी सोचा ही नहीं था इस तरह से।
वह बस चलता रहा था। जन्म से। जब से उसने होश सम्भाला था तभी से उसे याद है कि उसके सौ पैर हैं।
कभी उसके मन में यह सवाल ही नहीं उठा कि अपने इतने पैर कैसे हैं?
पहली बार उसने नीचे झुक कर देखा और घबरा गया - सौ पैर! उसे तो इतनी बड़ी संख्या की गिनती भी नहीं आती।
उसने खरगोश से कहा, 'भई, इसके बारे में तो मैंने आज तक कभी सोचा ही नहीं। अब तुमने सवाल उठाया है तो मैं सोचूंगा। निरीक्षण, परीक्षण करूंगा। जो पता चलेगा वह तुम्हें बता दूंगा।'
लेकिन फिर कनखजूरा चल नहीं पाया।
थोडी दूर ही चला और लडखडाकर गिर पड़ा।
अब चलना नहीं था, अब तो सौ पैरों को संभालने का मामला था।
इत्ती-सी जान और सौ पैर! इत्ती-सी अकल और सौ-पैरों का गणित!
इतना बड़ा हिसाब वह लगाए तो कैसे!
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आदमी अन्य सभी प्राणियों से इसीलिए अलग और श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि वह सोच सकता है।
लेकिन, ज़्यादा सोचना कभी कभी आदमी को पंगु बना देता है।


मंगलवार, 31 जुलाई 2012

काल्पनिक जंजीरों में बंधा जीवन

-संध्या पेडणेकर 
एक बार एक रेगिस्तानी सराय में एक बड़ा काफिला आया। यात्री थके हुए थे और उनके ऊंट भी थके हुए थे। ऊंटों के मालिकों ने ऊंटों के गले में रस्सियां बांध दीं। खूंटियां गाडते हुए उन्हें पता चला कि उनमें से एक की खूंटी और रस्सी खो गई थी। ऊंट को खुला नहीं छोड़ा जा सकता था क्योंकि रात ऊंट के भटक जाने का डर था।
उन्होंने जाकर सराय के मालिक से खूंटी और रस्सी मांगी। सराय के मालिक ने कहा कि खूंटें और रस्सिया तो हमारे पास नहीं हैं। लेकिन मैं आपको एक उपाय बताता हूं। आप यूं करो कि, नकली खूंटा गाड दो और ऊंट के गले में नकली रस्सी बांध दो और ऊंट से कहो कि वह सो जाए।
काफिले के मालिक को विश्वास तो नहीं हुआ लेकिन उसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। उन्होंने ठीक वैसा ही किया जैसे कि सराय के मालिक ने कहा था। झूठमूट का खूंटा गाडा, रस्सी जो थी ही नहीं - ऊंट के गले में बांधी और ऊंट से कहा कि वह सो जाए।
आश्चर्य की बात कि तब तक खडा वह ऊंट इस सारे तामझाम के बाद बैठा और सो गया। काफिले के मालिक को तसल्ली हुई, लगा कि उपाय लागू हो सकता है। थके मांदे थे सो वे भी जाकर सो गए।
सुबह काफिला रवाना होने का समय आया। अन्य सभी ऊंटों की रस्सियां खोली गईं, खूंटें उखाडे। सभी ऊंट रवाना होने के लिए तैयार हुए। लेकिन झूठी रस्सी में बंधा और झूठे खूंटे से गडा ऊंट उठने के लिए तैयार नहीं था।
परेशान काफिले का मालिक सराय के मालिक के पास शिकायत लेकर गया, कहा, 'पता नहीं आपने कौनसा मंत्र पढ़ा, अब मेरा ऊंट उठ ही नहीं रहा है। मैं आगे कैसे जाऊंगा?'
सराय के मालिक ने कहा, 'जाकर पहले खूंटा उखाडो, रस्सी उसके गले से हटाओ।'
काफिले के मालिक ने कहा, 'वहां कोई रस्सी नहीं है और न ही कोई खूंटा गडा है।'
सराय के मालिक ने कहा, 'तुम्हारे लिए नहीं है, ऊंट के लिए है। जाओ, खूंटा उखाडो, रस्सी खोलो। फिर भी ऊंट अगर न चल पड़े तो आकर बताना।'
काफिले के मालिक ने जाकर खूंटा उखाडने का, रस्सी खोलने का अभिनय किया।
ऊंट उठ कर खड़ा हुआ। बाकी ऊंटों के साथ चलने को तैयार हुआ।
काफिले के लोग बहुत हैरान हुए। उन्होंने सराय के मालिक से पूछा इसका रहस्य क्या है?
सराय का मालिक हंसा और बोला, 'न केवल ऊंट बल्कि आदमी भी ऐसी ही खूंटियों से बंधे होते हैं जिनका कि कोई अस्ति्व ही नहीं होता। असल में, ऊंटों का मुझे कोई तजुर्बा नहीं, मनुष्यों के अनुभवों के आधार से ही मैंने आपको यह सलाह दी थी।'
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काल्पनिक बंधनों में जकडा जीव दुनिया की चकरघिन्नी में पिसता रहता है।
वह नहीं जानता कि दुनिया एक सराय है।
धर्म के, देश के, रंग के, विचारधारा के काफिले का वह एक सदस्य भर है।
इन खूंटों से वह बंधा रहता है।
जिस दिन आदमी अपने अंदर के इन्सान को पहचानेगा, जिस दिन अंदर के इंसान के साथ उसका तालमेल बैठेगा, उसके बाद इस दुनिया में हर जीव मुक्त जी पाएगा। 

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

बासी ज्ञान कचरा है

-संध्या पेडणेकर
झेन फकीर रिंझाई के बारे में एक घटना बताई जाती है।
वह पहाड पर रहते थे।
एक बार एक प्रकांड पंडित पहाडी चढ़ कर उनसे मिलने आ पहुंचा। इतनी उंचाई तक चढ़ने का उसे अभ्यास नहीं था इसलिए जब पहुंचा तब उसकी सांस फूली हुई थी। लेकिन जो कुछ पूछना था, जानना था उसके बारे में वह इतना उत्कंठित था कि पहुंचते ही उसने सवालों की झडी लगा दी - मैं जानना चाहता हूं कि ईश्वर है या नहीं? आत्मा है या नहीं? ध्यान क्या है? समाधि क्या है? संबोधि क्या है? बुद्धत्व क्या है?
सवाल सुन कर रिंझाई मुस्कुराए। फिर बोले कि, अभी अभी आए हो। थोड़ा विश्राम कर लो। मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर लाता हूं। चाय पी लें। बातें फिर होती रहेंगी।
रिंझाई चाय बना कर लाए।
पंडित के हाथ में चाय की प्याली दी। उसमें चाय उंड़ेलने लगे।
प्याली भर गई लेकिन रिंझाई रुके नहीं। चाय प्याली से बाहर बहने लगी। पंडित हकबकाकर बोला, 'रुको, रुको। प्याली तो पूरी भर गई है। अब और चाय कहां डालोगे?'
रिंझाई बोले, 'मुझे तो लगा था कि तुम निपट पंडित हो, पर नहीं, अभी थोड़ी अकल तुममें बाकी है। प्याली अगर भरी हो तो उसमें एक बूंद भर चाय भी और नहीं डाली जा सकती यह तो तुम जानते हो, अब सोचो, क्या तुम्हारी हृदय की प्याली खाली है? ईश्वर अगर मिल भी जाए तो क्या तुम उसे अपने अंदर समा सकते हो?बुद्धत्व के सूरज को उगाने के लिए क्या तुम्हारे अंदर का आकाश खुला है? तुम्हारे भीतर इतना थोथा ज्ञान भरा है कि समाधि की एक बूंद भी वहां समा नहीं सकेगी। जागो, समझो, बासी ज्ञान कचरा है। कचरा जहां भरा हो वहां समाधि कैसे लगे? बुद्धत्व कैसे आए? तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर तो मैं दूं, पर क्या तुम उन्हें ले सकोगे?'
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कई बार हम सवालों के जवाब नहीं चाहते, अपनी मान्यता की पुष्टि भर चाहते हैं।
यह लक्षण ईमानदारी का नहीं है।
सचमुच प्रश्न का जवाब पाने की इच्छा जगाने के लिए पहले कही हुई बात को ग्रहण करने की सबूरी इन्सान में होना आवश्यक है। उसके बारे में सोचना फिर हो सकता है, लेकिन अगर आप अपने पूर्वाग्रहों के साथ ले बैठें तो बात को समझानेवाले की तह तक नहीं पहुंच सकते।
ईश्वर को अपने अंदर प्रतिबिंबित देखने के लिए पहले अपने को पारदर्शी बनना होगा।
अंदर छिपे मैल से मुक्ति पाए बगैर यह कैसे संभव है?

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

शरीर की कीमत

-संध्या पेडणेकर
सुप्रसिद्ध संत जलालुद्दीन रूमी को एक बार डाकुओं ने पकड़ लिया। वे उसे बेचने के लिए ले चले। उस जमाने में गुलामों की खरीद-फरोख्त हुआ करती थी। रूमी थे भी हट्टे-कट्टे नौजवान। इसलिए, डाकुओं को लगा कि इस कैदी की अच्छी कीमत मिल सकती है।
रास्ते में उन्हें एक आदमी मिला। उसने कहा, 'मैं इसके दो हजार दीनार दे सकता हूं।'
डाकू बड़े खुश हुए। उन्होंने सोचा नहीं था कि एक गुलाम के इतने दाम मिल सकते हैं। वे रूमी को बेचने के लिए तैयार हो गए। मगर रूमी ने कहा, 'थोड़ा ठहरो। तुम्हें और ज़्यादा दाम मिल सकते हैं। बस किसी पारखी के आने का इंतज़ार करो।'
डाकुओं ने उसकी बात मानी। वे आगे चले।
कुछ देर चलने के बाद उन्हें एक व्यापारी मिला। उसने रूमी को देखा और कहा कि, मैं इसके तीन हजार दीनार दे सकता हूं।
डाकुओं को लगा, ये फकीर ठीक ही कह रहा था। इसकी और अधिक कीमत मिल सकती है। वह अपने बारे में अच्छे से जानता है। उसी से पूछ लेना चाहिए।
उन्होंने रूमी से पूछा, 'क्या करें?'
रूमी ने कहा, 'अभी नहीं।'
फिर उन्हें एक सम्राट मिला। वह रूमी के पांच हजार दीनार देने को तैयार था। डाकुओं ने इतनी तगडी रकम की कल्पना भी नहीं की थी। वे तुरंत रूमी को बेचने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने सोचा, इतना दाम तो बहुत ज़्यादा है। बाद में कोई इतना दाम देनेवाला मिले या न मिले, क्या भरोसा!
मगर रूमी ने उन्हें फिर रोक दिया। कहा, 'अभी नहीं। मेरे शरीर की असली कीमत देनेवाला नहीं आया है।'
एकबारगी डाकुओं को लगा कि सम्राट से ज्यादा कीमत कौन दे सकता है, लेकिन उनके मन में अब लालच जाग गया था। अब तक रूमी की बातें सही साबित हुई थीं, सो डाकुओं ने आखिर उसकी बात मान ली।
वे आगे चले। उन्हें एक घसियारा मिला। घास की गठरी सिर पर लिए वह जा रहा था। उसने देखा कि डाकू एक फकीर को पकड़ कर ले जा रहे हैं। उसने डाकुओं से पूछा, 'बेचोगे क्या?'
डाकुओं ने दुत्कारते हुए उससे कहा, 'हां, लेकिन तू क्या देगा इसकी कीमत? चल जा यहां से।'
घसियारे ने कहा, 'सिर पर जो घास की गठरी है वही दे दूंगा।'
सुन कर रूमी तुरंत बोले, 'दे दो, यह आदमी मेरे शरीर की असली कीमत जानता है। शरीर की असली कीमत यही है।'
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बचपन में लगभग सबने सोने का अंडा पाने की खातिर मुर्गी का पेट काटनेवाले लालची आदमी की और उसे हुए नुकसान की कहानी पढ़ी-सुनी होती है, फिर भी लोभ-लालच के प्रसंगों से आदमी का उबर पाना लगभग असंभव होता है। रास्ते में गिरी पड़ी चवन्नी हो या लाटरी से मिलनेवाली बड़ी रकम हो, आसान तरीके से मिलनेवाले धन के लोभ से बिरला ही बच सकते है।
उस पर रूमी को पकड़नेवाले थे डाकू - रुपयों को ही जिन्होंने अपना जीवन समर्पित कर रखा था।
रूमी के मन की बात ताड़ पाना उनके लिए कैसे संभव होता।
कहानी की ऐतिहासिकता के मुद्दे को अगर नज़रंदाज करें तो इसे गूंधनेवाले की कल्पनाशक्ति की दाद दिए बिना नहीं रहा जा सकता। डाकुओं की सोच और रूमी की सोच रेल की दो पटरियों की तरह समानांतर चलती हैं और यही कहानी के अंत को दिलचस्प बनाती है। सोच के सुप्त अंतःप्रवाह को खोल कर रख देती है।
वैसे, जब तक प्राण हैं तभी तक शरीर की हस्ती है। प्राण निकलें तो, कबीर कह गए हैं - 'हाड लकडी की तरह और बाल घास की तरह जलते हैं।' कबीर मन को चेताते हैं - 'मत कर मेरी मेरी, काया नहीं तेरी....'**
पंचतत्वों से बनी काया आखिर पंचतत्वों में ही विलीन होगी।
'दो दिन की ज़िदगानी' में क्या खरीदना, क्या बेचना और क्या किसीको आंकना!
**youtubeपर पं. भीमसेन जोशी द्वारा गाए कबीरदासजी के पद की लिंक। 

शनिवार, 7 जुलाई 2012

हारा हुआ नेपोलियन


-संध्या पेडणेकर
हारे हुए नेपोलियन को सेंट हेलेना नाम के एक द्वीप पर बंदी बना कर रखा गया था। उसके साथ उसका डॉक्टर भी था। नेपोलियन की विजय यात्रा में भी डॉक्टर उसके साथ रहा था। साधारण कैदी के रूप में रहनेवाले नेपोलियन को देख कर उसे बड़ा दुख होता।
एक दिन नेपोलियन और डॉक्टर द्वीप पर घूमने निकले। वे दोनों एक छोटी-सी पगडंडी से निकल रहे थे। तभी खेतों के बीच से होती हुई एक घसियारिन उनके सामने आ गई। उसके सिर पर घास का गठ्ठर लदा था जिसके नीचे उसका आधा चेहरा छिपा था। वह ठीक से देख नहीं पा रही थी.
डॉक्टर ने  चिल्ला कर उससे कहा, 'हट जा, हट जा रास्ते से। जानती भी है कौन आ रहा है? नेपोलियन आ रहा है!'
घसियारिन कुछ समझ पाए इससे पहले नेपोलियन ने डॉक्टर का हाथ पकडा और उसे खींच कर पगडंडी के किनारे ले गया।
घसियारिन उनके पास से होकर आगे निकली। इतने पास से कि उसके सिर पर रखे घास के गठ्ठर से निकले कुछ तिनकों ने डॉक्टर और नेपोलियन को छुआ।
डॉक्टर व्यथित हुआ। लेकिन नेपोलियन पर इसका कुछ असर नहीं हुआ।
उसने डॉक्टर को समझाया, 'प्यारे, अब सपना बीत गया है। होश में आ जाओ। वे दिन लद गए जब हम पहाड से भी कहते कि हट जाओ, नेपोलियन आ रहा है तो पहाड को हटना पडता। अब तो, घसियारिन के लिए भी हमें हट जाना चाहिए।'
नेपोलिन हार-जीत के सही मायने जानता था। हार कर भी वह वही था जो जीत कर हुआ करता था।
हां, डॉक्टर को बहुत बुरा लगा। यह देख कर कि एक मामूली घसियारन के लिए नेपोलियन को रास्ते से हटना पडा।
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इंसान की सोच के दायरे होते हैं। कुछ संकरे, कुछ थोडे फैले, तो कुछ विस्तृत।
सोच का दायरा जितना विशाल व्यक्ति की महत्ता उसी अनुपात में अधिकाधिक होती है।
मसलन, आम आदमी की नज़र में कोई अफसर होता है, कोई रिक्शेवाला, कोई सब्जीवाला, कोई प्रधानमंत्री, कोई औरत, कोई दलित, कोई ब्राह्मण लेकिन जो यह जानता है कि इन सभी भेदों से परे हर शरीर में एक आत्मा बसती है जो उसी परमात्मा का एक अंश है तब वह आदमी आम नहीं रह जाता।
इंसान को हमेशा अपनी सोच के दायरे से परे निकलने की कोशिश करते रहना चाहिए।
और कि, इस कहानी में नेपोलियन जानता था, सपनों के बीत जाने से ज़िंदगी की शाम नहीं ढलती। तो क्यों सपने बीत जाने पर ज़िंदगी से तौबा कर लें?
हरिवंशरायजी कह गए हैं -
"पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है....
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है...
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है.... "
जीवन रूपी मधु के जो चहेते हैं उनके लिए टूटे सपने नहीं जीवन अहमियत रखता है। यह जानते हुए भी कि मिट्टी के बने घट फूटा ही करते हैं, सपने टूटा भी करते हैं जीवन से जिसे सच्चा प्रेम है वह जीवन का साथ निभाता है। 
क्योंकि, जीवन सपनों से ऊंचा है।** 
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**कविता है - -हरिवंशराय बच्चन 


जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया

अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई.
(धन्यवादसहित - http://hindizen.com/2010/05/04/jo-beet-gai-so-baat-gai/)

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

दान में क्या दोगे?

-संध्या पेडणेकर
गौतम बुद्ध ज्ञानप्राप्ति के बाद घर लौटे। ग्यारह साल बाद वह घर लौटे थे। जिस दिन उन्होंने घर का त्याग किया था तब उनका बेटा राहुल एक साल का था। वह लौटे तब वह बारह साल का हो चुका था।
बुद्ध की पत्नी यशोधरा बुद्ध से बहुत नाराज थी। छूटते ही उसने भगवान बुद्ध से एक सवाल पूछा, 'तुम्हें क्या मेरा इतना भी भरोसा नहीं था? मुझसे कह देते 'मैं जा रहा हूं' तो क्या तुम्हें लगा कि मैं तुम्हें रोक लूंगी? तुम भूल गए थे शायद कि मैं भी क्षत्राणी हूं। हम अगर युद्ध के मैदान में तुम्हें टीका लगा कर भेज सकते हैं तो क्या सत्य की खोज के लिए नहीं भेज सकते? तुमने मेरा अपमान किया।'
कई लोगों ने बुद्ध से कई तरह के सवाल पूछे थे। लेकिन यशोधरा के सवाल ने बुद्ध को निरुत्तर कर दिया। इसके बाद यशोधरा ने पूछा, 'बताओ, जंगल जाकर तुमने जो पाया क्या तुम यहां नहीं पा सकते थे?' इस सवाल का जवाब भी बुद्ध हां में नहीं दे सके क्योंकि सत्य तो हर जगह होता है।
यशोधरा ने तीसरा काम जो किया वह बड़ी चोट वाला था। उसने अपने बेटे राहुल को आगे किया और उससे कहा, 'ये देखो, ये जो भिक्षापात्र लिए खड़े हैं वही तुम्हारे पिता हैं। तुम जब एक दिन के थे तब ये तुझे छोड़ कर भाग गए थे। अब लौटे हैं। फिर पता नहीं कब मिलना हो! तुम्हें देने के लिए इनके पास जो हो वह मांग लो।'
बुद्ध के पास देने को था ही क्या? यशोधरा तो प्रतिशोध ले रही थी। बारह साल से इकठ्ठा हुआ गुस्सा उतार रही थी। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि बात का रुख यूं मुड़ जाएगा।
बुद्ध ने तत्क्षण अपना भिक्षापात्र राहुल को दे दिया। कहा, 'बेटा, जो मैंने पाया वही मैं तुझे दे रहा हूं। इसके अलावा तुझे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। तू संन्यस्त हो जा!'
सुन कर यशोधरा की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे।
बुद्ध ने यशोधरा से कहा, 'समाधि मेरी संपदा है। उसे बांटने का ढ़ंग संन्यास है। आया तो इसलिए था कि तुझे भी ले चलूं। जिस संपदा का मैं मालिक हुआ उसकी तू भी मालिक हो जा।'
यशोधरा ने भी सिद्ध करके दिखा दिया कि वह क्षत्राणी है। बुद्ध से दीक्षा लेकर वह भिक्षुओं में इसतरह खो गई कि इस घटना के बाद बौद्ध शास्त्रों में उसका कहीं जिक्र नहीं आता।
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यशोधरा का सवाल यह नहीं था कि तुम इस राजपाट को, इस वैभव को त्याग कर, मुझे अनाथ कर क्यों गए?वह आहत थी तो सिर्फ इसलिए कि बुद्ध ने उस पर भरोसा नहीं किया। 
प्रेम, आस्था, समर्पण, निष्ठा, प्रण पर कायम रहना, आस्तिकता शाश्वत मूल्य हैं। उन्हें संपत्ति के तराजू में तौला नहीं जा सकता लेकिन इनके बगैर जीवन की अलौकिकता मिट्टी बन जाती है।
मिट्टी से पैदा हुए जीव का मिट्टी में मिलना अपरिहार्य है लेकिन इस तथ्य को ये शाश्वत मूल्य ही हैं जो चुनौती  देते हैं। पार्थिव शरीर में प्राणों के साथ अगर इन तत्वों की स्थापना न हो तो वह केवल पर्थिव ही रह जाता है। जीवन की अलौकिकता शाश्वत मूल्यों के बगैर कदापि संभव नहीं। पार्थिव को अपार्थिव बनाने की क्षमता इन मूल्यों में है।
सत्य की खोज में जीव जब संन्यस्त होता है तब उसे परमतत्व की खोज और उसमें विलीन होने की चाह होती  है।
परमतत्व सृष्टि के चराचर में व्याप्त है। सत्य के बारे में भी हम यही कह सकते हैं। परमतत्व की तरह ही सत्य की प्राप्ति भी मन के बोधिवृक्ष तले संभव है।
चाहे संन्यासी बन कर जिएं या राजमहलों में वास करें, जब तक मन के बोधिवृक्ष की छांव में आप हैं तब तक सत्य से, परमात्मा से दूर नहीं।

शनिवार, 2 जून 2012

सयाना गधा


 -संध्या पेडणेकर
ईसपनीति में एक कथा है। व्यवहारचातुरी का उत्तम उदाहरण।
एक दिन एक सिंह, एक लोमडी और एक गधा शिकार के लिए साथ में निकले। बरसात के दिन अभी अभी खत्म हुए थे। खुशगवार मौसम था। तीनों ने मिल कर खूब शिकार किया।
कुछ ही देर में वहां मांस का ढ़ेर इकठ्ठा हुआ।
सिंह ने लोमडी से कहा,तू समझदार है, और चालाक भी है। अब इस शिकार के बराबर-बराबर तीन हिस्से कर दे। तीनों ने मिल कर शिकार किया है तो तीनों को बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए।
लोमडी ने शिकार के हिस्से किए, बिल्कुल बराबर-बराबर। न किसी हिस्से में एक बोटी कम, न ज़्यादा।
लेकिन इससे सिंह बहुत नाराज हुआ। वह कुछ देर तो नाराजगी में गर्दन झटकता रहा लेकिन लोमडी फिर भी नहीं समझी तो झपट कर उसकी गर्दन दबोची और उसे भी मांस के ढ़ेर पर फेंक दिया।
शिकार के हिस्से करने का काम अभी भी बाकी था। सिंह ने गधे से कहा, हिस्से करने की जिम्मेदारी अब तेरी है। तू शिकार के दो हिस्से करना। एक तेरे लिए, एक मेरे लिए। बिल्कुल बराबर-बराबर।
गधे ने एक तरफ शिकार का एक ढ़ेर लगा दिया और एक मरे हुए कौए को एक तरफ कर दिया।
फिर मरे कौए की तरफ इशारा कर सिंह से कहा, महाराज, ये मेरा आधा हिस्सा और वह आधा आपका।
सिंह बड़ा खुश हुआ। उसने कहा, गधे! तू तो बड़ा सयाना निकला! विभाजन की कला तुमने कहां से सीखी?’
गधे ने कहा कुछ नहीं, विनम्रता से सिर नवाया। फिर मन ही मन उसने सिंह के किए सवाल का जवाब अपने आपको  दिया, इस मरी हुई लोमडी ने मुझे सिंह के साथ किए शिकार को बराबर-बराबर बांटने की कला सिखाई!’
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लाठी किसके हाथ में है पहचानना जिसे आ गया वह दुनिया का सबसे सयाना जीव ठहरा।
लोमडी बेचारी सयानी थी, लोग उसे चालाक भी समझते थे लेकिन सत्ता की लाठी वह भांप नहीं पाई और उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ गया।
लोगों में गधे की छवि बेवकूफों वाली थी लेकिन लोमडी की शहादत ने उसकी अकल के ताले खोल दिए।
जंगल में राजा एक,
प्रजातंत्र में राजाओं की भरमार।
किसकी नाराजगी कब आप पर भारी पड़े क्या पता!

मंगलवार, 29 मई 2012

क्षमा

-संध्या पेडणेकर
महाभारत युद्ध के बाद अश्वत्थामा ने रात में पांडवों के शिविर में आग लगा दी।
जिन्होंने भागने की कोशिश की उन सबको चुन चुन कर बाणों से मार डाला।
महाभारत युद्ध से बची सेना मारी गई। उस दिन युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद पांडवों को और सात्यकी को लेकर कृष्ण कहीं चले गए थे। अब पांडवों की सेना में केवल उतने ही लोग बचे थे।
सुबह लौटने के बाद पांडवों ने देखा कि शिविर और युद्धभूमि अधजली लाशों से पटी पड़ी है।
महारानी द्रौपदी के पांचों पुत्रों के शव भी क्षत-विक्षत पड़े थे। द्रौपदी की व्यथा का पार नहीं था।
अर्जुन ने उन्हें धैर्य बंधाया और कहा, 'इनके हत्यारे अश्वत्थामा का कटा सिर देखने के बाद ही आज तुम स्नान करना।'
इतना कह कर अपने रथ में बैठ कर कृष्ण के साथ अर्जुन अश्वत्थामा की खोज में निकल गए।
अर्जुन को देख कर अश्वत्थामा भागा लेकिन अर्जुन ने उसे पकड़ कर बांध दिया। उसे बंदी बना कर अर्जुन ने द्रौपदी के सामने खड़ा किया।
अश्वत्थामा पर नज़र पड़ते ही भीम ने कहा, 'इसे तो तत्काल मार डालना चाहिए।'
सबका गुस्सा उफान पर था लेकिन द्रौपदी ने सबको रोक कर कहा, 'मेरे पुत्र मारे गए हैं इसलिए, पुत्र की मृत्यु का  शोक  क्या होता है मैं जानती हूं। इसकी माता कृपी हमारी गुरुपत्नी है। उसके भी मेरी तरह पुत्र वियोग का दुख नहीं होना चाहिए। अपने गुरु को जिसने हमें अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाया उन गुरुदेव द्रोणाचार्य को को हम उनके इस पुत्र में उपस्थित पाते हैं। इसके साथ हम निष्ठुर नहीं हो सकते। छोड़ दो इसे।'
जिनके पांच मृत पुत्रों के शव सामने पड़े हों, उन पुत्रों के हत्यारे के प्रति द्रौपदी की क्षमा धन्य है।
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क्रोध क्षणिक पागलपन है।
ऐसे पागलपन में व्यक्ति कभीकभार अश्वत्थामा की तरह जघन्य कृत्य भी कर गुजरता है। 
क्रोध का बुखार उतर जाए तो माफी माँगना और माफी मांगनेवाले को माफ करना दोनों ही इंसानी व्यक्तित्व को परिपूर्ण बनाने वाले तत्व हैं। 
क्षमा को सभी धर्मों और संप्रदायों में श्रेष्ठ गुण करार दिया गया है। क्षमा माँगना अच्छा गुण है और किसी को क्षमा कर देना इंसान के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाता है। 
रहीम कहते हैं-
'क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात,
कहाँ रहीम हरि को घट्यो जो भृगु मारी लात' 
व्यक्तित्व का अद्भुत गुण है क्षमा।


मंगलवार, 22 मई 2012

मुक्ति का क्षण


-संध्या पेडणेकर
नागार्जुन फकीर थे। एक रानी को उनसे प्यार हुआ। एक दिन साहस करके नागार्जुन को अपने महल में आमंत्रित किया। वह उनका सान्निध्य चाहती ती और साथ ही उन्हें कुछ देना चाहती थी जिससे उनके अभाव नष्ट हो जाएं।
नागार्जुन ने उसका आमंत्रण स्वीकार किया और मेहमान बन कर वे उसके महल में गए।  
उनके आने से रानी को बहुत खुशी हुई। उसने उनका स्वागत किया और हर तरह से उनका खयाल रखा।
दिन ढ़लने को आया तो नागार्जुन लौटने लगे। तब रानी ने बड़ी विनम्रता से कहा, 'महाराज, मैं आपसे कुछ चाहती हूं।'
नागार्जुन ने पूछा कि वह क्या चाहती है?
रानी ने कहा, 'गर आप अपना भिक्षापात्र मुझे दे दें तो... '
नागार्जुन ने झट अपना भिक्षापात्र उसे दे दिया। तब रानी ने उन्हें एक रत्नजटित स्वर्णपात्र दिया। उसने नागार्जुन से कहा, उस पात्र के बदले आप यह पात्र रख लीजिए। मैं आपके भिक्षापात्र की हर रोज पूजा करूंगी।
राजमहल से निकलते ही नागार्जुन के हाथ के बहुमूल्य पात्र पर एक चोर की नज़र पड़ी। उसने सोचा, एकांत देख कर वह उनसे पात्र छीन लेगा। वह नागार्जुन के पीछे पीछे चलने लगा।
कुछ दूर चलने के बाद नागार्जुन ने उस पात्र को फेंक दिया।
चोर ने झट वह पात्र उठाया। उसे लगा, इतना बहुमूल्य पात्र इस आदमी ने यूंही फेंक दिया
! मुझे कम से कम उसका शुक्रिया अदा करना चाहिए।
सो आगे बढ़ कर उसने नागार्जुन को रोका। कहा,
महाराज! मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। आप जैसे लोग भी होते हैं इस पर पहले मेरा विश्वास नहीं था। क्या मैं आपके पैर छू सकता हूं?’
नागार्जुन ने हंस कर उससे कहा,ज़रूर।
चोर ने झुक कर नागार्जुन के पैर छुए और कृतज्ञता से भरे उसके हृदय में उस एक क्षण और उस छुटपुट स्पर्श से ऐसे भाव जागे कि वह व्याकुल हो उठा। उसने नागार्जुन से पूछा, बाबा, अगर मुझे आपके जैसे बनना हो तो कितने जन्म लेने पड़ेगे?’
नागार्जुन ने कहा,'कितने जन्म? तुम चाहो तो यह आज हो सकता है, अभी हो सकता है!'
चोर उस दिन, उस क्षण के बाद चोर नहीं रहा। वह नागार्जुन का शिष्य बन गया।
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हृदय पवित्र हो तो उद्धार का क्षण कभी फिसल नहीं जाता।
लगन लगे तो पार पाने में देर नहीं लगती।
कहते हैं, शरीर में जब तक एकाध सांस भी बाकी हो तब तक पापी को अपने पाप से उद्धार पाने की आस नहीं छोड़नी चाहिए और पुण्यावान को अपने पुण्य पर गुमान नहीं पालना चाहिए।
कौनसा पल क्या सौगात ले आए क्या पता।
मन चंगा रखें, बस।